वर्ष - 2, उन्तीसवाँ सप्ताह, गुरुवार

📒 पहला पाठ : एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 3:14-21

14 (14-15) मैं उस पिता के सामने, जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर प्रत्येक परिवार का मूल आधार है, घुटने टेक कर यह प्रार्थना करता हूँ

16) कि वह अपने आत्मा द्वारा आप लोगों को अपनी अपार कृपानिधि से आभ्यन्तर शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करें,

17) जिससे विश्वास द्वारा मसीह आपके हृदयों में निवास करें, प्रेम में आपकी जड़ें गहरी हों और नींव सुदृढ़ हो।

18) इस तरह आप लोग अन्य सभी सन्तों के साथ मसीह के प्रेम की लम्बाई, चैड़ाई, ऊँचाई और गहराई समझ सकेंगे।

19) आप लोगों को उनके प्रेम का ज्ञान प्राप्त होगा, यद्यपि वह ज्ञाने से परे है। इस प्रकार आप लोग, ईश्वर की पूर्णता तक पहुँच कर, स्वयं परिपूर्ण हो जायेंगे।

20) जिसका सामर्थ्य हम में क्रियाशील है और जो वे सब कार्य सम्पन्न कर सकता है, जो हमारी प्रार्थना और कल्पना से अत्यधिक परे है,

21) उसी को कलीसिया और ईसा मसीह द्वारा पीढ़ी दर-पीढ़ी युग-युगों तक महिमा! आमेन!

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 12:49-53

49) ’’मैं पृथ्वी पर आग ले कर आया हूँ और मेरी कितनी अभिलाषा है कि यह अभी धधक उठे!

50) मुझे एक बपतिस्मा लेना है और जब तक वह नहीं हो जाता, मैं कितना व्याकुल हूँ!

51) ’’क्या तुम लोग समझते हो कि मैं पृथ्वी पर शान्ति ले कर आया हूँ? मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है। मैं फूट डालने आया हूँ।

52) क्योंकि अब से यदि एक घर में पाँच व्यक्ति होंगे, तो उन में फूट होगी। तीन दो के विरुद्ध होंगे और दो तीन के विरुद्ध।

53) पिता अपने पुत्र के विरुद्ध और पुत्र अपने पिता के विरुद्व। माता अपनी पुत्री के विरुद्ध होगी और पुत्री अपनी माता के विरुद्ध। सास अपनी बहू के विरुद्ध होगी और बहू अपनी सास के विरुद्ध।’’

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर हमसे प्यार करता है। अक्सर हम दूसरों के प्यार और देखरेख के माध्यम से ईश्वर के प्यार का अनुभव करते हैं। एफेसियों के लिए संत पौलुस की प्रार्थना ऐसे प्रेम की एक सुंदर अभिव्यक्ति है। वह प्रार्थना करता है कि पवित्र आत्मा की शक्ति के माध्यम से वे मजबूत हो जाएँ, ताकि मसीह विश्वास के माध्यम से उनके दिलों में रह सकें। वह कहता है कि वे प्यार में रोपे और विकसित किये गये हैं। इसका मतलब है कि ईश्वर ने उन्हें अपना बना लिया है और प्यार के साथ उनका पालन-पोषण करते हैं। हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम कितना बड़ा है!

ईश्वर का यह महान प्रेम आज का अनुवाक्य में व्यक्त किया गया है: "प्रभु पृथ्वी को अपने प्रेम से भर देते हैं।"

आज का सुसमाचार का पाठ में हम येसु के दो विवादास्पत कथन पाते हैं। पहला इस प्रकार है जहां येसु कहता है, “मैं पृथ्वी पर आग लेकर आया हूँ, और मेरी कितनी अभिलाषा है कि यह अभी धधक उठे! मुझे एक बपतिस्मा लेना है और जब तक वह नहीं हो जाता, मैं कितना व्याकुल हूँ!" येसु अपने मिशन का वर्णन करने के लिए आग और पानी (बपतिस्मा) के प्रतीकों का उपयोग करता है। अग्नि परीक्षण और निर्णय का प्रतीक है। बपतिस्मा जो उसे प्राप्त करना है, वह उसके दुखभोग और मृत्यु का है। दूसरा विवादास्पत बयान है, "क्या तुम लोग समझते हो की मैं पृथ्वी पर शांति ले कर आया हूँ? मैं हूँ, ऐसा नहीं है। मैं फूट हूँ।" इस का अर्थ यह है कि येसु राष्ट्रों और व्यक्तियों के बीच विभाजन का एक स्रोत तब बनेगा जब येसु पर विश्वास नहीं करनेवाले लोग विश्वास करनेवालों के खिलाफ हो जाएंगे, यहां तक कि उनका उतपीठन करेंगे।

आइए हम हमेशा येसु के पक्ष में रहने का अनुग्रह की माँग करें।

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

God loves us. Often we experience that love through the love and care of others. St. Paul’s prayer for the Ephesians is a beautiful expression of such love. He prays that through the power of the Holy Spirit they may grow strong, so that Christ may live in their hearts through faith. He says that they are planted and built in love. It means that God has made them his own and continues to nurture them with his love. What a great love God has for us!

This great love of God is expressed in the Response: “the Lord fills the earth with his love.”

The gospel passage contains two of the intriguing statements of Jesus. The first one says, “I have come to bring fire to the earth, and how I wish it were blazing already! There is a baptism I must still receive, and how great is my distress till it is over!” Jesus uses the terms fire and water (baptism) to describe his mission. Fire is a symbol of testing and judgement. The baptism that he has to receive is that of his passion and death. The second upsetting statement is, “I am here not to bring peace but division!” Jesus is a source of division among nations and individuals in the sense that those who do not believe in Jesus will turn against those who believe and even turn into persecutors.

Let us ask for the grace to be always on the side of Jesus.

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)


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Praise the Lord!