वर्ष - 2, चौबीसवाँ सप्ताह, बुधवार

📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 12:31-13:13

12:31) आप लोग उच्चतर वरदानों की अभिलाषा किया करें। मैं अब आप लोगों को सर्वोत्तम मार्ग दिखाता चाहता हूँ।

13:1) मैं भले ही मनुष्यों तथा स्वर्गदूतों की सब भाषाएँ बोलूं; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो मैं खनखनाता घडि़याल या झनझनाती झाँझ मात्र हूँ।

2) मुझे भले ही भविष्यवाणी का वरदान मिला हो, मैं सभी रहस्य जानता होऊँ, मुझे समस्त ज्ञान प्राप्त हो गया हो, मेरा विश्वास इतना परिपूर्ण हो कि मैं पहाड़ों को हटा सकूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव हैं, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।

3) मैं भले ही अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दूँ और अपना शरीर भस्म होने के लिए अर्पित करूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव है, तो इस से मुझे कुछ भी लाभ नहीं।

4) प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है।

5) प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है।

6) वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है।

7) वह सब-कुछ ढाँक देता है, सब-कुछ पर विश्वास करता है, सब-कुछ की आशा करता है और सब-कुछ सह लेता है।

8) भविष्यवाणियाँ जाती रहेंगी, भाषाएँ मौन हो जायेंगी और ज्ञान मिट जायेगा, किन्तु प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा;

9) क्योंकि हमारा ज्ञान तथा हमारी भविष्यवाणियाँ अपूर्ण हैं

10) और जब पूर्णता आ जायेगी, तो जो अपूर्ण है, वह जाता रहेगा।

11) मैं जब बच्चा था, तो बच्चों की तरह बोलता, सोचता और समझता था; किन्तु सयाना हो जाने पर मैंने बचकानी बातें छोड़ दीं।

12) अभी तो हमें आईने में धुँधला-सा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान अपूर्ण है; परन्तु तब मैं उसी तरह पूर्ण रूप से जान जाऊँगा, जिस तरह ईश्वर मुझे जान गया है।

13) अभी तो विश्वास, भरोसा और प्रेम-ये तीनों बने हुए हैं। किन्तु उनमें प्रेम ही सब से महान् हैं।


सुसमाचार :लूकस 7:31-35

31) मैं इस पीढ़ी के लोगों की तुलना किस से करूँ? वे किसके सदृश हैं?

32) वे बाज़ार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो एक दूसरे को पुकार कर कहते हैं: हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुम नहीं रोये;

33) क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न रोटी खाता और न अंगूरी पीता है और तुम कहते हो-उसे अपदूत लगा है।

34) मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और तुम कहते हो-देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है।

35) किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा उसकी प्रजा द्वारा सही प्रमाणित हुई है।"

📚 मनन-चिंतन

सुसमाचारों से हमें पता चलता है कि येसु का बच्चों के साथ एक अद्भुत रिश्ता था। जब उनके अपने शिष्य उन्हें उनसे दूर रखने की कोशिश कर रहे थे, तो उन्होंने यह कहते हुए उनका स्वागत किया बच्चों को मेरे पास आने दो। उन्होंने उनके खुलेपन के कारण उन्हें शिष्यों के लिए भी एक शिक्षक के रूप में इंगित किया। याने बच्चों से सिखने को कहा। उन्होंने पूरी तरह से यह घोषणा करते हुए, उनके साथ खुद की पहचान की, कि जो लोग ऐसे बच्चों का स्वागत करते हैं वे उनका स्वागत करते हैं।

आज के सुसमाचार को पढ़ने से पता चलता है कि येसु बाजार में बच्चों के खेलने के प्रति बहुत चौकस थे । कुछ बच्चों के दूसरे बच्चों के खेल में शामिल होने से इनकार करने की घटना उन्हें अपने समय के उन लोगों की याद दिलाती है जिन्होंने योहन बपतिस्ता और स्वयं येसु की बातों और सेवकाई को गंभीरता से नहीं लिया। बच्चों के अंतिम संस्कार के खेलों ने उन्हें योहन की सेवकाई की याद दिला दी, वहीँ उनके नृत्य वाले खेलों ने उन्हें अपनी खुद की सेवकाई की याद दिला दी।

येसु को एक बांसुरी वादक के रूप में सोचना काफी दिलचस्प है जो हमारे लिए नृत्य करने के लिए एक धुन बजाते है। यीशु ईश्वर का संगीत है। उनके संगीत पर नाचने का अर्थ है ईश्वर के दिव्य संगीत याने उनकी मधुर वाणी को अपने दिल और आत्मा में उतारना और और उनके नख्शे कदम पर चलना। आज का सुसमाचार हम सब का आह्वान करता है कि हम ईश्वर के संगीत याने उनकी वाणी को हमारे जीवन में उतरने की अनुमति दें, जिसे येसु हमारे जीवन को संचालित करने और हर एक आत्मा को छूने के लिए हमें प्रदान करते हैं।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The Gospels reveal that Jesus had a wonderful relationship with children. When his own disciples were trying to keep them away from him, he welcomed them saying let the children come to me. He also pointed them as the teachers for the disciples because of their openness and asked the disciples to learn from them. He identified himself with them, fully declaring that those who welcome such children welcome Him.

Today's gospel shows that Jesus was very attentive to the children's play in the market. The incident of some children refusing to participate in other children's games reminds him of those who did not take the words and ministry of John the Baptist and Jesus himself seriously. Children's funeral games reminded him of John’s ministry, while their dance games reminded him of his own ministry.

It is quite interesting to think of Jesus as a flute player who plays a tune for us to dance. Jesus is the music of God. To dance to his music means to bring the divine music of God, his sweet Word in our heart and soul, and to follow his footsteps. Today's gospel calls upon all of us to allow God's music and his Word, to enter our lives, to direct our lives and lead us to Him.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!