वर्ष - 2, चौबीसवाँ सप्ताह, गुरुवार

📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 15:1-11

1) भाइयो! मैं आप लोगेां को उस सुसमाचार का स्मरण दिलाना चाहता हूँ, जिसका प्रचार मैंने आपके बीच किया, जिसे आपने ग्रहण किया, जिस में आप दृढ बने हुये हैं,

2) और यदि आप उसे उसी रूप में बनाये रखेंगे, जिस रूप में मैंने उसे आप को सुनाया, तो उसके द्वारा आप को मुक्ति मिलेगी। नहीं तो आपका विश्वाश व्यर्थ होगा।

3) मैंने आप लोगों को मुख्य रूप से वही शिक्षा सुनायी, जो मुझे मिली थी और वह इस प्रकार है- मसीह हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए मरे, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है।

4) वह कब्र में रखे गये और तीसरे दिन जी उठे, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है।

5) वह कैफ़स को और बाद में बारहों में दिखाई दिये।

6) फिर वही एक ही समय पाँच सौ से अधिक भाइयों को दिखाई दिये। उन में से अधिकांश आज भी जीवित हैं, यद्यपि कुछ मर गये हैं।

7) बाद में वह याकूब को और फिर सब प्रेरितों को दिखाई दिये।

8) सब के बाद वह मुझे भी, मानों ठीक समय से पीछे जन्में को दिखाई दिये।

9) मैं प्रेरितों में सब से छोटा हूँ। सच पूछिए, तो मैं प्रेरित कहलाने योग्य भी नहीं; क्योंकि मैंने ईश्वर की कलीसिया पर अत्याचार किया है।

10) मैं जो कुछ भी हूँ, ईश्वर की कृपा से हूँ और मुझे उस से जो कृपा मिली, वह व्यर्थ नहीं हुई। मैंने उन सब से अधिक परिश्रम किया है- मैंने नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा ने, जो मुझ में विद्यमान है।

11) ख़ैर, चाहे मैं होऊँ, चाहे वे हों - हम वही शिक्षा देते हैं और उसी पर आप लोगों ने विश्वास किया।


सुसमाचार :लूकस 7:36-50

36) किसी फ़रीसी ने ईसा को अपने यहाँ भोजन करने का निमन्त्रण दिया। वे उस फ़रीसी के घर आ कर भोजन करने बैठे।

37) नगर की एक पापिनी स्त्री को यह पता चला कि ईसा फ़रीसी के यहाँ भोजन कर रहे हैं। वह संगमरमर के पात्र में इत्र ले कर आयी

38) और रोती हुई ईसा के चरणों के पास खड़ी हो गयी। उसके आँसू उनके चरण भिगोने लगे, इसलिए उसने उन्हें अपने केशों से पोंछ लिया और उनके चरणो को चूम-चूम कर उन पर इत्र लगाया।

39) जिस फ़रीसी ने ईसा को निमन्त्रण दिया था, उसने यह देख कर मन-ही-मन कहा, "यदि वह आदमी नबी होता, तो जरूर जाना जाता कि जो स्त्री इसे छू रही है, वह कौन और कैसी है-वह तो पापिनी है"।

40) इस पर ईसा ने उस से कहा, "सिमोन, मुझे तुम से कुछ कहना है"। उसने उत्तर दिया, "गुरूवर! कहिए"।

41) "किसी महाजन के दो कर्जदार थे। एक पाँच सौ दीनार का ऋणी था और दूसरा, पचास का।

42) उनके पास कर्ज अदा करने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए महाजन ने दोनों को माफ़ कर दिया। उन दोनों में से कौन उसे अधिक प्यार करेगा?"

43) सिमोन ने उत्तर दिया, "मेरी समझ में तो वही, जिसका अधिक ऋण माफ हुआ"। ईसा ने उस से कहा, "तुम्हारा निर्णय सही है।"।

44) तब उन्होंने उस स्त्री की ओर मुड़ कर सिमोन से कहा, "इस स्त्री को देखते हो? मैं तुम्हारे घर आया, तुमने मुझे पैर धोने के लिए पानी नहीं दिया; पर इसने मेरे पैर अपने आँसुओं से धोये और अपने केशों से पोंछे।

45) तुमने मेरा चुम्बन नहीं किया, परन्तु यह जब से भीतर आयी है, मेरे पैर चूमती रही है।

46) तुमने मेरे सिर में तेल नहीं लगाया, पर इसने मेरे पैरों पर इत्र लगाया है।

47) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, इसके बहुत-से पाप क्षमा हो गये हैं, क्योंकि इसने बहुत प्यार दिखाया है। पर जिसे कम क्षमा किया गया, वह कम प्यार दिखाता है।"

48) तब ईसा ने उस स्त्री से कहा, "तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं"।

49) साथ भोजन करने वाले मन-ही-मन कहने लगे, "यह कौन है जो पापों को भी क्षमा करता है?"

50) पर ईसा ने उस स्त्री से कहा, "तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है। शान्ति प्राप्त कर जाओ।"

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में तीन किरदार हैं,सिमोन जिन्होंने भोजन की मेजबानी की, येसु उनके मेहमान, और एक महिला जिसे किसी ने भी उम्मीद नहीं की थी कि वो वहाँ आये। हम जैसे-जैसे कहानी में आगे बढ़ते हैं, हमें पता चलता है कि मेजबान सिमोन, येसु के प्रति अपना प्रेम दिखाने में असफल या असमर्थ रहता है। जबकि बिन बुलाई मेहमान उस नारी ने येसु को बहुत प्रेम दिखाया। उसने येसु के पैरों को अश्कों से धो कर इत्र से उनका विलापन किया, जिसे सिमोन ने पापी माना। उसने येसु को ऐसा प्यार दिखाया जो कि मेजबान उसे दिखाने में नाकामियाब रहा।

दो देनदारों के दृष्टान्त के माध्यम से येसु, बताते हैं कि उस स्त्री ने येसु को सिमोन की तुलना में अधिक प्रेम क्यों दिखाया। उसने अधिक प्यार दिखाया क्योंकि उसे अधिक क्षमा किया गया था। इस भोजन से पहले उसने येसु से क्षमा का अनुभव किया था और उस पर उसका परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा था। दिव्य प्रेम के इस उपहार के उनके अनुभव ने उन्हें एक प्यार करने वाली नारी बना दिया। इसके विपरीत, सिमोन ने येसु से ईश्वर के क्षमा व प्रेम का अनुभव नहीं किया था, शायद इसलिए कि उसने इसे ज़रूरी ही नहीं समझा।

यह दृष्टांत हमें बतलाता है कि हम सभी को ईश्वर की क्षमा की समान रूप से आवश्यकता है। हम अपने गुनाहों के बोझ को येसु के पास लेकर आएं और उनसे क्षमा की याचना करें। वो हमें माफ़ करेगा और हम पर अपना प्रेम प्रदर्शित करेगा; और उनका यह प्रेम हमारे दिल में इस कदर प्रवाहित होता रहेगा की हम उन्हें और दूसरों को भी प्रेम करने के लिए सदा तत्पर बने रहेंगे।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

There are three characters in today's Gospel, Simon who hosted the meal, Jesus as his guest, and a woman whom no one expected to be there. As we move forward in the story, we learn that the host Simon did not show his love to Jesus, while uninvited guest, the woman whom Simon considered a sinner, showed greater love to Jesus. She washed Jesus’ feet with her tears and wiped with her hair and applied precious perfume. She showed Jesus the love that the host failed to show him.

Through the parable of the two debtors, Jesus explains why the woman showed more love to Jesus than Simon. She showed more love because she was forgiven more. Before this meal she had experienced forgiveness from Jesus and had a transformative effect on her. Her experience of this gift of divine love made her a loving woman. On the contrary, Simon did not experience God's forgiveness and love of Jesus, perhaps because he did not think it necessary.

This illustration tells us that we all need God's forgiveness equally. We should bring the burden of our sins to Jesus and ask for forgiveness from him. He will forgive us and show us his love; and his love will continue to flow in our hearts so much that we will always be ready to love him and others as well.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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Praise the Lord!