वर्ष - 2, अठारहाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 30:1-2,12-15,18-22

1) प्रभु की वाणी यिरमियाह को यह कहते हुए सुनाई पड़ीः

2) इस्राएल का प्रभु-ईश्वर यह कहता है - ’मैंने जो कुछ तुम से कहा, वह सब एक पुस्तक में लिख लो ;

12) “प्रभु यह कहता है- तुम्हारी बीमारी कभी अच्छी नहीं होगी। तुम्हारे घावों पर कोई इलाज नहीं है।

13) तुम्हारा कोई पक्षधर नहीं है। तुम्हारे घाव नहीं भरेंगे।

14) तुम्हारे सभी प्रेमियों ने तुम को भुला दिया; वे तुम्हारी कोई परवाह नहीं करते, क्योंकि तुम्हारे असंख्य अपराधों और पापों के कारण मैंने तुम को शत्रु की तरह मारा और घोर दण्ड दिया है।

15) तुम अपने घावों पर क्यों रोती हो? तुम्हारी बीमारी का कोई इलाज नहीं। तुम्हारे असंख्य अपराधों और पापों के कारण ही मैंने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार किया है।

18) “प्रभु यह कहता है- मैं याकूब के तम्बुओं को फिर खड़ा करूँगा। मैं उसके घरों पर दया करूँगा। खँडहरों पर नगर का पुननिर्माण होगा और अपने पुराने स्थान पर गढ़ का पुनरुद्धार होगा।

19) उन में से स्तुतिगान और आनन्दोत्सव की ध्वनि सुनाई देगी। मैं उनकी संख्या बढ़ाऊँगा, वह फिर कभी नहीं घटेगी। मैं उन्हें सम्मान प्रदान करूँगा, उनका फिर कभी तिरस्कार नहीं किया जायेगा।

20) उनकी सन्तति पहले-जैसी होगी और उनका समुदाय मेरे सामने बना रहेगा। मैं उनके सब अत्याचारियों को दण्ड दूँगा।

21) उन में से एक उनका शासक बनेगा और उनके बीच में से उनका राजा उत्पन्न होगा। मैं स्वयं उसे अपने पास बुलाऊँगा और वह मेरे पास आयेगा; क्योंकि कोई भी अपने आप मेरे पास आने का साहस नहीं करता। यह प्रभु की वाणी है।

22) तुम मेरी प्रजा होगे और मैं तुम्हारा ईश्वर होऊँगा।“

📙 सुसमाचार : मत्ती 14:22-36

22) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।

23) ईसा लोगों को विदा कर एकान्त में प्रार्थना करने पहाड़ी पर चढे़। सन्ध्या होने पर वे वहाँ अकेले थे।

24) नाव उस समय तट से दूर जा चुकी थी। वह लहरों से डगमगा रही थी, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी।

25) रात के चैथे पहर ईसा समुद्र पर चलते हुए शिष्यों की ओर आये।

26) जब उन्होंने ईसा को समुद्र पर चलते हुए देखा, तो वे बहुत घबरा गये और यह कहते हुए, "यह कोई प्रेत है", डर के मारे चिल्ला उठे।

27) ईसा ने तुरन्त उन से कहा, "ढारस रखो; मैं ही हूँ। डरो मत।"

28) पेत्रुस ने उत्तर दिया, "प्रभु! यदि आप ही हैं, तो मुझे पानी पर अपने पास आने की अज्ञा दीजिए"।

29) ईसा ने कहा, "आ जाओ"। पेत्रुस नाव से उतरा और पानी पर चलते हुए ईसा की ओर बढ़ा;

30) किन्तु वह प्रचण्ड वायु देख कर डर गया और जब डूबने लगा तो चिल्ला उठा, "प्रभु! मुझे बचाइए"।

31) ईसा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर उसे थाम लिया और कहा, "अल़्पविश्वासी! तुम्हें संदेह क्यों हुआ?"

32) वे नाव पर चढे और वायु थम गयी।

33) जो नाव में थे, उन्होंने यह कहते हुए ईसा को दण्डवत् किया "आप सचमुच ईश्वर के पुत्र हैं"।

34) वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुँचे।

35) वहाँ के लोगों ने ईसा को पहचान लिया और आसपास के गाँवों में इसकी ख़बर फैला दी। वे सब रोगियों को ईसा के पास ले आ कर

36) उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उसका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।

अथवा 📙 सुसमाचार : मत्ती 15:1-2,10-14

1) येरूसालेम के कुछ फ़रीसी और शास्त्री किसी दिन ईसा के पास आये।

2) और यह बोले, "आपके शिष्य पुरखों की परम्परा क्यों तोड़ते हैं? वे तो बिना हाथ धोये रोटी खाते हैं।"

10) इसके बाद ईसा ने लोगों को पास बुला कर कहा, "तुम लोग मेरी बात सुनो और समझो।

11) जो मुहँ में आता है, वह मनुष्य को अशुद्ध करता है; बल्कि जो मुँह से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है;

12) बाद में शिष्य आ कर ईसा से बोले, "क्या आप जानते हैं कि फ़रीसी आपकी बात सुन कर बहुत बुरा मान गये हैं?"

13) ईसा ने उत्तर दिया, "जो पौधा मेरे स्वर्गिक पिता ने नहीं रोपा है, वह उखाड़ा जायेगा।

14) उन्हें रहने दो; वे अन्धों के अंधे पथप्रदर्शक हैं। यदि अन्धा अन्धे को ले चले, तो दोनों ही गड्ढे में गिर जायेंगे।"

📚 मनन-चिंतन (मत्ती 15:1-2,10-14)

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु हमें अशुद्ध करने वाली वस्तुओं के बारे में आगाह करते हैं। प्रभु कहते हैं, “ जो मुँह में आता है वह मनुष्य को अशुद्ध नहीं करता बल्कि जो मुहँ से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है।” इसी अध्याय के 18वें पद में प्रभु येसु इसे और स्पष्ट रूप से समझाते हैं। जो हमें अशुद्ध करता है वह हमारे मन में उपजे हुए हमारे पाप हैं। हमें बाहरी शुद्धता से अधिक आंतरिक शुद्धता की चिंता करनी है।

हमारे कार्य हमारे विचारों से जन्म लेते हैं। कोई भी कदम उठाने से पहले हम उसके बारे में सोचते और विचार करते हैं, और यह सोचना-विचारना हमारे अंदर ईश्वर की आवाज़ से प्रेरित होना चाहिए (काथलिक कलिसिया की धर्मशिक्षा CCC 1777) लेकिन अक्सर जब हमारे हृदय में बुराई का निवास होता है तो हमारी वाणी और हमारे कर्म भी बुरे और पापमय होते हैं, जो अंततः हमें एक पापी और बुरा इंसान बना देते हैं। अगर हम अपने मन को ही शुद्ध कर लें तो हम अन्दर से शुद्ध हो जाएँगे। स्वयं को आंतरिक रूप से शुद्ध करने के लिए ईश वचन हमारा मार्गदर्शक है। जब हमारे मन में ईश्वर का निवास होगा तो स्वतः ही हमारे कार्य भी ईश्वरीय और हमारी वाणी पवित्र और मधुर हो जाएगी।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION (Mt 15:1-2,10-14)

In the Gospel today Jesus warns us about what can make us unclean. He says, “What enters into the mouth does not make a person unclean. What defiles a person is what comes out of his mouth.” In the 18th verse of the same chapter Jesus explains it more clearly. What makes us unclean is our sins that come out of our heart, our thinking. We have to be alert about our inner cleanness more than outward cleanliness.

Our actions are born of our thoughts. Before acting we first think about it and this thinking should be guided by the voice of God within us(CCC 1777), but very often when our heart becomes filled with evil thoughts then our words and our actions will also be evil, which over all will make us an evil person. If we can make ourselves clean at the heart level, then we will be clean from within. Word of God is our guide to help us to clean ourselves from within. When God dwells in our heart, automatically our actions will also be godly, our words will be good and pleasant.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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