चक्र ’अ’ - आगमन का चौथा इतवार



पहला पाठ : इसायाह 7:10-14

10) प्रभु ने फिर आहाज़ से यह कहा,

11) “चाहे अधोलोक की गहराई से हो, चाहे आकाश की ऊँचाई से, अपने प्रभु-ईश्वर से अपने लिए एक चिन्ह माँगो“।

12) आहाज़ ने उत्तर दिया, “जी नहीं! मैं प्रभु की परीक्षा नहीं लूँगा।“

13) इस पर उसने कहा, “दाऊद के वंश! मेरी बात सुनो। क्या मनुष्यों को तंग करना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, जो तुम ईश्वर के धैर्य की भी परीक्षा लेना चाहते हो?

14) प्रभु स्वयं तुम्हें एक चिन्ह देगा और वह यह है - एक कुँवारी गर्भवती है। वह एक पुत्र को प्रसव करेगी और वह उसका नाम इम्मानूएल रखेगी।



दूसरा पाठ : रोमियों 1:1-7

1) यह पत्र ईसा मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर द्वारा प्रेरित चुना गया और उसके सुसमाचार के प्रचार के लिए नियुक्त किया गया है।

2) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, ईश्वर ने बहुत पहले अपने नबियों द्वारा इस सुसमाचार की प्रतिज्ञा की थी।

3) यह सुसमाचार ईश्वर के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह के विषय में है।

4) वह मनुष्य के रूप में दाऊद के वंश में उत्पन्न हुए और मृतकों में से जी उठने के कारण पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ्य के साथ ईश्वर के पुत्र प्रमाणित हुए।

5) उन से मुझे प्रेरित बनने का वरदान मिला है, जिससे मैं उनके नाम पर ग़ैर-यहूदियों में प्रचार करूँ और वे लोग विश्वास की अधीनता स्वीकार करें।

6) उन में आप लोग भी हैं, जो ईसा मसीह के समुदाय के लिए चुने गये हैं।

7) मैं उन सबों के नाम यह पत्र लिख रहा हूँ, जो रोम में ईश्वर के कृपापात्र और उसकी प्रजा के सदस्य हैं। हमारा पिता ईश्वर और प्रभु मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!



सुसमाचार : मत्ती 1:18-24

(18) ईसा मसीह का जन्म इस प्रकार हुआ। उनकी माता मरियम की मँगनी यूसुफ़ से हुई थी, परन्तु ऐसा हुआ कि उनके एक साथ रहने से पहले ही मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती हो गयी।

(19) उसका पति यूसुफ़ चुपके से उसका परित्याग करने की सोच रहा था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था।

(20) वह इस पर विचार कर ही रहा था कि उसे स्वप्न में प्रभु का दूत यह कहते दिखाई दिया, "यूसुफ! दाऊद की संतान! अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ लाने में नहीं डरे,क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है।

(21) वे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम ईसा रखेंगे, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा।"

(22) यह सब इसलिए हुआ कि नबी के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो जाये -

(23) देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और पुत्र प्रसव करेगी, और उसका नाम एम्मानुएल रखा जायेगा, जिसका अर्थ हैः ईश्वर हमारे साथ है।

(24) यूसुफ़ नींद से उठ कर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।

मनन-चिंतन

एक बार मैं एक महिला से मिलने गया। वह बहुत कम आवाज़ में बोल रही थी। उसने कहा कि उसका बच्चा अंदर सो रहा था और अगर वह जोर से बोलती तो बच्चे की नींद खुल जाती। हम उन लोगों की जरूरतों, पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित हैं जिन्हें हम प्यार करते हैं। अगर हम प्रभु ईश्वर की पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित होना सीखेंगे, तो हम पवित्रता में बढ़ेंगे।

जब ईश्वर का वचन हमारे दिलों में बसना शुरू होता है, तब पवित्रता का बीज हमारे जीवन में बोया जाता है। स्तोत्रकार कहता है, “मैंने तेरे वचन को अपने हृदय में सुरिक्षत रखा, जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ।” (स्तोत्र 119: 11)। ईश्वर का यह वचन यूसुफ और मरियम के जीवन में जीवित पाया जाता है। जिसके हृदय में ईश्वर का वचन है, वह व्यक्ति अवश्य ही ईमानदार और धर्मी बनता है। यह यूसुफ के जीवन में सच है जिसके कारण संत मत्ती के सुसमाचार में वे एक ईमानदार और न्यायपूर्ण व्यक्ति के रूप में वर्णित है। ऐसे व्यक्ति से परिवार और समाज में ईश्वर की मौजूदगी की लहरें निकलती हैं। ऐसा व्यक्ति ईश्वर की तलाश करता रहता है और भलाई करता चला जाता है। एक ईमानदार व्यक्ति दूसरों के लिए मुसीबतें नहीं लाता बल्कि केवल आराम और सांत्वना देता है। यह संत यूसुफ के जीवन से प्रमाणित है। वे मरियाम के अच्छे नाम को कलंकित नहीं करना चाहते थे और उन्हें चुपके से अनौपचारिक रूप से तलाक देने का फैसला किया। यहाँ तक उनकी मानवीय भावना उन्हें ले जा सकती है। लेकिन ईशवचन उन्हें एक अतिरिक्त मील जाने की मांग की, मरियम को अपनी पत्नी के रूप में घर ले जाने के लिए। इसी तरह से यूसुफ ने अपने साधारण घर में ईश्वर के लिए जगह बनाई। यूसुफ का साधारण घर दुनिया के सबसे सजी हुए गिरिजाघरों और मंदिरों से अधिक महत्वपूर्ण जगह बन गया। उनका दिल सर्वशक्तिमान के लिए एक मंदिर बन गया था। जब मरियम ने ईश्वर को अपने गर्भ में प्राप्त किया, तब यूसुफ ने उसे अपने हृदय में स्वीकार किया। उन्होंने ईश्वर की वाणी का पालन किया और ईश्वर की इच्छा को पूरा किया। येसु ने बाद में कहा, "जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वही है मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माता।" (मारकुस 3:35)। लूकस का संस्करण थोड़ा अलग है - "मेरी माता और मेरे भाई वहीं हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं" (लूकस 8:21)। ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिता कर हम भी यूसुफ की तरह पवित्र बन सकते हैं। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वे हमें ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने के लिए अनुग्रह प्रदान करें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


REFLECTION

Once I went to visit a lady. She was speaking in a very low voice. She said that her child was sleeping inside and if she spoke loudly, the child’s sleep would be disturbed. We are concerned about the needs, likes and dislikes of people whom we love. If we are concerned about the likes and dislikes of God, we shall grow in holiness.

When the Word of God begins to dwell in our hearts, the seed of holiness is sown in our lives. The Psalmist says, “I treasure your word in my heart, so that I may not sin against you” (Ps 119:11). This Word of God is found alive in the lives of Joseph and Mary. A person with the Word of God in the heart has to be an upright and righteous person. This is true of Joseph who is described in the Gospel of Matthew as an upright and just man. Such a person can and does vibrate the presence of God in the family and in the society. Greater holiness results in greater uprightness. Such a person keeps seeking God and goes about doing good. An upright person does not bring troubles to others but only comfort and consolation. This is testified by the life St. Joseph. He did not want to tarnish the good name of Mary and decided to divorce her informally. This is where his human sense could take him. But the Word in him demanded to go an extra mile, to take her home as his wife. This is how Joseph made space for God in his simple house. Joseph’s simple house became greater than the most adorned cathedrals and basilicas of the world. His heart had become even greater a temple for the Almighty. While Mary received God into her womb, Joseph received him into his heart. He obeyed the voice of God and did God’s will. Jesus would later say, “Whoever does the will of God is my brother and sister and mother” (Mk 3:35). The Lucan version is slightly different – “My mother and my brothers are those who hear the word of God and do it” Lk 8:21). By confirming to God’s will, we too can become holy like Joseph. Let us ask the Lord to give us the grace to confirm to God’s will.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!