चक्र ’अ’ -खजूर इतवार



सुसमाचार (जुलूस के लिए) : मत्ती 21:1-11

1) जब वे येरूसालेम के निकट पहुँचे और जैतून पहाड़ के समीप बेथफगे आ गये, तो ईसा ने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,

2) "सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँचते ही तुम्हें बँधी हुई गदही मिलेगी और उसके साथ एक बछेड़ा। उन्हें खोल कर मेरे पास ले आओ।

3) यदि कोई कुछ बोले, तो कह देना- प्रभु को इनकी ज़रूरत है, वह इन्हें शीघ्र ही वापस भेज देंगे।"

4) यह इसलिए हुआ कि नबी का यह कथन पूरा हो जाये।

5) सियोन की पुत्री से कहोः देख! तेरे राजा तेरे पास आते हैं। वह विनम्र हैं। वह गदहे पर, बछडे पर, लद्दू जानवर के बच्चे पर सवार हैं।

6) शिष्य चल पड़े। ईसा ने जैसा आदेश दिया, उन्होंने वैसा ही किया।

7) गदही और बछेडा ले आ कर उन्होंने उन पर अपने कपड़े बिछा दिये और ईसा सवार हो गये।

8) भीड़ में से बहुत-से लोगों ने अपने कपडे़ रास्ते में बिछा दिये। कुछ लोगों ने पेड़ों की डालियाँ काट कर रास्ते में फैला दी।

9) ईसा के आगे-आगे जाते हुए और पीछे -पीछे आते हुए लोग यह नारा लगा रहे थे, "दाऊद के पुत्र को होसन्ना! धन्य हैं वह जो प्रभु के नाम पर आते हैं! सर्वोच्च स्वर्ग में होसन्ना!‘

10) जब ईसा येरूसालेम आये, तो सारे शहर में हलचल मच गयी। लोग पूछते थे, "यह कौन है?"

11) और जनता उत्तर देती थी "यह गलीलिया के नाज़रेत के नबी ईसा हैं"।

पहला पाठ : इसायाह 50:4-7

4) प्रभु ने मुझे शिय बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिय की तरह सुन सकूँ।

5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।

6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाया।

7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।

दूसरा पाठ : फिलिप्पियों 2:6-11

6) वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें,

7) फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद

8) मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।

9) इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है,

10) जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें

11) और पिता की महिमा के लिए सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 26:14-27:66

14) तब बारहों में से एक, यूदस इसकारियोती नामक व्यक्ति ने महायाजकों के पास जा कर

15) कहा, "यदि मैं ईसा को आप लोगों के हवाले कर दूँ, तो आप मुझे क्या देने को तैयार हैं?" उन्होंने उसे चाँदी के तीस सिक्के दिये।

16) उस समय से यूदस ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।

17) बेख़मीर रोटी के पहले दिन शिष्य ईसा के पास आकर बोले, "आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ आपके लिए पास्का-भोज की तैयारी करें?"

18) ईसा ने उत्तर दिया, "शहर में अमुक के पास जाओ और उस से कहो, ’गुरुवर कहते हैं- मेरा समय निकट आ गया है, मैं अपने शिष्यों के साथ तुम्हारे यहाँ पास्का का भोजन करूँगा’।"

19) ईसा ने जैसा आदेश दिया, शिष्यों ने वैसा ही किया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।

20) सन्ध्या हो जाने पर ईसा बारहों शिष्यों के साथ भोजन करने बैठे।

21) उनके भोजन करते समय ईसा ने कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - तुम में से ही एक मुझे पकड़वा देगा"।

22) वे बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उन से पूछने लगे, "प्रभु! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?"

23) ईसा ने उत्तर दिया, "जो मेरे साथ थाली में खाता है, वह मुझे पकड़वा देगा।

24) मानव पुत्र तो चला जाता है, जैसा कि उसके विषय में लिखा है; परन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो मानव पुत्र को पकड़वाता है! उस मनुष्य के लिए कहीं अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।"

25) ईसा के विश्वासघाती यूदस ने भी उन से पूछा, "गुरुवर! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ? ईसा ने उत्तर दिया, तुमने ठीक ही कहा"।

26) उनके भोजन करते समय ईसा ने रोटी ले ली और धन्यवाद की प्राथना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, "ले लो और खाओ, यह मेरा शरीर है।"

27) तब उन्होंने प्याला ले कर धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और यह कहते हुये उसे शिष्यों को दिया, "तुम सब इस में से पियो;

28) क्योंकि यह मेरा रक्त है, विधान का रक्त, जो बहुतों की पापक्षमा के लिये बहाया जा रहा है।

29) मैं तुम लोगों से कहता हूँ - जब तक मैं अपने पिता के राज्य में तुम्हारे साथ नवीन रस न पी लूँ, तब तक मैं दाख का यह रस फिर नही पिऊँगा।"

30) भजन गाने के बाद वे जैतून पहाड़ चल दिये।

31) उस समय ईसा ने उन से कहा, "इसी रात को तुम सब मेरे कारण विचलित हो जाओगे, क्योंकि यह लिखा है- मैं चरवाहे को मारूँगा और झुण्ड की भेडें तितर-बितर हो जायेंगी;

32) किन्तु अपने पुनरुत्थान के बाद मैं तुम लोगों से पहले गलीलिया जाऊँगा।"

33) इस पर पेत्रुस ने ईसा से कहा, "आपके कारण चाहे सभी विचलित हो जाये, किन्तु मैं कभी विचलित नहीं होऊँगा"।

34) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "मैं तुम से यह कहता हूँ - इसी रात को, मुर्गे के बाँग देने से पहले ही, तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे"।

35) पेत्रुस ने उन से कहा, "मुझे आपके साथ चाहे मरना ही क्यों न पड़े, मैं आप को कभी अस्वीकार नहीं करूँगा"। और सभी शिष्यों ने यही कहा।

36) जब ईसा अपने शिष्यों के साथ गेथसेमनी नामक बारी पहँचे, तो वे उन से बोले, "तुम लोग यहाँ बैठे रहो। मैं तब तक वहाँ प्रार्थना करने जाता हूँ।"

37) वे पेत्रुस और जे़बेदी के दो पुत्रों को अपने साथ ले गये।

38) वे उदास तथा व्याकुल होने लगे और उन से बोले, "मेरी आत्मा इतनी उदास है कि मैं मरने-मरने को हूँ। यहाँ ठहर जाओ और मेरे साथ जागते रहो।"

39) वे कुछ आगे बढ़ कर मुहँ के बल गिर पडे़ और उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की, "मेरे पिता! यदि हो सके, तो यह प्याला मुझ से टल जाये। फिर भी मेरी नही, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।"

40) तब वे अपने श्ष्यिों के पास गये और उन्हें सोया हुआ देखकर पेत्रुस से बोले, "क्या तुम लोग घण्टे-भर भी मेरे साथ नहीं जाग सके?

41) जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तत्पर है, परन्तु शरीर दुर्बल"।

42) वे फिर दूसरी बार गये और उन्होंने यह कहते हुए प्रार्थना की, "मेरे पिता! यदि यह प्याला मेरे पिये बिना नहीं टल सकता, तो तेरी ही इच्छा पूरी हो"।

43) लौटने पर उन्होंने अपने शिष्यों को फिर सोया हुआ पाया, क्योंकि उनकी आँखें भारी थीं।

44) वे उन्हें छोड़ कर फिर गये और उन्हीं शब्दों को दोहराते हुए उन्होंने तीसरी बार प्रार्थना की।

45) इसके बाद उन्होंने अपने शिष्यों के पास आ कर उन से कहा, "अब तक सो रहे हो? अब तक आराम कर रहो हो, देखो! वह घड़ी आ गयी है, जब मानव पुत्र पापियों के हवाले कर दिया जायेगा।

46) उठो! हम चलें। मेरा विश्वासघाती निकट आ गया है।"

47) ईसा यह कह ही रहे थे कि बारहों में से एक, यूदस आ गया। उसके साथ तलवारें और लाठियाँ लिये एक बड़ी भीड़ थी, जिसे महायाजकों और जनता के नेताओ ने भेजा था।

48) विश्वासघाती ने उन्हें यह कहते हुये संकेत दिया था, "में जिसका चुम्बन करूॅगा, वही है। उसी को पकड़ना।"

49) उसने सीधे ईसा के पास आ कर कहा, "गुरुवर! प्रणाम!’ और उनका चुम्बन किया।

50) ईसा ने उस से कहा, "मित्र! जो करने आये हो, कर लो"। तब लोग आगे बढ़ आये और उन्होंने ईसा को पकड़ कर गिरफ़्तार कर लिया।

51) इस़ पर ईसा के साथियों में एक ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चला कर उसका कान उड़ा दिया।

52) ईसा ने उस से कहा, "तलवार म्यान में कर लो, क्योंकि जो तलवार उठाते हैं, वे तलवार से मरते हैं।

53) क्या तुम यह समझते हो कि मैं अपने पिता से सहायता नहीं माँग सकता? तब क्या वह अभी मेरे लिए स्वर्गदूतों की बारह से भी अधिक सेनाएँ नहीं भेज देगा?

54) लेकिन तब धर्मग्रन्थ कैसे पूरा होगा? उस में तो लिखा है कि ऐसा ही होना आवश्यक है।"

55) इसके बाद ईसा ने भीड़ से कहा, "क्या तुम लोग मुझे डाकू समझते हो, तलवारें और लाठियाँ ले कर मुझे पकड़ने आये हो? मैं तो प्रतिदिन मंदिर में बैठ कर शिक्षा दिया करता था, फिर भी तुमने मुझे नहीं गिरफ़्तार किया।"

56) यह सब इसलिए हुआ कि नबियों ने जो लिखा है, वह पूरा हो जाये। तब सभी शिष्य को छोड़ कर भाग गये।

57) जिन्होंने ईसा को गिरफ़्तार कर लिया था, वे उन्हें प्रधानयाजक कैफ़स के यहाँ ले गये, जहाँ शास्त्री और नेता इकट्ठे हो गये थे।

58) पेत्रुस कुछ दूरी पर ईसा के पीछे-पीछे चला। वह प्रधानयाजक के महल तक पहुँच कर अन्दर गया और परिणाम देखने के लिए नौकरों के साथ बैठ गया।

59) महायाजक और सारी महासभा ईसा को मरवा डालने के उद्देश्य से उनके विरुद्ध झूठी गवाही खोज रही थी,

60) परन्तु वह मिली नहीं, यद्यपि बहुत-से झूठे गवाह सामने आये। अन्त में दो गवाह आ कर

61) बोले, इस व्यक्ति ने कहा- मैं ईश्वर का मन्दिर ढा सकता हूँ और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर से बना सकता हूँ।

62) इस प्रकार प्रधानयाजक ने खड़े हो कर ईसा से कहा, "ये लोग तुम्हारे विरुद्ध जो गवाही दे रहें हैं, क्या इसका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है?"

63) परन्तु ईसा मौन रहे। तब प्रधानयाजक ने उन से कहा, "तुम्हें जीवन्त ईश्वर की शपथ! यदि तुम मसीह, ईश्वर के पुत्र हो, तो हमें बता दो"।

64) ईसा ने उत्तर दिया, "आपने ठीक कहा। मैं आप लोगों से यह भी कहता हूँ - भविष्य में आप मानव पुत्र को सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने बैठा हुआ और आकाश के बादलों पर आता हुआ देखेंगे।"

65) इस पर प्रधानयाजक ने अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, "इसने ईश-निन्दा की है। तो अब हमें गवाहों की ज़रूरत ही क्या है? अभी-अभी आप लोगों ने ईश-निन्दा सुनी है।

66) आप लोगों का क्या विचार है?" उन्होने उत्तर दिया, "यह प्राणदण्ड के योग्य है"।

67) तब उन्होंने उनके मुँह पर थूका और उन्हें घूँसे मारे। कुछ लोगों ने उन्हें थप्पड़ मारते हुए

68) यह कहा, "मसीह! यदि तू नबी है, तो हमें बता- तुझे किसने मारा है?"

69) पेत्रुस उस समय बाहर प्रांगण में बैठा हुआ था। एक नौकरानी ने पास आ कर उस उसे कहा, "तुम भी ईसा गलीली के साथ थे";

70) किन्तु उसने सब के सामने अस्वीकार करते हुये कहा, "मैं नहीं समझता कि तुम क्या कह रही हो"।

71) इसके बाद पेत्रुस फाटक की ओर निकल गया, किन्तु एक दूसरी नौकरानी ने उसे देख लिया और वहाँ के लोगों से कहा, "यह व्यक्ति ईसा नाज़री के साथ था"।

72) उसने शपथ खा कर फिर अस्वीकार किया और कहा, "मैं उस मनुष्य को नहीं जानता"।

73) इसके थोड़ी देर बाद आसपास खडे़ लोग पेत्रुस के पास आये और बोले, "निश्चय ही तुम भी उन्हीं लोगों में से एक हो। यह तो तुम्हारी बोली से सपष्ट है।"

74) तब पेत्रुस कोसने शपथ खा कर कहने लगा कि मैं उस मनुष्य को जानता ही नहीं। ठीक उसी समय मुर्गे ने बाँग दी।

75) पेत्रुस को ईसा का यह कहना याद आया- मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे, और वह बाहर निकल कर फूट-फूट कर रोया।

27:1) भोर को सब महायाजकों और जनता के नेताओं ने ईसा को मरवा डालने के लिए परामर्श किया।

2) उन्होंने ईसा को बाँधा और उन्हें ले जा कर राज्यपाल पिलातुस के हवाले कर दिया।

3) जब ईसा के विश्वासघाती यूदस ने देखा कि उन्हें दण्डाज्ञा मिली है, तो उसे पश्चात्ताप हुआ और महायाजकों और नेताओं के पास चाँदी के वे तीस सिक्के यह कहते हुए वापस ले आया,

4) "मैंने निर्दोष रक्त का सौदा कर पाप किया है"। उन्होंने उत्तर दिया, "हमें इस से क्या! तुम जानो"।

5) इस पर यूदस ने चाँदी के सिक्के मन्दिर में फेंक दिये और जा कर फाँसी लगा ली।

6) महायाजकों ने चाँदी के सिक्के उठा कर कहा, "इन्हें खजाने में जमा करना उचित नहीं है, यह तो रक्त की कीमत है"।

7) इसलिए परामर्श करने के बाद उन्होंने परदेशियों को दफनाने के लिये उन सिक्कों से कुम्हार की ज़मीन खऱीद ली।

8) यही कारण है कि वह जमीन आज तक रक्त की ज़मीन कहलाती है।

9) इस प्रकार नबी येरेमियस का कथन पूरा हो गया, उन्होंने चाँदी के तीस सिक्के लिए- वही दाम इस्राएल के पुत्रों ने उनके लिये निर्धारित किया था-

10) और कुम्हार की ज़मीन के लिए दे दिये, जैसा की प्रभु ने मुझे आदेश दिया था।

11) ईसा अब राज्यपाल के सामने खडे़ थे। राज्यपाल ने उन से पूछा, "क्या तुम यहूदियों के राजा हो?" ईसा ने उत्तर दिया, "आप ठीक कहते हैं"।

12) महायाजक और नेता उन पर अभियोग लगाते रहे, परन्तु ईसा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

13) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, "क्या तुम नहीं सुनते कि ये तुम पर कितने अभियोग लगा रहे हैं?"

14) फिर भी ईसा ने उत्तर में एक भी शब्द नहीं कहा। इस पर राज्यपाल को बहुत आश्चर्य हुआ।

15) पर्व के अवसर पर राज्यपाल लोगों की इच्छानुसार एक बन्दी को रिहा किया करता था।

16) उस समय बराब्बस नामक एक कुख्यात व्यक्ति बन्दीगृह में था।

17) इसलिए पिलातुस ने इकट्ठे हुए लोगों से कहा, "तुम लोग क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए किसे को रिहा करूँ-बराब्बस को अथवा मसीह कहलाने वाले ईसा को?"

18) वह जानता था कि उन्होंने ईसा को ईर्ष्या से पकड़वाया है।

19) पिलातुल न्यायासन पर बैठा हुआ ही था कि उसकी पत्नी कहला भेजा, "उस धर्मात्मा के मामले में हाथ नहीं डालना, क्योंकि उसी के कारण मुझे आज स्वप्न में बहुत कष्ट हुआ"।

20) इसी बीच महायाजकों और नेताओं ने लोगों को यह समझाया कि वे बराब्बस को छुड़ायें और ईसा का सर्वनाश करें।

21) राज्यपाल ने फिर उन से पूछा, "तुम लोग क्या चाहते हो? दोनों में किसे तुम्हारे लिये रिहा करूँ?" उन्होंने उत्तर दिया, "बराब्बस को"।

22) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, "तो, मैं ईसा का क्या करूँ, जो मसीह कहलाते हैं?" सबों ने उत्तर दिया, "इसे क्रूस दिया जाये"।

23) पिलातुस ने पूछा, "क्यों? इसने कौन-सा अपराध किया है?" किन्तु वे और भी जारे से चिल्ला उठे, "इसे क्रूस दिया जाये!

24) जब पिलातुस ने देखा कि मेरी एक भी नहीं चलती, उलटे हंगामा होता जा रहा है, तो उसने पानी मँगा कर लोगों के सामने हाथ धोये और कहा, "मैं इस धर्मात्मा के रक्त का दोषी नहीं हूँ। तुम लोग जानो।"

25) और सारी जनता ने उत्तर दिया, "इसका रक्त हम पर और हमारी सन्तान पर!"

26) इस पर पिलातुस ने उनके लिए बराब्बस को मुक्त कर दिया और ईसा को कोडे़ लगवा कर क्रूस पर चढ़ाने सैनिकों के हवाले कर दिया।

27) इसके बाद राज्यपाल के सैनिकों ने ईसा को भवन के अन्दर ले जा कर उनके पास सारी पलटन एकत्र कर ली।

28) उन्होंने उनके कपडे़ उतार कर उन्हें लाल चोंग़ा पहनाया,

29) काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रखा और उनके दाहिने हाथ में सरकण्डा थमा दिया। तब उनके सामने घुटने टेक कर उन्होंने यह कहते हुए उनका उपहास किया, "यहूदियों के राजा, प्रणाम।"

30) वे उन पर थूकते और सरकण्डा छीन कर उनके सिर पर मारते थे।

31) इस प्रकार उनका उपवास करने के बाद, वे चोंग़ा उतार कर और उन्हें उनके निजी कपड़े पहना कर, क्रूस पर चढ़ाने ले चले।

32) शहर से निकलते समय उन्हें कुरेने निवासी सिमोन मिला और उन्होंने उसे ईसा का क्रूस उठा ले चलने के लिए बाध्य किया।

33) वे उस जगह पहुँचे, जो गोलगोथा अर्थात खोपड़ी की जगह कहलाती है।

34) वहाँ लोगों ने ईसा को पित्त मिली हुई अंगूरी पीने को दी। उन्होंने उसे चख तो लिया, लेकिन उसे पीना अस्वीकार किया।

35) उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया और चिट्ठी डाल कर उनके कपडे़ बाँट लिये।

36) इसके बाद वे उन पर पहरा बैठे।

37) ईसा के सिर के ऊपर दोषपत्र लटका दिया गया। वह इस प्रकार था- यह यहूदियों का राजा ईसा है।

38) ईसा के साथ ही उन्होंने दो डाकुओं को क्रूस पर चढ़ाया- एक को उनके दायें और दूसरे को उनके बायें।

39) उधर से आने-जाने वाले लोग ईसा की निन्दा करते और सिर हिलाते हुए

40) यह कहते थे, "ऐ मन्दिर ढाने वाले और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर बना देने वाले! यदि तू ईश्वर का पुत्र है, तो क्रूस से उतर आ"।

41) इसी तरह शास्त्रियों और नेताओं के साथ महायाजक भी यह कहते हुए उनका उपहास करते थे,

42) "इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता। यह तो इस्राएल का राजा है। अब यह क्रूस से उतरे, तो हम इस में विश्वास करेंगे।

43) इसे ईश्वर का भरोसा था। यदि ईश्वर इस पर प्रसन्न हो, तो इसे छुड़ाये। इसने तो कहा है- मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।"

44) जो डाकू ईसा के साथ क्रूस पर चढ़ाये गये थे, वे भी इसी तरह उनका उपहास करते थे।

45) दोपहर से तीसरे पहर तक पूरे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।

46) लगभग तीसरे पहर ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, "एली! एली! लेमा सबाखतानी?" इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?

47) यह सुन कर पास खडे़ लोगों में से कुछ कहते थे, "यह एलीयस को बुला रहा है।"

48) उन में से एक तुरन्त दौड़ कर पनसोख्ता ले आया और उसे खट्टी अंगूरी में डूबा कर सरकण्डे में लगा कर उसने ईसा को पीने को दिया।

49) कछ लोगों ने कहा, "रहने दो! देखें, एलीयस इसे बचाने आता है या नहीं"।

50) तब ईसा ने फिर ऊँचे स्वर से पुकार कर प्राण त्याग दिये।

51) उसी समय मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकडे़ हो गया, पृथ्वी काँप उठी, चट्टानें फट गयीं,

52) कब्रें खुल गयीं और बहुत-से मृत सन्तों के शरीर पुन-जीवित हो गये।

53) वे ईसा के पुनरुत्थान के बाद कब्रों से निकले और पवित्र नगर जा कर बहुतों को दिखाई दिये।

54) शतपति और उसके साथ ईसा पर पहरा देने वाले सैनिक भूकम्प और इन सब घटनाओं को देख कर अत्यन्त भयभीत हो गये और बोल उठे, "निश्चय ही, यह ईश्वर का पुत्र था"।

55) वहाँ बहुत-सी नारियाँ भी दूर से देख रही थीं। वे ईसा की सेवा-परिचर्या करते हुए गलीलिया से उनके साथ-साथ आयी थीं।

56) उन में मरियम मगदलेना, याकूब और यूसुफ़ की माता मरियम और ज़ेबेदी के पुत्रों की माता थीं।

57) संध्या हो जाने पर अरिमथिया का एक धनी सज्जन आया। उसका नाम यूसूफ था और वह भी ईसा का शिष्य बन गया था।

58) उसने पिलातुस के पास जा कर ईसा का शव माँगा और पिलातुस ने आदेश दिया कि शव उसे सौंप दिया जाये।

59) यूसुफ ने शव ले जा कर उसे स्वच्छ छालटी के कफ़न में लपेटा

60) और अपनी कब्र में रख दिया, जिसे उसने हाल में चट्टान में खुदवाया था और वह कब्र के द्वार पर बड़ा पत्थर लुढ़का कर चला गया।

61) मरियम मगदलेना और दूसरी मरियम वहाँ कब्र के सामने बैठी हुइ थीं।

62) उस शुक्रवार के दूसरे दिन महायाजक और फ़रीसी एक साथ पिलातुस के यहाँ गये

63) और बोले, "श्रीमान्! हमें याद है कि उस धोखेबाज ने अपने जीवनकाल में कहा है कि मैं तीन दिन बाद जी उठूँगा।

64) इसलिए तीन दिन तक क़ब्र की सुरक्षा का आदेश दिया जाये। कहीं ऐसा न हो कि उसके शिष्य उसे चुरा कर ले जायें और जनता से कहें कि वह मृतकों में से जी उठा है यह पिछला धोखा तो पहले से भी बुरा होगा।’

65) पिलातुस ने कहा, "पहरा ले जाइए और जैसा उचित समझें, सुरक्षा का प्रबन्ध कीजिए"।

66) वे चले गये और उन्होंने पत्थर पर मुहर लगायी और पहरा बैठा कर कब्र को सुरक्षित कर दिया।

अथवा सुसमाचार : सन्त मत्ती 27:11-54

11) ईसा अब राज्यपाल के सामने खडे़ थे। राज्यपाल ने उन से पूछा, "क्या तुम यहूदियों के राजा हो?" ईसा ने उत्तर दिया, "आप ठीक कहते हैं"।

12) महायाजक और नेता उन पर अभियोग लगाते रहे, परन्तु ईसा ने कोई उत्तर नहीं दिया।

13) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, "क्या तुम नहीं सुनते कि ये तुम पर कितने अभियोग लगा रहे हैं?"

14) फिर भी ईसा ने उत्तर में एक भी शब्द नहीं कहा। इस पर राज्यपाल को बहुत आश्चर्य हुआ।

15) पर्व के अवसर पर राज्यपाल लोगों की इच्छानुसार एक बन्दी को रिहा किया करता था।

16) उस समय बराब्बस नामक एक कुख्यात व्यक्ति बन्दीगृह में था।

17) इसलिए पिलातुस ने इकट्ठे हुए लोगों से कहा, "तुम लोग क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए किसे को रिहा करूँ-बराब्बस को अथवा मसीह कहलाने वाले ईसा को?"

18) वह जानता था कि उन्होंने ईसा को ईर्ष्या से पकड़वाया है।

19) पिलातुल न्यायासन पर बैठा हुआ ही था कि उसकी पत्नी कहला भेजा, "उस धर्मात्मा के मामले में हाथ नहीं डालना, क्योंकि उसी के कारण मुझे आज स्वप्न में बहुत कष्ट हुआ"।

20) इसी बीच महायाजकों और नेताओं ने लोगों को यह समझाया कि वे बराब्बस को छुड़ायें और ईसा का सर्वनाश करें।

21) राज्यपाल ने फिर उन से पूछा, "तुम लोग क्या चाहते हो? दोनों में किसे तुम्हारे लिये रिहा करूँ?" उन्होंने उत्तर दिया, "बराब्बस को"।

22) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, "तो, मैं ईसा का क्या करूँ, जो मसीह कहलाते हैं?" सबों ने उत्तर दिया, "इसे क्रूस दिया जाये"।

23) पिलातुस ने पूछा, "क्यों? इसने कौन-सा अपराध किया है?" किन्तु वे और भी जारे से चिल्ला उठे, "इसे क्रूस दिया जाये!

24) जब पिलातुस ने देखा कि मेरी एक भी नहीं चलती, उलटे हंगामा होता जा रहा है, तो उसने पानी मँगा कर लोगों के सामने हाथ धोये और कहा, "मैं इस धर्मात्मा के रक्त का दोषी नहीं हूँ। तुम लोग जानो।"

25) और सारी जनता ने उत्तर दिया, "इसका रक्त हम पर और हमारी सन्तान पर!"

26) इस पर पिलातुस ने उनके लिए बराब्बस को मुक्त कर दिया और ईसा को कोडे़ लगवा कर क्रूस पर चढ़ाने सैनिकों के हवाले कर दिया।

27) इसके बाद राज्यपाल के सैनिकों ने ईसा को भवन के अन्दर ले जा कर उनके पास सारी पलटन एकत्र कर ली।

28) उन्होंने उनके कपडे़ उतार कर उन्हें लाल चोंग़ा पहनाया,

29) काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रखा और उनके दाहिने हाथ में सरकण्डा थमा दिया। तब उनके सामने घुटने टेक कर उन्होंने यह कहते हुए उनका उपहास किया, "यहूदियों के राजा, प्रणाम।"

30) वे उन पर थूकते और सरकण्डा छीन कर उनके सिर पर मारते थे।

31) इस प्रकार उनका उपवास करने के बाद, वे चोंग़ा उतार कर और उन्हें उनके निजी कपड़े पहना कर, क्रूस पर चढ़ाने ले चले।

32) शहर से निकलते समय उन्हें कुरेने निवासी सिमोन मिला और उन्होंने उसे ईसा का क्रूस उठा ले चलने के लिए बाध्य किया।

33) वे उस जगह पहुँचे, जो गोलगोथा अर्थात खोपड़ी की जगह कहलाती है।

34) वहाँ लोगों ने ईसा को पित्त मिली हुई अंगूरी पीने को दी। उन्होंने उसे चख तो लिया, लेकिन उसे पीना अस्वीकार किया।

35) उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया और चिट्ठी डाल कर उनके कपडे़ बाँट लिये।

36) इसके बाद वे उन पर पहरा बैठे।

37) ईसा के सिर के ऊपर दोषपत्र लटका दिया गया। वह इस प्रकार था- यह यहूदियों का राजा ईसा है।

38) ईसा के साथ ही उन्होंने दो डाकुओं को क्रूस पर चढ़ाया- एक को उनके दायें और दूसरे को उनके बायें।

39) उधर से आने-जाने वाले लोग ईसा की निन्दा करते और सिर हिलाते हुए

40) यह कहते थे, "ऐ मन्दिर ढाने वाले और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर बना देने वाले! यदि तू ईश्वर का पुत्र है, तो क्रूस से उतर आ"।

41) इसी तरह शास्त्रियों और नेताओं के साथ महायाजक भी यह कहते हुए उनका उपहास करते थे,

42) "इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता। यह तो इस्राएल का राजा है। अब यह क्रूस से उतरे, तो हम इस में विश्वास करेंगे।

43) इसे ईश्वर का भरोसा था। यदि ईश्वर इस पर प्रसन्न हो, तो इसे छुड़ाये। इसने तो कहा है- मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।"

44) जो डाकू ईसा के साथ क्रूस पर चढ़ाये गये थे, वे भी इसी तरह उनका उपहास करते थे।

45) दोपहर से तीसरे पहर तक पूरे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।

46) लगभग तीसरे पहर ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, "एली! एली! लेमा सबाखतानी?" इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?

47) यह सुन कर पास खडे़ लोगों में से कुछ कहते थे, "यह एलीयस को बुला रहा है।"

48) उन में से एक तुरन्त दौड़ कर पनसोख्ता ले आया और उसे खट्टी अंगूरी में डूबा कर सरकण्डे में लगा कर उसने ईसा को पीने को दिया।

49) कछ लोगों ने कहा, "रहने दो! देखें, एलीयस इसे बचाने आता है या नहीं"।

50) तब ईसा ने फिर ऊँचे स्वर से पुकार कर प्राण त्याग दिये।

51) उसी समय मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकडे़ हो गया, पृथ्वी काँप उठी, चट्टानें फट गयीं,

52) कब्रें खुल गयीं और बहुत-से मृत सन्तों के शरीर पुन-जीवित हो गये।

53) वे ईसा के पुनरुत्थान के बाद कब्रों से निकले और पवित्र नगर जा कर बहुतों को दिखाई दिये।

54) शतपति और उसके साथ ईसा पर पहरा देने वाले सैनिक भूकम्प और इन सब घटनाओं को देख कर अत्यन्त भयभीत हो गये और बोल उठे, "निश्चय ही, यह ईश्वर का पुत्र था"।

📚 मनन-चिंतन

आज से हम पवित्र सप्ताह में प्रवेश करते हैं जहॉं पर हम येसु का इस पृथ्वी पर मरण से पूर्व उनके अंतिम दिनों पर मनन और चिंतन करेंगेः उनका येरुसालेम में भव्य स्वागत, अंतिम ब्यालु, दुःख-पीड़ा, मृत्यु और पुनरुत्थान पर। पवित्र सप्ताह खजूर इतवार से शुरू हो जाता हैं जिसे हम सम्पूर्ण कलीसिया के साथ आज मना रहें हैं। आज हम दो परिद्श्यों को सुनते हैं। जहॉं एक परिदृश्य में येसु का येरुसालेम में लोगों द्वारा स्तुति, सम्मान, आदर और राजकीय स्वागत होता है वही दूसरी परिदृश्य में लोगो और शिष्यों द्वारा येसु का त्यागना, अस्विकार, तिरस्कार, अपमान, घोर-पीड़ा और मृत्यु के विषय में सुनते हैं।

लोगों का इस प्रकार का व्यवहार हमें मनुष्य जाति के स्वाभाव के विषय में बताती है। यह हमें बताती है कि जब जीवन में सबकुछ अच्छा चलता हैं तो बहुत सारे लोग हमारे साथ रहते हैं परन्तु जब हमारी स्थिति बदल जाती है तब हमारे साथ बहुत ही कम लोग रहते हैं जो हमारा साथ देते है। प्रभु येसु के अंतिम समय में बहुत कम लोग कलवारी तक थे।

हम लोग बहुत सारे तीर्थ यात्रा पर गये होंगे परन्तु यह सप्ताह हम सभी के लिए येसु के साथ एक यात्रा, विशेष रूप से येसु के साथ एक व्यक्तिगत यात्रा का सप्ताह हैं। आज हम अपने हाथों में खजूर की डालियॉं लेते हुए येसु को अपना राजा और मसीहा घोषित करते हैं और एक सच्चे प्रजा के समान उनके पीछे पीछे चलते है। परंतु क्या यात्रा बस आज तक ही सीमित रह जायेगी या हम अंत तक प्रभु के साथ बने रहेंगे। कहना का तात्पर्य यह है कि क्या हम प्रभु के इन पलों को मनन करने के लिए समय दे पायेंगे। क्या हम उन पाठों को पढ़कर येसु के साथ अधिक समय बिताते हुए उनके मन को समझने की कोशिश कर पायेंगे।

आईये इस सप्ताह में हम व्यक्तिगत रूप से ज्यादा से ज्यादा प्रभु के अंतिम क्षणों पर मनन चिंतन करें और यह विचार कर देंखे कि हम अपने जीवन में जन्म से लेकर अब तक कौन से परिदृश्य में ज्यादा थेः येसु के साथ या येसु से दूर। ईश्वर हमें सहीं समझ प्रदान करें जिससे हम उसका सदैव अनुकरण करें। आमेन

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Today we enter into the Holy Week where we will reflect and meditate upon the last days of Jesus on Earth: His glorious entry, last supper, passion, death and Resurrection. Holy week starts with Palm Sunday which we are celebrating today in union with the Universal Church. Today we hear about two different scenarios. At one scenario there is praise, honour, respect and kingly welcome of Jesus by the people of Jerusalem, on the other hand we hear about the denial, rejection, humiliation, passion, and death of Jesus by the disciples and the crowd.

The attitude of the people tells the very nature of human being. It tells about the normal tendencies that when everything is good all will be with us but when everything turns to be the other way then there will be very few in support of us. In the case of Jesus there were very few who were there till the calvary.

We might have gone to many pilgrimages. But this week is the week of journey with Jesus, a personal journey with Jesus. Today carrying palms in our hands we declare Jesus as our King and Messiah and follow him as true people. But will this journey will remain till today or will it last till the end with Jesus. It means to say will we able to spend time to meditate on his last moments? Will we able to read those passages and spend more time meditating on it to understand Jesus’ mind and pain at these stages?

Let’s spend more time personally in meditating these incidents of Jesus and reflect in our life from the moment of our birth till now, where were we; with Jesus or away from Jesus. May God give us true understanding so that we may always follow him. Amen

-Fr. Dennis Tigga


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Praise the Lord!