वर्ष - 2, सत्रहवाँ सप्ताह, शनिवार

📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 26:11-16,24

11) याजकों और नबियों ने शासकों और समस्त जनता से कहा, “यह व्यक्ति प्राणदण्ड के योग्य है। इसने इस नगर के विरुद्ध भवियवाणी की है, जैसा कि आपने अपने कानों से सुना है।“

12) किन्तु यिरमियाह ने शासकों और समस्त जनता से कहा, “तुम लोगों ने इस मन्दिर और इस नगर के विरुद्ध जो भवियवाणी सुनी है, मैंने उसे प्रभु के आदेश से घोषित किया है।

13) इसलिए अपना आचरण सुधारो। अपने प्रभु-ईश्वर की बात सुनो, जिससे उसने जो विपत्ति भेजने की धमकी दी है, वह उसका विचार छोड़ दे।

14) मैं तो तुम्हारे वश में हूँ- जो उचित और न्यायसंगत समझते हो, वही मेरे साथ करो।

15) किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि यदि तुम मेरा वध करोगे, तो तुम अपने पर, इस नगर और इसके निवासियों पर निर्दोष रक्त बहाने का अपराध लगाओगे; क्योंकि प्रभु ने ही तुम्हें यह सब सुनाने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।“

16) इस पर शासकों और समस्त जनता ने याजकों और नबियां से कहा, “यह व्यक्ति प्राणदण्ड के योग्य नहीं है। यह हमारे प्रभु ईश्वर के नाम पर हम से बोला है।“

24) शाफ़ान के पुत्र अहीकाम ने यिरमियाह की रक्षा की और उसे लोगों के हाथ नहीं पड़ने दिया, जो उसका वध करना चाहते थे।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 14:1-12

1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।

2) और अपने दरबारियों से कहा, ’’यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।’’

3) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;

4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, ’’उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है’’।

5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।

6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।

7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।

8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, ’’मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए’’।

9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।

10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।

11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।

12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।

📚 मनन-चिंतन

आज के दोनों पाठों में हमें एक समान परिस्थिति दिखाई देती है, जहाँ पहले पाठ में नबी येरेमीयस को अत्याचार का सामना करना पड़ता है क्योंकि वह प्रभु की सत्य वाणी को लोगों तक पहुँचाना चाहता था। भले ही उसके शब्द सुनने में प्रिय नहीं थे, लेकिन वे सत्य से पूर्ण थे; वे ईश्वर के शब्द थे। मन्दिर के दूसरे पुजारी और नबी सत्य और ईमानदारी का जीवन नहीं जी रहे थे। वे अपना जीवन ईश्वर की इच्छानुसार नहीं जी रहे थे, वे बुराई के कार्यों में लिप्त थे, ऐसे कार्य जो उन्हें ईश्वर से दूर ले जाते थे। इसी प्रकार आज के सुसमाचार में हम योहन बप्तिस्ता को देखेत हैं जिसने हेरोद और उसके भाई की पत्नी हेरोदीयस के काले कारनामों का खुलकर विरोध किया। वे दोनों अनैतिक जीवन जीवन जी रहे थे जो ईश्वर की नज़रों में अप्रिय है। नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता दोनों को इस दुनिया को सही रहा दिखाने के कारण दुःख और अत्याचारों का सामना करना पड़ा था।

आज हम नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता के समय से अधिक पापी संसार में हैं। आज हम देखते हैं कि लोग नैतिकता और नैतिक मूल्यों से अनजान हैं, बुराई फल-फूल रही है, लोग ईश्वर की राह से अपनी आँखें और कान बन्द कर लेते हैं। लोग दुनिया के पापी मार्गों पर भटक जाना पसन्द करते हैं जो उन्हें ईश्वर से दूर विनाश की ओर ले जाते हैं। आज के पाठ हमें नबी येरेमीयस और योहन बप्तिस्ता की तरह ईश्वर की वाणी का माध्यम बनना है, भले ही इसके लिए हमें कितने भी कष्ट और अत्याचार क्यों ना सहने पड़ें। इस ज़िम्मेदारी के लिए ईश्वर ने हममें से प्रत्येक को व्यक्तिगत रूप से चुना है। हे प्रभु हमें आपकी आवाज़ बनने की कृपा और शक्ति प्रदान कीजिए ताकि हम संसार के सामने आपका साक्ष्य दे सकें। आमेन।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today in both the readings we see a similar situation where in the first reading Jeremiah is subjected to torture because he spoke what the Lord had asked him to speak. Though the words were not pleasant to hear, but they were truth; they were from God. Other priests of the temple and prophets were not living an authentic and sincere life. They were not living a life as God wanted them to live, they involved themselves in evil ways; ways that led them away from God. Similarly, in the gospel we see John the Baptist who opposed and corrected the ways of Herod and his brother’s wife Herodias. They both were living immoral life, a life unacceptable in the eyes of the Lord. Both prophet Jeremiah and John the Baptist had to suffer for correcting the wrong ways of the world.

Today we live in a much evil world then at the time of Jeremiah or John the Baptist. We see that people have become alien to morality and moral values, evil is thriving, people close their eyes and ears from God’s ways. They like and choose to be lost in the evil ways of the world that lead them away from God. Today’s readings challenge and invite us to become the voice of the Lord like Jeremiah and John the Baptist, even at the cost of pain and suffering. God has chosen each one of us for this responsibility. Give us strength and courage Lord, to speak for you and to witness the Truth before the world. Amen

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!