वर्ष - 2, अठारहाँ सप्ताह, सोमवार

📒 पहला पाठ : यिरमियाह 28:1-17

1) यूदा के राजा योशीया के शासनकाल के प्रारम्भ में, चैथे वर्ष के पाँचवें महीने में अज्जूर के पुत्र हनन्या- गिबओन में रहने वाले नबी- ने प्रभु के मन्दिर में याजकों तथा समस्त जनता के सामने यिरमियाह से यह कहा,

2) “विश्वमण्डल का प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः मैं बाबुल के राजा का जूआ तोडूँगा।

3) मैं ठीक दो वर्ष बाद प्रभु के मन्दिर के वे सब सामान वापस ले आऊँगा जिन्हें बाबुल का राजा नबूकदनेज़र यहाँ से बाबुल ले गया था।

4) यहोयाकीम के पुत्र, यूदा के राजा यकोन्याह को और यूदा के सब निर्वासितों को भी मैं बाबुल से यहाँ वापस ले आऊँगा- यह प्रभु की वाणी है- क्योंकि मैं बाबुल के राजा का जूआ तोड़ूँगा।“

5) किन्तु नबी यिरमियाह ने सब याजकों समस्त जनता के सामने नबी हनन्या को सम्बोधित करते हुए कहा,

6) “एवमस्तु! प्रभु ऐसा ही करें! प्रभु तुम्हारी भवियवाणी पूरी करे और प्रभु के मन्दिर के सब सामान और सब निर्वासितों को भी वापस ले आये।

7) किन्तु जो बात मैं तुम को और सारी जनता को बताने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो।

8) तुम्हारे और मेरे पहले जो नबी थे, वे प्राचीन काल से, शक्तिशाली देशों और बड़े राज्यों के लिए युद्ध, विपत्ति और महामारी की भवियवाणी करते आ रहे हैं।

9) जो नबी शान्ति की भवियवाणी करता है, वह तभी प्रभु का भेजा हुआ नबी माना जा सकता है, जब उसकी भवियवाणी पूरी हो जाये।“

10) इस पर नबी हनन्या ने नबी यिरमियाह के कन्धे पर से जूआ उतारा और उसे तोड़ डाला।

11) तब हनन्या समस्त जनता के सामने यह बोला, “प्रभु यह कहता है: मैं इसी तरह बाबुल के राजा नबूकदनेज़र का जूआ तोड़ूँगा। मैं ठीक दो वर्ष बाद उसे सब राष्ट्रों के कन्धे पर से उतार कर तोड़ दूँगा।“ इसके बाद नबी यिरमियाह अपनी राह चला गया।

12) जब हनन्या ने नबी यिरमियाह के कन्धे पर से जूआ उतार कर तोड़ दिया था, तो उस के थोड़े समय बाद प्रभु की वाणी यिरमियाह को यह कहते हुए सुनाई दी,

13) “जाओ और हनन्या से कहो- यह प्रभु की वाणी है। तुमने लकड़ी का जूआ तोड़ा, इसके बदले लोहे का जूआ आयेगा;

14) क्योंकि विश्वमण्डल का प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः मैं सब राष्ट्रों के कन्धे पर लोहे का जूआ रखने जा रहा हूँ। वे सब बाबुल के राजा नबूकदनेज़र के अधीन होंगे। मैंने बनैले पशुओं को भी उसके अधीन कर दिया है।“

15) नबी यिरमियाह ने नबी हनन्या से कहा, “हनन्या! ध्यान से मेरी बात सुनो! प्रभु ने तुम को नहीं भेजा है। तुमने इस प्रजा को झूठी आशा दिलायी है।

16) इसलिए प्रभु यह कहता हैः मैं तुम को इस पृथ्वी पर से मिटा दूँगा। तुम इसी वर्ष मर जाओगे; क्योंकि तुमने प्रभु के विरुद्ध विद्रोह का प्रचार किया है।“

17) उसी वर्ष के सातवें महीने नबी हनन्या का देहान्त हो गया।

📙 सुसमाचार : मत्ती 14:13-21

13) ईसा यह समाचार सुन कर वहाँ से हट गये और नाव पर चढ़ कर एक निर्जन स्थान की ओर चल दिये। जब लोगों को इसका पता चला, तो वे नगर-नगर से निकल कर पैदल ही उनकी खोज में चल पड़े।

14) नाव से उतर कर ईसा ने एक विशाल जनसमूह देखा। उन्हें उन लोगों पर तरस आया और उन्होंने उनके रोगियों को अच्छा किया।

15) सन्ध्या होने पर शिष्य उनके पास आ कर बोले, "यह स्थान निर्जन है और दिन ढल चुका है। लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे गाँवों में जा कर अपने लिए खाना खरीद लें।"

16) ईसा ने उत्तर दिया, "उन्हें जाने की ज़रूरत नहीं। तुम लोग ही उन्हें खाना दे दो।"

17) इस पर शिष्यों ने कहा "पाँच रोटियों और दो मछलियों के सिवा यहाँ हमारे पास कुछ नहीं है"।

18) ईसा ने कहा, उन्हें यहाँ मेरे पास ले आओ"।

19) ईसा ने लोगों को घास पर बैठा देने का आदेश दे कर, वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले ली़। उन्होंने स्वर्ग की और आँखें उठा कर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को दीं और शिष्यों ने लोगों को।

20) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।

21) भोजन करने वालों में स्त्रिीयों और बच्चों के अतिरिक्त लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे।


अथवा 📙 सुसमाचार : मत्ती 14:22-36

22) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।

23) ईसा लोगों को विदा कर एकान्त में प्रार्थना करने पहाड़ी पर चढे़। सन्ध्या होने पर वे वहाँ अकेले थे।

24) नाव उस समय तट से दूर जा चुकी थी। वह लहरों से डगमगा रही थी, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी।

25) रात के चैथे पहर ईसा समुद्र पर चलते हुए शिष्यों की ओर आये।

26) जब उन्होंने ईसा को समुद्र पर चलते हुए देखा, तो वे बहुत घबरा गये और यह कहते हुए, "यह कोई प्रेत है", डर के मारे चिल्ला उठे।

27) ईसा ने तुरन्त उन से कहा, "ढारस रखो; मैं ही हूँ। डरो मत।"

28) पेत्रुस ने उत्तर दिया, "प्रभु! यदि आप ही हैं, तो मुझे पानी पर अपने पास आने की अज्ञा दीजिए"।

29) ईसा ने कहा, "आ जाओ"। पेत्रुस नाव से उतरा और पानी पर चलते हुए ईसा की ओर बढ़ा;

30) किन्तु वह प्रचण्ड वायु देख कर डर गया और जब डूबने लगा तो चिल्ला उठा, "प्रभु! मुझे बचाइए"।

31) ईसा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर उसे थाम लिया और कहा, "अल़्पविश्वासी! तुम्हें संदेह क्यों हुआ?"

32) वे नाव पर चढे और वायु थम गयी।

33) जो नाव में थे, उन्होंने यह कहते हुए ईसा को दण्डवत् किया "आप सचमुच ईश्वर के पुत्र हैं"।

34) वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुँचे।

35) वहाँ के लोगों ने ईसा को पहचान लिया और आसपास के गाँवों में इसकी ख़बर फैला दी। वे सब रोगियों को ईसा के पास ले आ कर

36) उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उसका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।

📚 मनन-चिंतन (मत्ती 14:22-36)

आज हम इस पर मनन-चिंतन करते हैं कि किस तरह प्रभु येसु जो कुछ पल अकेले रहकर प्रार्थना करना चाहते थे, और बाद में अपने शिष्यों के साथ होना चाहते थे, लेकिन वे देखते हैं कि उनके शिष्य उनसे दूर जा चुके है और उनकी नाव लहरों में हिचकोले खा रही है। प्रभु येशु शिष्यों के डर और संघर्ष को महसूस कर सकते थे। उन्हें मालूम था कि भले ही शिष्यों ने उन्हें नहीं पुकारा लेकिन उन्हें जाकर उनके साथ रहना है, इतना ही उन्हें पर्याप्त साहस प्रदान करेगा। कभी-कभी जब हम अपने जीवन की चुनौतियों और कठिन परिस्थितियों में फँस जाते हैं तो प्रभु येसु की उपस्थिति मात्र से ही सारे संकट दूर हो जाएँगे, प्रभु येसु को कोई चमत्कार करने की ज़रूरत नहीं है, बस उनका हमारे साथ रहना ही काफ़ी है।

सबसे बढ़कर अच्छी बात तो यह है कि हम तक पहुँचने के लिए प्रभु येसु किसी बाधा को पार करने के लिए तैयार हैं, उन्हें कुछ भी नहीं रोक सकता है क्योंकि उनकी दृष्टि हमारी ओर लगी हुई है, उसके लिए हम मूल्यवान हैं। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि हमारी दृष्टि किसकी ओर है, प्रभु की ओर या कहीं और? क्या हमारा ध्यान प्रभु येसु पर है या हमारे खुद के जीवन पर, खुद की परेशानियों और चिंताओं पर, हमारे डर और चुनौतियों पर? यदि ऐसा है तो हम भी सन्त पेत्रुस की तरह प्रभु येसु की तरफ़ बढ़ नहीं पाएँगे, बल्कि अगर हमारा ध्यान प्रभु येसु से हटा तो डूबने का भी ख़तरा बना रहेगा। आइए हम प्रभु येसु से सदा हमारे साथ रहने की कृपा माँगे और हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में अपना ध्यान प्रभु पर लगाएँ। आमेन।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION (Mt 14:22-36)

Today we see Jesus who went alone to pray, wanted to join the disciples, but they were away from the shore and the boat was being tossed by waves, the wind was against them. Jesus could feel the anguish and struggle of the disciples. He knew that even if they had not called him, he had to be with them, that would give them relief. Sometimes when we are amidst the problems and difficulties of our lives, mere presence of Jesus, can put them away, he need not do anything, just be with us and everything will be all right.

And we know that to reach to us he can cross all boundaries, nothing can stop him, because his focus is on us, we are precious to him. But the real question is where is our focus? Is our focus Jesus or our own life, our own fears, worries and problems? If so then we may not be able to walk like Peter and may even get drowned if we take away our focus from Jesus. Let us ask Jesus to always be with us and give us grace to always look to him in all our affairs of daily life. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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