वर्ष - 2, तेईसवाँ सप्ताह, गुरुवार

📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 8:1ब-7, 11-13

1) अब देवताओं को अर्पित मांस के विषय में। हम सबों को ज्ञान प्राप्त है- यह मानी हुई बात है; किन्तु ज्ञान घमण्डी बनाता है, जब कि प्रेम निर्माण करता है।

2) यदि कोई समझता है कि वह कुछ जानता है, तो वह अब तक यह नहीं जानता कि किस प्रकार जानना चाहिए।

3) किन्तु यदि कोई ईश्वर को प्यार करता है, तो वह ईश्वर द्वारा अपनाया गया है।

4) देवताओं को अर्पित मांस खाने के विषय में हम जानते हैं कि विश्व भर में वास्तव में किसी देवी-देवता का अस्तित्व नहीं है-एक मात्र ईश्वर के अतिरिक्त कोई ईश्वर नहीं है।

5) यद्यपि भले ही आकाश में या पृथ्वी पर तथाकथित देवता हों, और सच पूछिए तो इस प्रकार के बहुत-से देवता और प्रभु हैं;

6) फिर भी हमारे लिए तो एक ही ईश्वर है- वह पिता, जिस से सब कुछ उत्पन्न होता है और जिसके पास हमें जाना है- और एक ही प्रभु है, अर्थात ईसा मसीह, जिनके द्वारा सब कुछ बना है और हम भी उन्हीं के द्वारा।

7) परन्तु यह ज्ञान सबों को प्राप्त नहीं है। कुछ लोग हाल में मूर्तिपूजक थे। वे वह मांस देवता को अर्पित समझ कर खाते हैं और उनका अन्तःकरण दुर्बल होने के कारण दूषित हो जाता है।

11) इस तरह आपके ’ज्ञान’ के कारण उस दुर्बल भाई का विनाश होता है, जिसके लिए मसीह मरे।

12) भाइयो के विरुद्ध इस प्रकार पाप करने और उनके दुर्बल अन्तकरण को आघात पहुँचाने से आप मसीह के विरुद्ध पाप करते हैं।

13) इसलिए यदि मेरा भोजन मेरे भाई के लिए पाप का कारण बनता है, तो मैं फिर कभी मांस नहीं खाऊँगा। कहीं ऐसा न हो कि मैं अपने भाई के लिए पाप का कारण बन जाऊँ।


सुसमाचार : लूकस 6:27-38

27) "मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो।

28) जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।

29) जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो।

30) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।

31) दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो।

32) यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं।

33) यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो, जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी ऐसा करते हैं।

34) यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो, जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं।

35) परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो। तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतघ्नों और दुष्टों पर दया करता है।

36) "अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।

37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।

38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।"

📚 मनन-चिंतन

आज, प्रभु का सुसमाचार हमें हमारे दुश्मनों से प्यार करने के लिए आह्वान कर रहा है और इसके तुरंत बाद, यह इस आज्ञा के तीन सकारात्मक उदाहरण देता है: जो लोग आपसे घृणा करते हैं, उनका भला करें, जो आपको शाप देते हैं उन्हें आशीर्वाद दें, जो आपका अपमान करते हैं उनके लिए प्रार्थना करें। इस आज्ञा का पालन करना मुश्किल सा लगता है: हम उन लोगों से कैसे प्यार कर सकते हैं जो हमसे प्यार नहीं करते? ये तो बहुत ज्यादा ही हो गया; हम उन लोगों से प्यार कैसे कर सकते हैं जिन्हें हम जानते हैं कि वे हमसे नफरत करते हैं? इस तरह से प्यार करना मानवीय बुद्धि व सोच द्वारा संभव नहीं, यह तो ईश्वर की ओर से एक तोहफा है, ईश्वर की कृपा से ही यह संभव है। इस कृपा को पाने के लिए हमें खुद को ईश्वर के सामने खोलने की ज़रूरत है।

इन सब को संभव करने के लिए येसु ने एक संक्षिप्त सारगर्भित स्वर्णिम कहावत पेश की है : सभी धर्मों में एक स्वर्णिम कहावत है: दूसरों के साथ वह मत करो जो तुम नहीं चाहोगे कि दूसरे तुम्हारे लिए करें। हालाँकि, येसु ने इसे उन सबसे हटकर प्रस्तुत किया है, उन्होंने इसे सकारात्मक रूप दिया : "दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यव्हार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो" (लूकस 6:31)। यह सुनहरा नियम सभी नैतिकताओं का आधार है। एक छोटी सी कविता पर टिप्पणी करते हुए, सेंट जॉन ख्रिसोस्तम कहते है: " येसु ने केवल यह नहीं कहा:‘ दूसरों के बारे में भला सोचना, बल्कि दूसरों का भला करना’; यही कारण है कि, येसु द्वारा प्रस्तावित स्वर्णीम नियम के अनुसार हमें केवल अच्छे की इच्छा अथवा सोच तक सीमित नहीं रहना चाहिए वरन हमें इसका अनुवाद अपने कर्मों में करना चाहिए।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

Today, the gospel of the Lord is asking us to love our enemies. And, shortly thereafter, it gives three positive examples of this commandment: bless those who hate you, bless those who curse you, pray for those who insult you. It seems difficult to obey this command: How can we love those who do not love us? This is too much; how can we love those, we know who hate us? Loving in this way is not possible through human intelligence and thinking, it is a gift from God; it is possible only by the grace of God. To receive this grace, we need to open ourselves to God. To make all of this possible, Jesus has introduced a short golden rule.

Most religions have a golden maxim: “Do not do unto others what you would not want others to do unto you”. Jesus, however, is the only one to formulate it positively: “Do to others as you would have others do to you”(Lk 6:31). This golden rule is the basis for all morals. Commenting on this little verse, St. John Chrysostom says: “There is even more, for Jesus did not only say: ‘wish good to others’, but ‘do good to others”; this is why, the golden maxim proposed by Jesus cannot just remain as wishful thinking, but it must be translated into deeds.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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