वर्ष - 2, इकत्तीसवाँ सप्ताह, शुक्रवार

📒 पहला पाठ : फिलिप्पियों 3:17‍4:1

17) भाईयो! आप सब मिल कर मेरा अनुसरण करें। मैंने आप लोगों को एक नमूना दिया। इसके अनुसार चलने वालों पर ध्यान देते रहें;

18) क्योंकि जैसा कि मैं आप से बार-बार कह चुका हूँ और अब रोते हुए कहता हूँ, बहुत-से लोग ऐसा आचरण करते हैं कि मसीह के क्रूस के शत्रु बन जाते हैं।

19) उनका सर्वनाश निश्चित है। वे भोजन को अपना ईश्वर बना लेते हैं और ऐसी बातों पर गर्व करते हैं, जिन पर लज्जा करनी चाहिए। उनका मन संसार की चीजों में लगा हुआ है।

20) हमारा स्वदेश तो स्वर्ग है और हम स्वर्ग से आने वाले मुक्तिदाता प्रभु ईसा मसीह की राह देखते रहते हैं।

21) वह जिस सामर्थ्य द्वारा सब कुछ अपने अधीन कर सकते हैं, उसी के द्वारा वह हमारे तुच्छ शरीर का रूपान्तरण करेंगे और उसे अपने महिमामय शरीर के अनुरूप बना देंगे।

4:1) इसीलिए मेरे प्रिय भाइयो, प्रभु में इस तरह दृढ़ रहिए। प्रिय भाइयो! मुझे आप लोगों से मिलने की बड़ी इच्छा है। आप मेरे आनन्द और मेरे मुकुट हैं।

📙 सुसमाचार : लूकस 16:1-8

1) ईसा ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, "किसी धनवान् का एक कारिन्दा था। लोगों ने उसके पास जा कर कारिन्दा पर यह दोष लगाया कि वह आपकी सम्पत्ति उड़ा रहा है।

2) इस पर स्वामी ने उसे बुला कर कहा, ‘यह मैं तुम्हारे विषय में क्या सुन रहा हूँ? अपनी कारिन्दगरी का हिसाब दो, क्योंकि तुम अब से कारिन्दा नहीं रह सकते।’

3) तब कारिन्दा ने मन-ही-मन यह कहा, ‘मै क्या करूँ? मेरा स्वामी मुझे कारिन्दगरी से हटा रहा है। मिट्टी खोदने का मुझ में बल नहीं; भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है।

4) हाँ, अब समझ में आया कि मुझे क्या करना चाहिए, जिससे कारिन्दगरी से हटाये जाने के बाद लोग अपने घरों में मेरा स्वागत करें।’

5) उसने अपने मालिक के कर्ज़दारों को एक-एक कर बुला कर पहले से कहा, ’तुम पर मेरे स्वामी का कितना ऋण है?’

6) उसने उत्तर दिया, ‘सौ मन तेल’। कारिन्दा ने कहा, ‘अपना रुक्का लो और बैठ कर जल्दी पचास लिख दो’।

7) फिर उसने दूसरे से पूछा, ‘तुम पर कितना ऋण है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेंहूँ। कारिन्दा ने उस से कहा, ‘अपना रुक्का लो और अस्सी लिख दो’।

8) स्वामी ने बेईमान कारिन्दा को इसलिए सराहा कि उसने चतुराई से काम किया; क्योंकि इस संसार की सन्तान आपसी लेन-देन में ज्योति की सन्तान से अधिक चतुर है।

📚 मनन-चिंतन

आज के पहले पाठ में संत पौलुस फिलिप्पियों के नाम पत्र में कहते हैं कि स्वर्ग ही हमारा स्वदेश है इसका मतलब हमारा वास्तविक निवास स्वर्ग है और इस संसार में हम मात्र परदेशी के समान है जो अपना समय पूरा होने पर इस संसार से विदा हो जायेंगे।

इस संसार में हम मात्र एक कारिन्दा के समान है जिसे इस संसार की कुछ चीजों और वस्तुएॅं सौंपी गयी है जिस से हम उनकी देखरेख कर सकें। इस संसार में हमारा अपना कुछ भी नहीं है जो कुछ हमारे पास है वह सब हमें दिया गया है धन-दौलत, ज्ञान, नाम-शौहरत, कला, खेत-खलिहान, यहॉं तक ही हमारे माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे सब हमें ईश्वर से प्राप्त है। हम मात्र इन सब के रखवाले हैं जिसका हिसाब हमें बाद में देना होगा। लेकिन अक्सर हम ऐसा जीवन जीते है जैसे कि यह सब हमारा है और हम इन सबके मालिक हैं। हमारा आने वाला जीवन हमारे इस जीवन पर निर्भर करता हैं कि किस प्रकार हम यह जीवन जीते हैं। आज के सुसमाचार में हम बेईमान कारिन्दा को पाते है जिसने झूठे धन के माध्यम से अपने आने वाले जीवन के लिए तैयारी की जिससे उसको कारिन्दगरी से निकाले जाने के बाद वह बेसहारा या भूखा न रह जायें।

हमें भी यह जीवन उस कारिन्दा के समान दिया गया है अगर यह जीवन हम सच्चे ईमानदारी और निष्ठापूर्वक अपना कार्य करते हुए जियेंगे तो हमें इसका पुरस्कार हमें आने वाले जीवन के रूप में प्राप्त होगा। अगर हम सच्चाई और ईमानदारी से जीवन जीयेंगे तो फिर हमें उस बेईमान कारिन्दा के समान झूठे धन का सहारा नहीं लेना पड़ेगा, क्योंकि जो छोटे से छोटे बातों में ईमानदार है उसे और भी दिया जायेगा।

जिस प्रकार संत मत्ती के सुसमाचार 25ः14-30 में अशर्फियों का दृष्टांत के बारे में हम पढ़तेे हैं जहॉं पर एक स्वामि ने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाकर अपनी सम्पत्ति सौंप दी जिससे वह वापस आकर उनका लेखा ले सकें। हमें भी यह जीवन प्रभु से मिला हैं जिसका लेखा-जोखा हमें बाद में देना होगा। अक्सर हम प्रभु से अपने जीवन के लिए कुछ न कुछ मॉंगते रहते हैं परन्तु हम यह नहीं सोचते कि जो हमें प्रभु ने दिया हैं हमने उसके साथ क्या किया है? उसका कितना फल उत्पन्न किया हैं? क्या हमने कभी सोचा है कि जितने वरदान और आर्शीवाद हमें प्रभु से मिला है उसके बदले मंे हमने उन्हें दिया ही क्या हैं? प्रभु येसु हम सभी से योहन 15ः16 में कहते हैं कि ‘‘तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैने तुम्हे इसलिये चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करो।’’ आइये हम ईश्वर के द्वारा दिये गये वरदानों का सही उपयोग करते हुए ईश्वर की नजरों में ईमानदार बने रहें। आमेन!

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

In today’s First reading, letter to the Philippians St. Paul tells us that our citizenship is in heaven which means our real home is heaven and we are mere foreigner or outsider in this world who will leave from here when the time will be over.

In this world we are like a steward whom some things have been handed over in order to take care of them. In this world nothing is our own, whatever we have everything is given to us – wealth, knowledge, name and fame, talents, fields, even our parents, brothers-sisters, children everything we have received from God. We are mere steward or care-taker who has to give the account later. But oftentimes we live as if everything is our own and we are the owner of these given things. Our coming life depends on this life- how we are living in this world. In today’s gospel we read about the dishonest steward or manager who has prepared for his coming life by the means of dishonest wealth so that when he is removed of his stewardship he may not remain helpless or go hungry.

We have also got this life like that steward or manager; if we live this life by doing our work with full honesty and dedication then we will receive the reward of eternal life. If we live the life in truthful and honest way then we don’t need to take the help of dishonest wealth. Because those who are faithful in little they will be given more.

As we read in Mt 25:14-30 about the parable of talents were the owner before going on a journey, summoned his slaves and entrusted his property to them so that after returning he can settle the account. We too got this life from God and later we have to give the account of our life. Very often we ask from God one or the other things for our lives but have we ever thought that what we have done of the things which God has given to us? How much we have bear fruit out of it? Have we ever thought of in response of the blessings and gifts received from God what we have given to him? Lord Jesus says in Jn 15:16, “You did not choose me but I chose you. And I appointed you to go and bear fruit.” Let’s bring forth the best of the gifts received from God and remain faithful in the eyes of God. Amen!

-Fr. Dennis Tigga


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Praise the Lord!