वर्ष - 2, पच्चीसहाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ : सुक्ति 21:1-6, 10-13

1) राजा का हृदय प्रभु के हाथ में जल धारा की तरह है: वह जिधर चाहता, उसे मोड़ देता है।

2) मनुष्य जो कुछ करता है, उसे ठीक समझता है; किन्तु प्रभु हृदय की थाह लेता है।

3) बलिदान की अपेक्षा सदाचरण और न्याय प्रभु की दृष्टि में कहीं अधिक महत्व रखते हैं।

4) तिरस्कारपूर्ण आँखें और धमण्ड से भरा हुआ हृदय: ये पापी मनुष्य के लक्षण हैं।

5) जो परिश्रम करता है, उसकी योजनाएँ सफल हो जाती हैं। जो उतावली करता है, वह दरिद्र हो जाता है।

6) झूठ से कमाया हुआ धन असार है और वह मृत्यु के पाष में बाँध देता है।

10) दुष्ट बुराई की बातें सोचता रहता है, वह अपने पड़ोसी पर भी दया नहीं करता।

11) अविश्वासी को दण्डित देख कर, अज्ञानी सावधान हो जाता है। जब बुद्धिमान् को शिक्षा दी जाती है, तो उसका ज्ञान बढ़ता है।

12) न्यायप्रिय दुष्ट के घर पर दृष्टि रखता और कुकर्मियों का विनाश करता है।

13) जो दरिद्र का निवेदन ठुकराता है, उसकी दुहाई पर कोई कान नहीं देगा।


सुसमाचार :लूकस 8:19-21

19) ईसा की माता और भाई उन से मिलने आये, किन्तु भीड़ के कारण उनके पास नहीं पहुँच सके।

20) लोगों ने उन से कहा, "आपकी माता और आपके भाई बाहर हैं। वे आप से मिलना चाहते हैं।"

21) उन्होंने उत्तर दिया, "मेरी माता और मेरे भाई वहीं हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं"।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार को, ऊपरी तौर पर पढ़ने से, हमें जो समझ में आता है, वह यह है कि येसु अपने मूल परिवार से खुद को दूर कर रहे हैं। उनकी माँ और भाई घर के बाहर थे और वे उनसे मिलना चाहते थे। हालाँकि, जब उन्होंने येसु को बुला भेजा तो वे उनके पास नहीं आते, इसके बजाय, वे अपने परिवार को फिर से परिभाषित करते हैं। उनका नया परिवार व परिवार सदस्य अब वे लोग हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते, और उसे बनाए रखते हैं।

इस घटना के पहले येसु ने बोने वाले के दृष्टांत सुनाया था, जिसमें अच्छी मिट्टी पर गिरे हुए बीज की पहचान उन लोगों के रूप में की गई थी, जो ईश्वर का वचन को सुनते, और उसे अपने दिल में उतारते तथा फल उत्पन्न करते हैं । ये ऐसे लोग हैं जो अब येसु के सच्चे परिवार का गठन करते हैं। उनकी माँ और उनके रक्त सम्बन्धी व अन्य सदस्य तभी इस नए परिवार का हिस्सा बन सकते हैं जब वे भी ईश्वर के वचन को सुनें और उस पर चलें ।

जहाँ तक हम ईश्वर के वचन को स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं, हम भी येसु के नए विस्तृत, परिवार के सदस्य बन सकते हैं। हमारे बपतिस्मा की बुलाहट यही है कि हम ईश्वर के वचनों को सुनें और इसे व्यवहार में लाएं । हमें अपने जीवन को वह अच्छी भूमि बनाना है जहाँ पर बीज गिरकर फल लाता है। यदि हम ईश्वर के वचन को सुनने के लिए प्रयास करते रहते हैं और उनपर चलते हुए ईश्वर की मर्ज़ी को पूरा करते है तो प्रभु येसु हमें अपने परिवार सदस्य कहने में प्रसन्न होंगे।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

Reading from the periphery, what we understand from the gospel today is that Jesus is distancing himself from his original family. His mother and brothers were outside the house and they wanted to meet him. However, He does not go out to meet them, when they called for him. Instead, He redefines his family and family relations. His new family and family members are now those who listen to, and keep the word of God. Before this event, Jesus narrated the parable of sower, identifying the seed fallen on good soil as those who would listen to the word of God, and keep it in their hearts and produce fruit. These are the people who now constitute the true family of Jesus. His mother and His blood relations and other members can become part of this new family only when they too listen to the word of God and follow it.

When we accept and obey the Word of God, we can also become members of the new extended family of Jesus. The call of our baptism is that we listen to the Words of God and put it into practice. We have to make our life the good and fertile land where the seed falls and brings fruit. If we listen to God's word and do the will of God, then our Lord Jesus will be happy to call us His family members. Amen.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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Praise the Lord!