वर्ष - 2, छब्बीसवाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ : योब का ग्रन्थ 3:1-3,11-17,20-23

1) अय्यूब ने अपने जन्मदिवस को कोसते हुए

2) कहाः

3) विनाश हो उस रात का, जो कहती थी, "एक बालक का गर्भाधान हुआ है"।

11) मैं गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया? मैं जन्म लेते ही क्यों नष्ट नहीं हुआ ?

12) मुझे सँभालने के लिए घुटने क्यों थे? मुझे दूध पिलाने के लिए दो स्तन क्यों थे?

13) नहीं तो मैं अभी शांतिपूर्ण समाधि में पडा़ रहता और निश्चित हो कर चिरनिद्रा में लीन होता,

14) उन राजाओं और देश के शासकों के साथ, जिन्होंने अपने लिए मकबरे बनवाये;

15) उन राजकुमारों के साथ, जिनके पास बहुत सोना था और जिन्होंने अपने भवन चाँदी से भर लिये।

16) समय से पहले गिरे हुए गर्भ की तरह मुझे क्यों नहीं दफनाया गया? उन बच्चों की तरह, जो दिन में प्रकाश कभी नहीं देखते?

17) वहाँ दुष्ट लोग किसी को तंग नहीं करते; वहाँ थके-मांदे विश्राम पाते हैं।

20) दुःखियों को दिन का प्रकाश और अभागे लोगों को जीवन क्यों दिया जाता है?

21) वे मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं, किंतु वह आती नहीं; वे उसे छिपे हुए खजाने से कहीं अधिक खोजते हैं।

22) वे कब्र में पहुँचने पर उल्लसित हो कर आनंद मनाते हैं।

23) उस मनुष्य को जीवन क्यों दिया जाता है, जो अपना मार्ग नहीं देखता और जिसे ईश्वर चारों ओर से बाधित करता है?

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 9:51-56

51) अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरूसालेम जाने का निश्चय किया

52) और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया।

53) लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरूसालेम जा रहे थे।

54) उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, "प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे"।

55) पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा

56) और वे दूसरी बस्ती चले गये।


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