वर्ष - 2, बाईसवाँ सप्ताह, सोमवार

📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 2:1-5

1) भाइयो! जब मैं ईश्वर का सन्देश सुनाने आप लोगों के यहाँ आया, तो मैंने शब्दाडम्बर अथवा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं किया।

2) मैंने निश्चय किया था कि मैं आप लोगों से ईसा मसीह और क्रूस पर उनके मरण के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात नहीं करूँगा।

3) वास्तव में मैं आप लोगों के बीच रहते समय दुर्बल, संकोची और भीरू था।

4) मेरे प्रवचन तथा मेरे संदेश में विद्वतापूर्ण शब्दों का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का सामर्थ्य था,

5) जिससे आप लोगों का विश्वास मानवीय प्रज्ञा पर नहीं, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर आधारित हो।


सुसमाचार : लूकस 4:16-30

16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए

17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः

18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ

19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।

20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।

21) तब वह उन से कहने लगे, "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है"।

22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, "क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?"

23) ईसा ने उन से कहा, "तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।"

24) फिर ईसा ने कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।

25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।

26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।

27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।"

28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।

29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,

30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहले भाग प्रभु येसु के मुक्ति-प्रद घोषणा पत्र का वर्णन करता है, और दूसरा भाग प्रभु येसु के अपने ही लोगों द्वारा तिरस्कृत किए जाने का विवरण देता है। प्रभु येसु लौटकर नाज़रेथ आते हैं जहाँ उनका लालन-पालन हुआ था, जहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया था। लोगों में कुछ ऐसे होंगे जो बचपन में उसके साथ खेले होंगे, कुछ होंगे जिन्होंने उसे बड़ा होते हुए देखा था। जब प्रभु येसु ने अपना मिशन कार्य प्रारम्भ किया था तो उन्होंने उनके चमत्कारों और शिक्षाओं के बारे में भी सुना होगा। जब उन्होंने प्रभु येसु को अपने बीच पाया तो वे ज़रूर बहुत उत्साहित हुए होंगे और प्रभु येसु भी अपने आप को उनके बीच में पाकर बहुत आनंदित महसूस कर रहे होंगे।

लेकिन तभी जब प्रभु येसु धर्मग्रंथ में से पाठ पढ़ते हैं और बताते हैं, कि धर्मग्रंथ का यह कथन आज पूरा हुआ। उसने उन्हें बताया कि प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, उसने मेरा अभिषेक किया है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ… संक्षेप में कहें तो वही मसीह था जो अभिषिक्त किया गया था, जो उनके बीच में पल-बढ़ा और ईश्वर ने उसे चुना और उसका अभिषेक किया। उन्हें यह बात हज़म नहीं हुई कि एक मामूली बढ़ई का बेटा संसार का मुक्तिदाता है, और उन्होंने एक नबी के रूप में उनको स्वीकार नहीं किया, उनके लिए वह एक मामूली बढ़ई यूसुफ़ के पुत्र से ज़्यादा और कुछ नहीं था। जब वह अपने आप को नबी बताता है तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आता है। क्या जब मैं ईश्वर का कार्य करने के लिए आगे आता हूँ तो मुझे भी अपने ही लोगों के विरोध और क्रोध का सामना करना पड़ता है?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today’s gospel passage can be divided into two parts, the first part describes about the manifesto of Jesus, and the second part is about rejection of Jesus by his own people. Jesus came back to Nazareth where he was brought up, where he spent his childhood. There were many who might have played with him in childhood, who might have seen him growing. When he had started his ministry, they might have surely heard about his miracles and teachings. They were surely excited to see him there and it must have been great joy for him also to be amidst them.

But when Jesus reads the Scripture, he tells that it has been fulfilled in him. He told them, the spirit of the Lord is upon me, he has anointed me to bring good news to the poor… in short, he was the Messiah who was anointed who grew amidst them and the Messiah who was chosen and anointed by the Father. They could not digest that the son of a simple carpenter is the saviour of the world, and they could not accept him to be a prophet or anything more than son of Joseph the carpenter. They get angry when he claims to be the prophet. Do I also face rejection amidst my own people when I choose to do God’s work?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!