चक्र ’अ’ - पास्का का तीसरा इतवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 2:14,22-33

14) पेत्रुस ने ग्यारहो के साथ खड़े हो कर लोगों को सम्बोधित करते हुए ऊँचे स्वर से कहा, "यहूदी भाइयो और येरूसालेम के सब निवासियो! आप मेरी बात ध्यान से सुनें और यह जान लें कि

22) इस्राएली भाइयो! मेरी बातें ध्यान से सुनें! आप लोग स्वयं जानते हैं कि ईश्वर ने ईसा नाज़री के द्वारा आप लोगों के बीच कितने महान् कार्य, चमत्कार एवं चिन्ह दिखाये हैं। इस से यह प्रमाणित हुआ कि ईसा ईश्वर की ओर से आप लोगों के पास भेजे गये थे।

23) वह ईश्वर के विधान तथा पूर्वज्ञान के अनुसार पकड़वाये गये और आप लोगों ने विधर्मियों के हाथों उन्हें क्रूस पर चढ़वाया और मरवा डाला है।

24) किन्तु ईश्वर ने मृत्यु के बन्धन खोल कर उन्हें पुनर्जीवित किया। यह असम्भव था कि वह मृत्यु के वश में रह जायें,

25) क्योंकि उनके विषय में दाऊद यह कहते हैं - प्रभु सदा मेरी आँखों के सामने रहता है। वह मेरे दाहिने विराजमान है, इसलिए मैं दृढ़ बना रहता हूँ।

26) मेरा हृदय आनन्दित है, मेरी आत्मा प्रफुल्लित है और मेरा शरीर भी सुरक्षित रहेगा;

27) क्योंकि तू मेरी आत्मा को अधोलोक में नहीं छोड़ेगा, तू अपने भक्त को क़ब्र में गलने नहीं देगा।

28) तूने मुझे जीवन का मार्ग दिखाया है। तेरे पास रह कर मुझे परिपूर्ण आनन्द प्राप्त होगा।

29) भाइयो! मैं कुलपति दाऊद के विषय में। आप लोगों से निस्संकोच यह कह सकता हूँ कि वह मर गये और कब्र में रखे गये। उनकी कब्र आज तक हमारे बीच विद्यमान है।

30) दाऊद जानते थे कि ईश्वर ने शपथ खा कर उन से यह कहा था कि मैं तुम्हारे वंशजों में एक व्यक्ति को तुम्हारे सिंहासन पर बैठाऊँगा;

31) इसलिये नबी होने के नाते भविष्य में होने वाला मसीह का पुनरुत्थान देखा और इनके विषय में कहा कि वह अधोलोक में नहीं छोड़े गये और उनका शरीर गलने नहीं दिया गया।

32) ईश्वर ने इन्हीं ईसा नामक मनुष्य को पुनर्जीवित किया है-हम इस बात के साक्षी हैं।

33) अब वह ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं। उन्हें प्रतिज्ञात आत्मा पिता से प्राप्त हुआ और उन्होंने उसे हम लोगों को प्रदान किया, जैसा कि आप देख और सुन रहे हैं।

दूसरा पाठ : 1 पेत्रुस 1:17-21

17) यदि आप उसे ’पिता’ कह कर पुकारते हैं, जो पक्षपात किये बिना प्रत्येक मनुष्य का उसके कर्मों के अनुसार न्याय करता है, तो जब तक आप यहाँ परदेश में रहते हैं, तब तक उस पर श्रद्धा रखते हुए जीवन बितायें।

18) आप लोग जानते हैं कि आपके पूर्वजों से चली आयी हुई निरर्थक जीवन-चर्या से आपका उद्धार सोने-चांदी जैसी नश्वर चीजों की कीमत पर नहीं हुआ है,

19) बल्कि एक निर्दोष तथा निष्कलंक मेमने अर्थात् मसीह के मूल्यवान् रक्त की कीमत पर।

20) वह संसार की सृष्टि से पहले ही नियुक्त किये गये थे, किन्तु समय के अन्त में आपके लिए प्रकट हुए।

21) आप लोग अब उन्हीं के द्वारा ईश्वर में विश्वास करते हैं। ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया और महिमान्वित किया; इसलिए आपका विश्वास और आपका भरोसा ईश्वर पर आधारित है।

सुसमाचार : लूकस 24:13-35

13) उसी दिन दो शिष्य इन सब घटनाओं पर बातें करते हुए एम्माउस नामक गाँव जा रहे थे। वह येरूसालेम से कोई चार कोस दूर है।

14) वे आपस में बातचीत और विचार-विमर्श कर ही रहे थे

15) कि ईसा स्वयं आ कर उनके साथ हो लिये,

16) परन्त शिष्यों की आँखें उन्हें पहचानने में असमर्थ रहीं।

17) ईसा ने उन से कहा, "आप लोग राह चलते किस विषय पर बातचीत कर रहे हैं?" वे रूक गये। उनके मुख मलिन थे।

18) उन में एक क्लेओपस-ने उत्तर दिया, "येरूसालेम में रहने वालों में आप ही एक ऐसे हैं, जो यह नहीं जानते कि वहाँ इन दिनों क्या-क्या हुआ है’।

19) ईसा ने उन से कहा, "क्या हुआ है?" उन्होंने उत्तर दिया, "बात ईसा नाज़री की है वे ईश्वर और समस्त जनता की दृष्टि में कर्म और वचन के शक्तिशाली नबी थे।

20) हमारे महायाजकों और शासकों ने उन्हें प्राणदण्ड दिलाया और क्रूस पर चढ़वाया।

21) हम तो आशा करते थे कि वही इस्राएल का उद्धार करने वाले थे। यह आज से तीन दिन पहले की बात है।

22) यह सच है कि हम में से कुछ स्त्रियों ने हमें बड़े अचम्भे में डाल दिया है। वे बड़े सबेरे क़ब्र के पास गयीं

23) और उन्हें ईसा का शव नहीं मिला। उन्होंने लौट कर कहा कि उन्हें स्वर्गदूत दिखाई दिये, जिन्होंने यह बताया कि ईसा जीवित हैं।

24) इस पर हमारे कुछ साथी क़ब्र के पास गये और उन्होंने सब कुछ वैसा ही पाया, जैसा स्त्रियों ने कहा था; परन्तु उन्होंने ईसा को नहीं देखा।"

25) तब ईसा ने उन से कहा, "निर्बुद्धियों! नबियों ने जो कुछ कहा है, तुम उस पर विश्वास करने में कितने मन्दमति हो !

26) क्या यह आवश्यक नहीं था कि मसीह वह सब सहें और इस प्रकार अपनी महिमा में प्रवेश करें?"

27) तब ईसा ने मूसा से ले कर अन्य सब नबियों का हवाला देते हुए, अपने विषय में जो कुछ धर्मग्रन्थ में लिखा है, वह सब उन्हें समझाया।

28) इतने में वे उस गाँव के पास पहुँच गये, जहाँ वे जा रहे थे। लग रहा था, जैसे ईसा आगे बढ़ना चाहते हैं।

29) शिष्यों ने यह कह कर उन से आग्रह किया, "हमारे साथ रह जाइए। साँझ हो रही है और अब दिन ढल चुका है" और वह उनके साथ रहने भीतर गये।

30) ईसा ने उनके साथ भोजन पर बैठ कर रोटी ली, आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर उन्हें दे दिया।

31) इस पर शिष्यों की आँखे खुल गयीं और उन्होंने ईसा को पहचान लिया ... किन्तु ईसा उनकी दृष्टि से ओझल हो गये।

32) तब शिष्यों ने एक दूसरे से कहा, हमारे हृदय कितने उद्दीप्त हो रहे थे, जब वे रास्ते में हम से बातें कर रहे थे और हमारे लिए धर्मग्रन्थ की व्याख्या कर रहे थे!"

33) वे उसी घड़ी उठ कर येरूसालेम लौट गये। वहाँ उन्होंने ग्यारहों और उनके साथियों को एकत्र पाया,

34) जो यह कह रहे थे, "प्रभु सचमुच जी उठे हैं और सिमोन को दिखाई दिये हैं"।

35) तब उन्होंने भी बताया कि रास्ते में क्या-क्या हुआ और उन्होंने ईसा को रोटी तोड़ते समय कैसे पहचान लिया।

📚 मनन-चिंतन

आज पास्का का तीसरा इतवार है और आज के दिन हमारे समक्ष एम्माउस की ओर दो शिष्यों की यात्रा का प्रसिद्ध पाठ है। इस यात्रा में येसु उन दो शिष्यों को अपने विषय में प्रकट करते है। यह हमें येसु के मनोस्थिति को बताती है कि किस प्रकार येसु अपने शिष्यों को उनके पुनरुत्थान और धर्मग्रंथ को समझने हेतु येसु प्रयासरत थे। येसु के पुनरुत्थान के बाद उनके पुनरुत्थान पर विश्वास करना उस प्रतिज्ञात सहायक पवित्र आत्मा को ग्रहण करने के लिए बहुत ही आवश्यक था।

येसु के दुखभोग, मरण एवं पुनरुत्थान से पूर्व येसु ने विभिन्न जगह पर अपने शिष्यों के साथ यात्रा करी होगी। जैसे कि येरुसालेम की यात्रा, बेथनी की यात्रा, गलीलिया की यात्रा, कफरनाऊम की यात्रा, पर्वत की यात्रा, नाव पर यात्रा इत्यादि। परंतु दो शिष्यों के साथ एम्माउस की यात्रा कुछ विशेष ही है। यह केवल उन दो शिष्यों की बाहरी यात्रा के विषय में ही नहीं परन्तु आंतरिक यात्रा के विषय में भी बताता है। यह यात्रा ईश्वर योजना के प्रति उलझन से स्पष्टता की ओर यात्रा है तथा सांसारिक से आध्यात्मिकता की ओर की यात्रा है तथा येसु को पहचानने की यात्रा है।

यह यात्रा की शुरुआत उन दो शिष्यों के द्वारा होती है जो येसु की सभी यादों को अपने हृदय में रखते हुए येरुसालेम से एम्माउस की ओर करते है। वे शायद अपने उस यात्रा को विचार विमर्श करते है जब वे येसु से पहली बार मिले शायद किसी चमत्कार या शिक्षा के अवसर पर या किसी अन्य घटना के द्वारा और येसु से मिलने के बाद वे उनके अनुयायी बन जाते है, उनके पीछे हो लेते है, उनके दिव्यों वचनों को सुनते है उनके सभी कार्यो और चमत्कारों का देखते है। इन सब से उनको येसु पर विश्वास हो जाता है कि यह वही मसीहा जिसके बारे में लिखा गया है जो उन्हे रोमियों के हाथों से छुड़ायेगा। अभी तक येसु के विषय में उनका यही मानना था कि येसु रोमी साम्राज्य को परास्त कर इस्राएलियों को रोमी शासन से मुक्त करेगा। उनके विचार से उन्हे बचाने के लिए यही ईश्वर की योजना थी।

परन्तु उनकी अपेक्षाएॅं तब चूर चूर हो जाती है जब येसु कू्रस पर मर जाते है। इस पर वे ईश्वर की योजना को समझ नहीें पाते है। वे सोचते है कि यदि ईश्वर ने येसु को मसीहा के रूप में भेजा तब क्यो येसु को रोमी शासन से मुक्त किये बिना मरना पड़ा। इसके अतिरिक्त वे उन महिलायों की बातों को नहीं समझ पा रहें थे जिन्होने कहा येसु जीवित है। इन सब घटनाओं के द्वारा वे उलझन भरें मन से एम्माउस की ओर यात्रा कर रहे थे।

इस बीच येसु उनके साथ हो लेते है और उनकी बातचीत और विचार-विमर्श में शामिल हो जाते है। येसु उसी समय उनकी ऑंखों को नहीं खोलते परन्तु वे उन्हे धर्मग्रन्थ की बाते को याद करवाते है जिससे जो कुछ धर्मग्रन्थ में उनके विषय में लिखा है उसे वे समझ पायें तथा जान जाये कि वे उन्हें रोमी साम्राज्य से बचाने नहीं परंतु शैतान की चंगुल से बचाने आये है। धर्मग्रन्थ को समझाने के बाद जब वे उनके साथ भोजन पर बैठ कर रोटी ली, आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर उन्हे दे दिया। इस पर शिष्यों की ऑंखे खुल गयी और उन्होने ईसा को पहचान लिया। यह वह क्षण था जब न केवल उनकी शारीरिक ऑंखे खुल गयी परन्तु उनकी आध्यात्मिक ऑंखे भी खुल गयी तथा उनका ईश्वरीय योजना के प्रति सभी उलझन और सन्देह दूर हो गया और इस अनुभव के साथ वे अन्य शिष्यों को यह बताने के लिए वापस येरुसालेम की ओर जाते है।

यह यात्रा बाहरी से ज्यादा आन्तरिक यात्रा थी; वह यात्रा जिसने उनकी आध्यात्मिक ऑंखें खोल दी कि येसु न केवल यहुदियों को रोमी शासन से बचाने परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति को शैतान के चंगुल से बचाने के लिए आये थे।

दो शिष्यों की उस एम्माउस यात्रा से कही अधिक जो उनके भीतर हुआ वो हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके हृदय उद्दीप्त हो रहे थे तथा उनकी आध्यात्मिक ऑंखे खुल गयी थी। इस संसार में हम हर समय कही न कही जा रहें है या तो एक जगह से दूसरी जगह या फिर एक चीज़ से दूसरी चीज़ की ओर परन्तु इन सबसे परे हमे उस आन्तरिक यात्रा करने की जरूरत है जिसे उन दो शिष्यों ने पूरी की। इस आतंरिक यात्रा में सफर करने के लिए हमे हमेशा अपने जीवन में येसु को साथ रहने के लिए उसे आमंत्रित करने की जरूरत है; क्यांेकि अगर हम अकेले ही यह यात्रा करेंगे तो हम उलझन तथा संासारिकता के स्तर तक ही सीमित रहेंगे। परन्तु यदि हम येसु के साथ यात्रा करेंगे तो वह हमें धर्मग्रन्थ का मर्म समझायेगा तथा रोटी तोड़ते समय हमारी ऑंखों को खोलते हुए उसे पहचानने में मदद करेगा।

प्रिय दोस्तों पवित्र मिस्सा बलिदान कुछ और नहीं परन्तु वही येसु के साथ आन्तरिक यात्रा है जहॉं पर येसु हमें पाठों एवं उपदेशों द्वारा धर्मग्रन्थ का अर्थ समझाते है तथा पवित्र यूख्रीस्त में उन्हें पहचानने में हमारी मदद करते हैं। आईये जब कभी हम पवित्र मिस्सा बलिदान में भाग लें तब हम हमेशा येसु को आंमत्रित करें जो सदा यूख्रीस्तीय समारोह में हमारा साथ देने के लिए तत्पर रहता है; जिससे की हमारा मिस्सा बलिदान में सहभागिता तैयारी भरा तथा अर्थपूर्ण हो। आमेन

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Today is 3rd Sunday of Easter, and on this Sunday we have the famous passage of the Emmaus Journey by the two disciples. In this journey Jesus reveals himself to the two disciples. This tells the mind of Jesus that how Jesus longed for his disciples to understand his resurrection and scriptures. After the resurrection it was very important to belief in the resurrection in order to receive the Holy Spirit which was promised by Jesus.

Before the passion, death and resurrection of Jesus, Jesus might have journeyed with his disciples to many places; journey to Jerusalem, journey to Bethany, journey to Galilee, Journey to Capernaum, journey to mountains, journey in boat, and so on. But this journey to Emmaus with the two disciples is something very special. It tells not only about the outward journey but also the inward journey of the two disciples. This journey is from confusion to clarity of God’s plan as well as journey from worldly understanding to spiritual understanding and the journey to recognize Jesus.

Journey starts with the two disciples walking from Jerusalem to Emmaus with all the experiences in their hearts about Jesus. They may be discussing about how their journey started with Jesus when they came to know him may be through miracle or teaching or by some incident and then they started following him, listening to his divine words seeing all the miracles and wonders performed by Jesus. With all this they started to have faith in him that He is that promised Messiah who was to come to deliver them from the bondage of Romans. Till now this was their idea about Jesus that Jesus will deliver them from Roman by overthrowing Roman Empire. For them this was the God’s plan to save them.

But their expectation was shattered when Jesus died on the cross. They were not able to understand God’s plan. They thought if God send Jesus as the Messiah then why he has to die without liberating the people of Israel from Romans. All the more they did not understand what the women told about seeing the Risen Jesus. With all this confusion in mind they were walking towards Emmaus.

Jesus gets along with them and joins them in discussion. Jesus did not open their eyes at once but he allowed them to go through the Scriptures so that they may understand what ever is written in the scripture is about him the promised Messiah and that He came not to deliver them from Romans but to deliver them from the hands of evil. After all the explanation about the scriptures when they sat to have meal Jesus took the bread, blessed and broke it, and gave it to them. Then their eyes were open and they recognized him. This was the moment when not only their physical eyes but their spiritual eyes were also opened and all their confusion and doubts with regard to God’s plan came to clarity and with this they went back to Jerusalem to tell these things to the other disciples.

This journey was more inwardly than outwardly; that journey which has opened their spiritual eyes that Jesus not only came to save the Jewish from Roman but to save whole humanity from the clutches of evil.

Than two disciples going toward Emmaus the things that happen inside them is much more important for us. Their hearts were burning and their spiritual eye opened. In this world we are on move all the time from one place to another or from one thing to the other but more than this we need to go through this inner journey which the two disciples went through. To go through the inner journey we need to always invite Jesus in our lives to accompany us in the inner journey; because if we walk alone we will be remaining confused and in worldly level. But if we walk with him he will explain us the scriptures and will help us to open our eyes and to recognize him during the time of breaking of the bread.

Dear friends Holy Eucharistic Celebration is the nothing but that same inner journey with Jesus where he explains us the meaning of the scriptures and help us to recognize him during the breaking of bread. Whenever we participate in this Holy Eucharistic celebration lets always prepare ourselves by inviting Jesus who is ever ready to accompany us in the celebration. Amen

-Fr. Dennis Tigga


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Praise the Lord!