चक्र ’अ’ - आगमन का दूसरा इतवार



पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 11:1-10

1) यिशय के धड़ से एक टहनी निकलेगी, उसकी जड़ से एक अंकुर फूटेगा।

2) प्रभु का आत्मा उस पर छाया रहेगा, प्रज्ञा तथा बुद्धि का आत्मा, सुमति तथा धैर्य का आत्मा, ज्ञान तथा ईश्वर पर श्रद्धा का आत्मा।

3) वह प्रभु पर श्रद्धा रखेगा। वह न तो जैसे-तैसे न्याय करेगा, और न सुनी-सुनायी के अनुसार निर्णय देगा।

4) वह न्यायपूर्वक दीन-दुःखियों के मामलों पर विचार करेगा और निष्पक्ष हो कर देश के दरिद्रों को न्याय दिलायेगा। वह अपने शब्दों के डण्डे से अत्याचारियों को मारेगा और अपने निर्णयों से कुकर्मियों का विनाश करेगा।

5) वह न्याय को वस्त्र की तरह पहनेगा और सच्चाई को कमरबन्द की तरह धारण करेगा।

6) तब भेड़िया मेमने के साथ रहेगा, चीता बकरी की बगल में लेट जायेगा, बछड़ा तथा सिंह-शावक साथ-साथ चरेंगे और बालक उन्हें हाँक कर ले चलेगा।

7) गाय और रीछ में मेल-मिलाप होगा और उनके बच्चे साथ-साथ रहेंगे। सिंह बैल की तरह भूसा खायेगा।

8) दुधमुँहा बच्चा नाग के बिल के पास खेलता रहेगा और बालक करैत की बाँबी में हाथ डालेगा।

9) समस्त पवित्र पर्वत पर न तो कोई बुराई करेगा और न किसी की हानि; क्योंकि जिस तरह समुद्र जल से भरा है, उसी तरह देश प्रभु के ज्ञान से भरा होगा।

10) उस दिन यिशय की सन्तति राष्ट्रों के लिए एक चिन्ह बन जायेगी। सभी लोग उनके पास आयेंगे और उसका निवास महिमामय होगा।

दूसरा पाठ : रोमियों 15:4-9

4) धर्म-ग्रन्थ में जो कुछ पहले लिखा गया था, वह हमारी शिक्षा के लिए लिखा गया था, जिससे हमें उस से धैर्य तथा सान्त्वना मिलती रहे और इस प्रकार हम अपनी आशा बनाये रख सकें।

5) ईश्वर ही धैर्य तथा सान्त्वना का स्रोत है। वह आप लोगों को यह वरदान दे कि आप मसीह की शिक्षा के अनुसार आपस में मेल-मिलाप बनाये रखें,

6) जिससे आप लोग एकचित्त हो कर एक स्वर से हमारे प्रभु ईसा मसीह के ईश्वर तथा पिता की स्तुति करते रहें।

7) जिस प्रकार मसीह ने हमें ईश्वर की महिमा के लिए अपनाया, उसी प्रकार आप एक दूसरे को भ्रातृभाव से अपनायें।

8) मैं यह कहना चाहता हूँ कि मसीह यहूदियों के सेवक इसलिए बने कि वह पूर्वजों की दी गयी प्रतिज्ञाएं पूरी कर ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता प्रमाणित करें

9) और इसलिए भी कि गैर-यहूदी, ईश्वर की दया प्राप्त करें, उसकी स्तुति करें। जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- इस कारण मैं ग़ैर-यहूदियों के बीच तेरी स्तुति करूँगा और तेरे नाम की महिमा का गीत गाऊँगा।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 3:1-12

योहन बपतिस्ता का उपदेश

(1) उन दिनों योहन बपतिस्ता प्रकट हुआ, जो यहूदिया के निर्जन प्रदेश में यह उपदेश देता था,

(2) "पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।"

(3) यह वही था जिसके विषय में नबी इसायस ने कहा था निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज-प्रभु का मार्ग तैयार करो; उसके पथ सीधे कर दो।

(4) योहन ऊँट के रोओं का कपड़ा पहने और कमर में चमडे़ का पट्टा बाँधे रहता था। उसका भोजन टिड्डियाँ और वन का मधु था।

(5) येरूसालेम, सारी यहूदिया और समस्त प्रान्त के लोग योहन के पास आते थे।

(6) और अपने पाप स्वीकार करते हुए यर्दन नदी में उस से बपतिस्मा ग्रहण करते थे।

(7) बहुत-से फ़रीसियों और सदूकियों को बपतिस्मा के लिए आते देख कर योहन ने उन से कहा, "साँप के बच्चों! किसने तुम लोगों को आगामी कोप से भागने के लिए सचेत किया ?

(8) पश्चाताप का उचित फल उत्पन्न करो।

(9) और यह न सोचा करो- हम इब्राहीम की संतान हैं, मैं तुम लोगों से कहता हूँ - ईश्वर इन पत्थरों से इब्राहीम के लिए संतान उत्पन्न कर सकता है।

(10) अब पेड़ों की जड़ में कुल्हाड़ा लग चुका है। जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, वह काटा और आग में झोंक दिया जायेगा।

(11) मैं तुम लोगों को जल से पश्चात्ताप का बपतिस्मा देता हूँ ; किन्तु जो मेरे बाद आने वाले हैं, वे मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं उनके जूते उठाने योग्य भी नहीं हूँ। वे तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देंगे।

(12) वे हाथ में सूप ले चुके हैं, जिससे वे अपना खलिहान ओसा कर साफ करें। वे अपना गेहूँ बखार में जमा करेंगे। वे भूसी को न बुझने वाली आग में जला देंगे।

मनन-चिंतन

संत योहन बपतिस्ता मसीह के आगमन के लिए मार्ग तैयार करने वाले थे। वे यहूदिया के रेगिस्तान में रह कर एक तपस्वी जीवन जी रहे थे। उन्होंने ऊंट के रोओं से बने परिधान और कमर में चमड़े की बेल्ट पहनी थी। वे जंगली शहद और टिड्डे खाते थे। वे अपने तरीके, व्यवहार और जीवन-शैली में समाज के सामान्य लोगों से अलग ही थे। वे चाहते थे कि लोग अपनी-अपनी विभिन्न गतिविधियों के बीच कुछ समय के लिए रुक कर स्वयं के जीवन की ओर देखें कि क्या मुझे प्रभु के मसीह का स्वागत करने के लिए सक्षम होने हेतु खुद को बदलने की आवश्यकता तो न्हीं है। संत योहन बपतिस्ता का प्रचारकार्य एक ही समय में एक निमंत्रण और एक चेतावनी दोनों था। वे ईश्वर के राज्य के आगमन की घोषणा कर रहे थे और लोगों को उसमें प्रवेश करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। वे मसीह के आने के संदेश का अग्रदूत थे। दूसरी ओर वे न्याय और नैतिकता की परवाह न करने वालों को चेतावनी भी दे रहे थे। उन्होंने चेतावनी दी कि कुकर्मियों का दण्ड आसन्न था। संत योहन बपतिस्ता के निमंत्रण और चेतावनी को सुनना और समझना हमारे लिए भी लाभदायक हो सकता है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


REFLECTION

St. John the Baptist was the precursor of the Messiah. He lived in the desert of Judea leading an ascetical life. He wore a garment made of camel-hair and a leather belt around his waist. He ate wild honey and locust. He stood out in the midst of ordinary people of the society in his mannerism, behaviour and life-style. He wanted people engaged in various activities to pause for a while and look at their own lives to see whether they needed to change themselves to be able to welcome the Messiah of the Lord. The preaching of St. John the Baptist was both an invitation and a warning at the same time. He was proclaiming the nearness of the Kingdom of God inviting people to enter into it. He was harbinger of the message of the coming of the Messiah. On the other hand he had a warning for those who cared least for morality and justice. He warned that the punishment of the evil people was imminent. It may be worth listening to the invitation and warning of St. John the Baptist.

-Fr. Francis Scaria


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