वर्ष - 2, बाईसवाँ सप्ताह, बुधवार

📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 3:1-9

1) भाइयो! मैं उस समय आप लोगों से उस तरह बातें नहीं कर सका, जिस तरह आध्यात्मिक व्यक्तियों से की जाती हैं। मुझे आप लोगों से उस तरह बातें करनी पड़ी, जिस तरह प्राकृत मनुष्यों से, मसीह में मेरे निरे बच्चों से, की जाती हैं।

2) मैंने आप को दूध पिलाया। मैंने आप को ठोस भोजन इसलिए नहीं दिया कि आप उसे नहीं पचा सकते थे।

3) आप इस समय भी उसे पचा नहीं सकते, क्योंकि आप अब तक प्राकृत हैं। आप लोगों में ईर्ष्या और झगड़ा होता है। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि आप प्राकृत हैं और निरे मनुष्यों-जैसा आचरण करते हैं?

4) जब कोई कहता है, "मैं पौलुस का हूँ" और कोई कहता है, "मैं अपोल्लोस का हूँ", तो क्या यह निरे मनुष्यों-जैसा आचरण नहीं है?

5) अपोल्लोस क्या है? पौलुस क्या है? हम तो धर्मसेवक मात्र हैं, जिनके माध्यम से आप विश्वासी बने। हम में प्रत्येक ने वही कार्य किया, जिसे प्रभु ने उस को सौंपा।

6) मैंने पौधा रोपा, अपोल्लोस ने उसे सींचा, किन्तु ईश्वर ने उसे बड़ा किया।

7) न तो रोपने वाले का महत्व है और न सींचने वाले का, बल्कि वृद्धि करने वाले अर्थात् ईश्वर का ही महत्व है।

8) रोपने वाला और सींचने वाला एक ही काम करते हैं और प्रत्येक अपने-अपने परिश्रम के अनुरूप अपनी मज़दूरी पायेगा।

9) हम ईश्वर के सहयोगी हैं और आप लोग हैं-ईश्वर की खेती, ईश्वर का भवन।


सुसमाचार : लूकस 4:38-44

38) वे सभागृह से निकल कर सिमोन के घर गये। सिमोन की सास तेज़ बुखार में पड़ी हुई थी और लोगों ने उसके लिए उन से प्रार्थना की।

39) ईसा ने उसके पास जा कर बुख़ार को डाँटा और बुख़ार जाता रहा। वह उसी क्षण उठ कर उन लोगों के सेवा-सत्कार में लग गयी।

40) सूरज डूबने के बाद सब लोग नाना प्रकार की बीमारियों से पीडि़त अपने यहाँ के रोगियों को ईसा के पास ले आये। ईसा एक-एक पर हाथ रख कर उन्हें चंगा करते थे।

41) अपदूत बहुतों में से यह चिल्लाते हुये निकलते थे, "आप ईश्वर के पुत्र हैं"। परन्तु वह उन को डाँटते और बोलने से रोकते थे, क्योंकि अपदूत जानते थे कि वह मसीह हैं।

42) ईसा प्रातःकाल घर से निकल कर किसी एकान्त स्थान में चले गये। लोग उन को खोजते-खोजते उनके पास आये और अनुरोध करते रहे कि वह उन को छोड़ कर नहीं जायें।

43) किन्तु उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे दूसरे नगरों को भी ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाना है-मैं इसीलिए भेजा गया हूँ"

44) और वे यहूदिया के सभागृहों में उपदेश देते रहे।

📚 मनन-चिंतन

आज के वचन में एक विरोधाभास मिलता है : एक तरफ हम देखते हैं कि लोग येसु की खोज में आते हैं और वे उनके रोगियों को चंगा करते हैं, उपदूतों को बहार निकलते हैं। और लोग येसु से अनुरोध करते हैं कि वे उन्हें छोड़कर ना जाएँ। वहीँ दूसरी तरफ अपदूत येसु को देखकर छिड़ जाते हैं। एक तरफ अच्छाई है तो दूसरी तरफ बुराई। एक तरफ चंगाई, शांति, और उम्मीद है तो दूसरी तरफ बंधन, अशांति, और निराशा है।

येसु का बुरी आत्मा से यह पहली बार सामना नहीं हो रहा है। सुसमाचार में हम पढ़ते हैं, कि बुराई के आत्मा जब भी येसु के सामने आते है वे चिल्ला उठते हैं। हम याद करें गेरासीन के उपदूत को (लूकस 8: 26-39) । वह यूँ तो येसु से मिलने बाहर निकलकर आता है, हालांकि वास्तव में वह काफी उग्र और गुस्से में, रहता है, क्योंकि येसु की उपस्थिति उसको को विचलित व परेशान कर रही थी।

इन दो विरोधाभास वाली परिस्थितियों में हम अपने आप को किसमें पाते हैं। उन लोगों में जो येसु को ढूँढ़ते हुवे जाते हैं और उन्हें पाकर उनसे अनुरोध करते हैं कि वे उन्हें छोडकर ना जाएँ या फिर उन उपदूतों में जो येसु के होने से परेशान हो जाते हैं। जिनको येसु के पास आने से छिड़ होती है। हम में से कितने ही लोग आज कल दूसरी वाली प्रवृति के शिकार हैं। कितने लोग विशेषकरके आज की युवा पीढ़ी येसु से दूर रहना पसंद करती है। प्रार्थना, मिस्सा बलिदान, पवित्र बाइबल पढ़ना आदि से उनको छिड़ होती है। वे इन सब बातों से खुद को दूर रखना पसंद करते हैं। हमें और उन सब लोगों को जो इस प्रवृति के शिकार हैं ये स्वीकार करना चाहिए कि इस प्रकार की मानसिकता शैतान की ऒर से आती है। यदि हमें आध्यात्मिकता से अरुचि व नफरत है तो हम भी एक तरह से अपदूतग्रस्त हैं और हमें हमारे चरवाहे येसु को ढूंढते हुवे उनके पास आने की ज़रूरत है ताकि वो हमें छुटकारा दे सके, चंगाई दे सके ।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

There is a dichotomy in today's Gospel: On the one hand we see the people coming in search of Jesus and he healed the sick. And when he wanted to move from that place, the people requested Jesus not to leave them. On the other hand we see the evil spirit shouting and protesting against Jesus’ presence. There is good on one side and evil on the other. On the one side there is healing, peace, and hope, on the other side there is bondage, unrest, and despair.

This is not the first time Jesus is confronted with an evil spirit. In the Gospel, we read that whenever the evil spirits come in front of Jesus, they shout. We see the Demoniac of Gerasene in Luke 8: 26-39, who goes out to meet Jesus. In fact, he is quite angry and angry because of the presence of Jesus for his presence distracts and annoys him. Where do we find ourselves in these two contradictory situations: Among those who go to find Jesus and find him, and request him not to leave them or among those evil spirits who are troubled by Jesus’ presence, those who are dissuaded by approaching Jesus. How many of us fall prey to the second trend today. How many people; especially today's youngsters want to stay away from Jesus. They have a sort aversion towards prayers, Holy Mass, and reading the Holy Bible, etc. They like to keep themselves away from all these things. We must acknowledge that such attitude and of mentality comes from the evil one. If we are disinterested and hate spirituality then we are also spiritually sick and we need to go out looking for our shepherd, Jesus so that he may heal us.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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Praise the Lord!