वर्ष - 2, उन्तीसवाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ : एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 2:12-22

12) आप याद रखें कि पहले आप मसीह से अलग थे, इस्राएल के समुदाय के बाहर थे, विधान की प्रतिज्ञाओं से अपरिचित और इस संसार में आशा और ईश्वर से रहित थे।

13) आप लोग पहले दूर थे, किन्तु ईसा मसीह से संयुक्त हो कर आप अब मसीह के रक्त द्वारा निकट आ गये है;

14) क्योंकि वही हमारी शान्ति हैं। उन्होंने यहूदियों और गैर-यहूदियों को एक कर दिया है। दोनों में शत्रुता की जो दीवार थी, उसे उन्होंने गिरा दिया है।

15) और अपनी मृत्यु द्वारा विधि-निषेधों की संहिता को रद्द कर दिया। इस प्रकार उन्होंने यहूदियों तथा गैर-यहूदियों को अपने से मिला कर एक नयी मानवता की सृष्टि की और शान्ति की स्थापित की है।

16) उन्होंने क्रूस द्वारा दोनों का एक ही शरीर में ईश्वर के साथ मेल कराया और इस प्रकार शत्रुता को नष्ट कर दिया।

17) तब उन्होंने आ कर दोनों को शान्ति का सन्देश सुनाया - आप लोगों को, जो दूर थे और उन लोगों को, जो निकट थे;

18) क्योंकि उनके द्वारा हम दोनों एक ही आत्मा से प्रेरित हो कर पिता के पास पहुँच सकते हैं।

19) आप लोग अब परेदशी या प्रवासी नहीं रहे, बल्कि सन्तों के सहनागरिक तथा ईश्वर के घराने के सदस्य बन गये हैं।

20) आप लोगों का निर्माण भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खड़ा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं ईसा मसीह हैं।

21) उन्हीं के द्वारा समस्त भवन संघटित हो कर प्रभु के लिए पवित्र मन्दिर का रूप धारण कर रहा है।

22) उन्हीं के द्वारा आप लोग भी इस भवन में जोड़े जाते हैं, जिससे आप ईश्वर के लिए एक आध्यात्मिक निवास बनें।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 12:35-38

35) ’’तुम्हारी कमर कसी रहे और तुम्हारे दीपक जलते रहें।

36) तुम उन लोगों के सदृश बन जाओ, जो अपने स्वामी की राह देखते रहते हैं कि वह बारात से कब लौटेगा, ताकि जब स्वामी आ कर द्वार खटखटाये, तो वे तुरन्त ही उसके लिए द्वार खोल दें।

37) धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी आने पर जागता हुआ पायेगा! मैं तुम से यह कहता हूँः वह अपनी कमर कसेगा, उन्हें भोजन के लिए बैठायेगा और एक-एक को खाना परोसेगा।

38) और धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी रात के दूसरे या तीसरे पहर आने पर उसी प्रकार जागता हुआ पायेगा!

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर हमसे प्यार करता है। उस प्रेम का महान संकेत यह है कि उसने हमें येसु मसीह के माध्यम से शांति प्रदान की है। और हमें परमेश्वर के घराने के सदस्य बनाये गये है। हम एक पवित्र मंदिर में बनाया जा रहा है, जहाँ परमेश्वर आत्मा में रहता है। ईश्वर हमसे इतना प्यार करता है कि वह वास्तव में हमारे भीतर बसता है। जैसा कि संत पौलुस ने कुरिन्थियों को लिखे अपने पत्र में लिखा है, "क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मंदिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है?" (1 Cor 3:16)

आज के सुसमाचार में हमारे लिए परमेश्वर के प्रेम का एक और संकेत है। ईश्वर हम पर भरोसा करता है और हमें कई जिम्मेदारियां सौंपता है। वह हमसे विश्वास और सतर्कता की उम्मीद करता है। जैसा कि संत मदर तेरेसा ने कहा, "ईश्वर चाहता है कि हम विश्वसनीय हों, सफल नहीं"। प्रभु के द्वारा हमें सौंपी हुई जिम्मेदारियों को विश्वासपूर्वक करने में ही आध्यात्मिक सफलता है। धन्य हैं वे सेवक जिन्हें अपस्वामी तैयार और वफादार पाएंगे!

आज हमें अपने जीवन के महान मूल्य के मनन चिंतन करने के लिए कहा जाता है। क्या आपको एहसास है कि आप ईश्वर का मंदिर हैं जहां उनका आत्मा निवास करता है? अपने आप से पूछें - क्या आप अपने जीवन और उसकी जिम्मेदारियों को आशीर्वाद के रूप में या बोझ के रूप में लेते हैं?

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

God loves us. The great sign of that love is that he has brought us peace through Jesus Christ. And we have been made members of the household of God. We are being built into a holy temple where God lives, in the Spirit. God loves us so much that he really dwells within us. As St. Paul writes in his letter to the Corinthians, “Do you not know that you are God’s temple and that God’s Spirit dwells in you?” (1 Cor 3:16).

We find another sign of God’s love for us in today’s gospel. God trusts us and entrusts us with many responsibilities. He expects faithfulness and alertness from us. As Mother Teresa said, “God wants us to be faithful, not successful”. Spiritual success is in doing faithfully what the Lord has entrusted us to do. Blessed are those whom the Master will find ready and faithful!

Today we are called to reflect on the great value of our lives. Do you realize that you are the temple of God where his Spirit lives? Ask yourself - do you take your life and its responsibilities as a blessing or as a burden?

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)


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Praise the Lord!