वर्ष - 2, छब्बीसवाँ सप्ताह, शनिवार

📒 पहला पाठ : योब 42:1-3,5-6,12-17

1) अय्यूब ने प्रभु को यह उत्तर दिया:

2) मैं जानता हूँ कि तू सर्वशक्तिमान् है और अपनी सब योजनाएँ पूरी कर सकता है।

3) मैंने ऐसी बातों की चर्चा चलायी, जिन्हें मैं नहीं समझता। मैं ऐसे चमत्कारों के विषय में बोला, जो मेरी बुद्धि से परे हैं।

5) मैंने दूसरों से तेरी चर्चा सुनी थी अब मैंने तुझे अपनी आँखों से देखा है।

6) इसलिए मैं धूल और राख में बैठ कर रोते हुए पश्चात्ताप कर रहा हूँ।

12) प्रभु ने अय्यूब के पहले दिनों की अपेक्षा उसके पिछले दिनों को अधिक आशीर्वाद दिया। उसके पास चैदह हज़ार जोड़ियाँ और एक हज़ार गधियाँ थीं।

13) उसके सात पुत्र उत्पन्न हुए और तीन पुत्रियाँ।

14) उसने पहली का नाम ’यमीमा’ रखा दूसरी का ’कसीआ’ और तीसरी का ’केरेनहप्पूक’।

15) देश भर में ऐसी स्त्रियाँ नहीं मिली, जो अय्यूब की पुत्रियों के समान सुन्दर हों। अय्यूब ने उन्हें उनके भाइयों के साथ विरासत का भाग दिया।

16) इसके बाद अय्यूब एक सौ चालीस वर्ष तक जीवित रहा, अपने पुत्र-पौत्रों की चार पीढ़िया देखीं

17) और बहुत बड़ी उमर में संसार से विदा हुआ।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 10:17-24

17) बहत्तर शिष्य सानन्द लौटे और बोले, "प्रभु! आपके नाम के कारण अपदूत भी हमारे अधीन होते हैं"।

18) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "मैंने शैतान को बिजली की तरह स्वर्ग से गिरते देखा।

19) मैंने तुम्हें साँपों, बिच्छुओं और बैरी की सारी शक्ति को कुचलने का सामर्थ्य दिया है। कुछ भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकेगा।

20) लेकिन, इसलिए आनन्दित न हो कि अपदूत तुम्हारे अधीन हैं, बल्कि इसलिए आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं।"

21) उसी घड़ी ईसा ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर आनन्द के आवेश में कहा, "पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता, यही तुझे अच्छा लगा

22) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर यह कोई भी नहीं जानता कि पुत्र कौन है और पुत्र को छोड़ कर यह कोई नहीं जानता कि पिता कौन है। केवल वही जानता है, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करता है।"

23) तब उन्होंने अपने शिष्यों की ओर मुड़ कर एकान्त में उन से कहा, "धन्य हैं वे आँखें, जो वह देखती हैं जिसे तुम देख रहे हो!

24) क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ - तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और राजा देखना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और जो बातें तुम सुन रहे हो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।"

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर हमसे प्यार करता है! यह अय्यूब का अनुभव है जिसके बारे में हम आज का पहला पाठ में सुनते हैं। अय्यूब को अपने जीवन की सभी आपदाओं और संघर्षों के अंत में ईश्वर के व्यक्तिगत और गहरा अनुभव होता है। वह कहता है, “मैं ने दूसरों से तेरी चर्चा सुनी थी। अब मैं ने तुझे अपनी आँखों से देखा है” (अय्यूब ४२: ५)। अपने सभी संघर्षों में अय्यूब ने अपने मन को ईश्वर पर स्थिर रखा और ईश्वर ने उसे सौ गुणा पुरस्कृत किया। यह हमें रोमियों 8:28 की याद दिलाती है कि जो लोग प्रभु को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता हैं।

आज के सुसमाचार में हम बहत्तर शिष्यों को उनके मिशन के बाद आनन्दित होते हुए लौटते देखते हैं। वे येसु के नाम में किए हुए प्रभावशाली कार्यों के लिए खुश थे। तथापि येसु उन्हें चेतावनी देता हैं, "इसलिए आनंदित न हो कि अपदूत तुम्हारे अधीन हैं, बल्कि इसलिए आनंदित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं"। यह प्रभु पर हमारा ध्यान केंद्रित करने और उसके साथ रहने की इच्छा पर ध्यान देने का आह्वान है। प्रभु पर ध्यान देने के बजाय अपने काम और अपनी सफलता पर ध्यान केंद्रित करने का प्रलोभन हमेशा होता है। प्रभु हमें अपना बल देता है और ईश्वरीय कार्य के लिए हमें नियुक्त करता है। सोचिये, हम कितने सौभाग्यशाली हैं!

आइए हम अपने आप से पूछें कि हम ईश्वर के मिशन का जवाब कैसे देते हैं। क्या आपको ईश्वर और उसके प्रेम का व्यक्तिगत अनुभव है? ईश्वर को व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने का प्रयास करें ताकि आप उस अनुभव और प्रेम को दूसरों को बाँट सकें।

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

God loves us. This is the experience of Job, as we hear in the first reading, who at the end of all the disasters and struggles of his life comes to a deep personal experience of God. He says, “I knew you then only from hearsay; but now I have seen you with my own eyes” (Job 42:5). In all his struggles Job kept his mind fixed on God and God rewarded him a hundredfold. We are reminded of Rom 8:28: "We know that in everyt6God works for good with those who love him, who are called according to his purpose."

In today’s gospel we see the seventy-two disciples coming back rejoicing after their mission. They were happy because of the mighty deeds that they were able to perform in the name of Jesus. However, Jesus cautions them, the true source of joy should be because their names are written in heaven. This is a call to focus our attention on the Lord and the desire to be with him. There is always the possible temptation to focus our attention on our work and our success rather than on the Lord. The Lord gives us his power and commissions us for his work. How privileged we are!

Let us ask ourselves how we respond to God’s mission entrusted to us. Do you have a personal experience of God and his love? Seek to experience him personally so that you can communicate that experience and love to others.

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!