वर्ष - 2, छब्बीसवाँ सप्ताह, सोमवार

📒 पहला पाठ : योब का ग्रन्थ 1:6-22

6) एक दिन ऐसा हुआ कि स्वर्गदूत प्रभु के सामने उपस्थित हुए और शैतान भी उन में सम्मिलित हो गया।

7) प्रभु ने शैतान से कहा, "तुम कहाँ से आये हो?" शैतान ने प्रभु को उत्तर दिया, "मैंने पृथ्वी का पूरा चक्कर लगाया"।

8) इस पर प्रभु ने कहा, "क्या तुमने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया है? पृथ्वी भर में उसके समान कोई नहीं; वह निर्दोष और निष्कपट है, वह ईश्वर पर श्रद्धा रखता और बुराई से दूर रहता है।"

9) शैतान ने प्रभु से कहा, "क्या अय्यूब यों ही ईश्वर पर श्रद्धा रखता है?

10) क्या आपने उसके, उसके परिवार और उसकी पूरी जायदाद के चारों ओर मानो घेरा लगा कर उसे सुरक्षित नहीं रखा? आपने उसके सब कार्यों को आशीर्वाद दिया उसके झुण्ड देश भर मैं फैले हुए हैं।

11) आप हाथ बढ़ा कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लें, तो वह निश्चिय ही आपके मुँह पर आपकी निंदा करेगा।"

12) प्रभु ने शैतान से कहा, "अच्छा! उसका सब कुछ तुम्हारे हाथ में है, किंतु अय्यूब पर हाथ मत लगाना"। इसके बाद शैतान प्रभु के सामने से चला गया।

13) अय्यूब के पुत्र-पुत्रियाँ किसी दिन अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे

14) कि एक सन्देशवाहक ने आ कर अय्यूब से कहा, "बैल हल में जुते हुए थे और गधियोँ उनके आस-पास चर रही थीं।

15) उस समय शबाई उन पर टूट पड़े और आपके सेवकों को तलवार के घाट उतार कर सब पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ।"

16) वह बोल ही रहा था कि कोई दूसरा आ कर कहने लगा, "ईश्वर की आग आकाश से गिर गयी। उसने भेड़ों और चहवाहों को जला कर भस्म कर दिया। केवल मैं बच गया और आप को समाचार सुनाने आया हूँ"

17) वह बोल ही रहा था कि एक और अंदर से आया और कहने लगा, "खल्दैयी तीन दल बना कर ऊँटों पर टूट पड़े और आपके नौकरों को तलवार के घाट उतार कर पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ"

18) वह बोल ही रहा था कि एक और आ कर कहने लगा, "आपके पुत्र-पुत्रियाँ, अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे

19) कि एक भीषण आँधी मरूभूमि की ओर से आयी और घर के चारों कोनो से इतने ज़ोर से टकरायी कि घर आपके पुत्र-पुत्रियों पर गिर गया और वह मर गये। केवल मैं बचा गया हूँ और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ"

20) अय्यूब ने उठ कर अपने वस्त्र फाड़ डाले। उनसे सिर मुडाया और मुँह के बल भूमि पर गिर कर

21) यह कहा, "मैं नंगा ही माता के गर्भ से निकला और नंगा ही पृथ्वी के गर्भ में लौट जाऊँगा! प्रभु ने दिया था, प्रभु ने ले लिया। धन्य है प्रभु का नाम!"

22) इन सब विपत्तियों के होते हुए भी अय्यूब ने कोई पाप नहीं किया और उसने ईश्वर की निंदा नहीं की।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 9:46-50

46) शिष्यों में यह विवाद छिड़ गया कि हम में सब से बड़ा कौन है।

47) ईसा ने उनके विचार जान कर एक बालक को बुलाया और उसे अपने पास खड़ा कर

48) उन से कहा, "जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है; क्योंकि तुम सब में जो छोटा है, वही बड़ा है।"

49) योहन ने कहा, “गुरूवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा है और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारी तरह आपका अनुसरण नहीं करता“।

50) ईसा ने कहा, “उसे मत रोको। जो तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।“

📚 मनन-चिंतन

दूसरों के साथ खुद की तुलना करने का प्रलोभन हम में से बहुतों में होता है। हम अपने आप से आसानी से सवाल पूछ सकते हैं, कि मैं अमुक की तुलना में कितना अच्छा हूं? कितना बेहतर हूँ? या किसकी ज़यादा अहमियत है इत्यादि।

आज के सुसमाचार में हम शिष्यों के बीच उस प्रतिस्पर्धात्मकता को देखते हैं। उनमें एक वाद विवाद खड़ा हो जाता है कि उनमें कौन सबसे बड़ा है। उन में से प्रत्येक अपने समुदाय का सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए संघर्ष करते दिखाई देते हैं। इस बात को लेकर येसु ने कभी अपने जीवन में संघर्ष नहीं किया। उनके विवाद को नजरअंदाज करते हुए, येसु अपनी बात एक जीवंत उदाहरण के द्वारा देने हेतु उनके बीच में एक छोटे बच्चे खड़ा कर देते है और घोषणा करता है कि जो कोई भी उसके नाम पर इस तरह के बच्चे का स्वागत करता है वह उसका स्वागत करता है।

वे जिस महानता के बारे में सोचते हैं, उसके लिए प्रतिस्पर्धा करने के बजाय, शिष्यों को जो छोटे विनम्र और सबसे कमजोर हैं उनका स्वागत करना है। परमेश्वर के राज्य में, सच्ची महानता हेतु उन लोगों का स्वागत करना और उनकी सेवा करना शामिल है, जो बिना किसी पद के या सामाजिक प्रतिष्ठा की लालसा के बच्चों जैसा जीवन जीते हैं। प्रभु की राहों पर चलने के किये किसी से प्रतिस्पर्धा करने की नहीं पर विनम्र बनकर सेवा करने की ज़रूरत है।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The temptation to compare ourselves with others is always there in us. We can easily ask ourselves the question, how good am in comparison to others? Or how much valuable or important am I before others etc. In today's gospel we see such competitiveness among the disciples. A debate arises in them as to who is the greatest among them. Each of them appears to be struggling to become the best of their community. Jesus never struggled with this in his life.

Jesus places a small child in their midst to give them a live example and declares that whoever welcomes such a child in His name would welcome him. Instead of competing for the greatness, the disciples are to welcome the little humble and the weakest. In the kingdom of God, true greatness includes welcoming and serving those who live a childlike life without longing for a social prestige or place of honour. There is a need to serve humble ones, and not to compete with anyone.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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