चक्र ’अ’ - पास्का का चौथा इतवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित . 2:14, 36-41

14) पेत्रुस ने ग्यारहो के साथ खड़े हो कर लोगों को सम्बोधित करते हुए ऊँचे स्वर से कहा,

36) "इस्राएल का सारा घराना यह निश्चित रूप से जान ले कि जिन्हें आप लोगों ने क्रूस पर चढ़ाया ईश्वर ने उन्हीं ईसा को प्रभु भी बना दिया है और मसीह भी।"

37) यह सुन कर वे मर्माहत हो गये और उन्होंने पेत्रुस तथा अन्य प्रेरितों से कहा, "भाइयों! हमें क्या करना चाहिए?"

38) पेत्रुस ने उन्हें यह उत्तर दिया, "आप लोग पश्चाताप करें। आप लोगों में प्रत्येक अपने-अपने पापों की क्षमा के लिए ईसा के नाम पर बपतिस्मा ग्रहण करे। इस प्रकार आप पवित्र आत्मा का वरदान प्राप्त करेंगे;

39) क्योंकि वह प्रतिज्ञा आपके तथा आपकी सन्तान के लिए है, और उन सबों के लिए, जो भी दूर हैं और जिन्हें हमारा प्रभु-ईश्वर बुलाने वाला है।"

40) पेत्रुस ने और बहुत-सी बातों द्वारा साक्ष्य दिया और यह कहते हुए उन से अनुरोध किया कि आप लोग अपने को इस विधर्मी पीढ़ी से बचाये रखें।

41) जिन्होंने पेत्रुस की बातों पर विश्वास किया, उन्होंने बपतिस्मा ग्रहण किया। उस दिन लगभग तीन हजार लोग शिष्यों में सम्मिलित हो गये।

दूसरा पाठ : 1 पेत्रुस 2:20-25

20) यदि अच्छी तरह काम करने के बाद भी आप को दुःख भोगना पड़ता है आर आप उसे धैर्य से सहते हैं, तो यह ईश्वर की दृष्टि में पुण्य-कर्म है।

21) इसलिए तो आप बुलाये गये हैं, क्योंकि मसीह ने आप लोगों के लिए दुःख भोगा और आप को उदाहरण दिया, जिससे आप उनका अनुसरण करें।

22) उन्होंने कोई पाप नहीं किया और उनके मुख से कभी छल-कपट की बात नहीं निकली।

23) जब उन्हें गाली दी गयी, तो उन्होंने उत्तर में गाली नहीं दी और जब उन्हें सताया गया, तो उन्होंने धमकी नहीं दी। उन्होंने अपने को उस पर छोड़ दिया, जो न्यायपूर्वक विचार करता है।

24) वह अपने शरीर में हमारे पापों को क्रूस के काठ पर ले गये जिससे हम पाप के लिए मृत हो कर धार्मिकता के लिए जीने लगें। आप उनके घावों द्वारा भले-चंगे हो गये हैं।

25) आप लोग भेड़ों की तरह भटक गये थे, किन्तु अब आप अपनी आत्माओं के चरवाहे तथा रक्षक के पास लौट आये हैं।

सुसमाचार : योहन 10:1-10

1) "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो फाटक से भेड़शाला में प्रवेश नहीं करता, बल्कि दूसरे रास्ते से चढ़ कर आता है, वह चोर और डाकू है।

2) जो फाटक से प्रवेश करता है, वही भेड़ों का गड़ेरिया है

3) और उसके लिए दरवान फाटक खोल देता है। भेड़ें उसकी आवाज पहचानती हैं। वह नाम ले-ले कर अपनी भेड़ों को बुलाता और बाहर ले जाता है।

4) अपनी भेड़ों को बाहर निकाल लेने के बाद वह उनके आगे-आगे चलता है और वे उसके पीछे-पीछे आती हैं, क्योंकि वे उसकी आवाज पहचानती हैं।

5) वे अपरिचित के पीछे-पीछे नहीं चलेंगी, बल्कि उस से भाग जायेंगी; क्योंकि वे अपरिचितों की आवाज नहीं पहचानतीं।"

6) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, किन्तु वे नहीं समझे कि वे उन से क्या कह रहे हैं।

7) ईसा ने फिर उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - भेड़शाला का द्वार मैं हूँ।

8) जो मुझ से पहले आये, वे सब चोर और डाकू हैं; किन्तु भेड़ों ने उनकी नहीं सुनी।

9) मैं ही द्वार हूँ। यदि कोई मुझ से हो कर प्रवेश करेगा, तो उसे मुक्ति प्राप्त होगी। वह भीतर-बाहर आया-जाया करेगा और उसे चरागाह मिलेगा।

10) "चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु ने अपने और लोगों के सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए कई तुलनात्मक उदाहरण एवं दृष्टांत दिए हैं। जैसे भेड़ें और भला चरवाह, दाख़लता और डालियाँ (योहन १५:५), राजा और प्रजा, भेड़शाला और भेड़शाला का द्वार आदि। पुराने व्यवस्थान में भी ईश्वर और उनकी चुनी हुई प्रजा के सम्बन्ध को प्रकट करने के लिए ऐसे ही अनेक उदाहरण दिये गए हैं। पुराने व्यवस्थान में ही सबसे पहले हमें चरवाहे और भेड़ों का उदाहरण मिलता है (देखें उत्पत्ति ग्रंथ ४९:२४, स्तोत्र ग्रंथ २३, एजेकियल ३४) जहाँ ईश्वर को चरवाह और लोगों को भेड़ें कहा गया है। आज का यह सुसमाचार हमें ईश्वर के साथ सम्बन्ध को इसी उदाहरण के साथ समझने के लिए प्रेरित करता है।

दो व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध में कुछ जिम्मेदारियाँ और कुछ कर्तव्य होते हैं। अगर वह सम्बन्ध निरंतर जारी रखना है तो दोनों तरफ़ के लोगों को अपने-अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का निर्वहन बख़ूबी करना पड़ेगा अन्यथा वह सम्बन्ध ख़तरे में पड़ सकता है। प्रभु येसु भला चरवाह हैं और हम उनकी अपनी भेड़ें हैं। आख़िर चरवाहे और भेड़ों के इस आपसी सम्बन्ध की क्या विशेषताएँ हैं और प्रभु के भेड़ें होने के नाते इस सम्बन्ध को बनाए रखने के लिए हमारी क्या भूमिका हो सकती है?

प्रभु येसु द्वारा भेड़ों से हमारी तुलना करने के कई कारण हैं- जैसे की भेड़ें हमेशा एक साथ रहती हैं, अपने चरवाहे की आवाज़ सुनती हैं, बिना चरवाहे के अपने आप कहीं भी नहीं जा सकती आदि। भेड़ों के स्वभाव का अध्ययन कर यह पता चला है कि कोई भी भेड़ अपने झुंड से बिछुड़ कर अकेली नहीं रह सकती। एक भेड़ को अगर अकेली रखो तो शायद वह जल्दी ही मर जाएगी। शायद यही कारण है कि चरवाह एक भेड़ के खो जाने पर अन्य निनयानब्बे भेड़ों को छोड़कर उस अकेली भेड़ की खोज में जाता है (देखें लूकस १५:४-६)। उसी तरह से एक ख्रिस्तिय व्यक्ति को अपने समुदाय के साथ रहना है यही प्रभु येसु चाहते हैं।एक दूसरे से प्यार करना है जैसे प्रभु येसु ने हमें किया है। ‘अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो’ ईश्वर की यह आज्ञा शायद इसी में चरितार्थ होती है कि हम सब एक रहें और एक दूसरे से सदा जुड़े रहें।

भेड़ों के स्वभाव की बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वे सदा चरवाहे की आवाज़ सुनती हैं। बिना चरवाहे के भेड़ें कहीं भी नहीं जा सकती, अपने लिए कोई भी राह नहीं ढूँढ सकतीं। भेड़ें चरवाहे की आवाज़ पहचान कर उसके पीछे-पीछे चलती हैं। आज हम बड़े चुनौतीपूर्ण संसार में जी रहे हैं, जहाँ नई-नई सोच, नई-नई शिक्षाएँ, विभिन्न विचार हमें अपने पथ से भ्रमित कर सकते हैं। नैतिकता की नई और आधुनिक व्याख्या हमें ग़लत राह पर ले जा सकती है। नई सांसारिक शिक्षाएँ हमें विनाश की ओर ले सकती हैं। हमें दुनिया की भ्रमित बातों पर ना चलते हुए अपने चरवाहे की वाणी पर कान देना है। उस चरवाहे की आवाज़ हम पवित्र वचन में सुन सकते हैं, अपनी धर्मशिक्षा में सुन सकते हैं, कलिसिया की शिक्षाओं में सुन सकते हैं, संतो के जीवन में देख सकते हैं। क्या हम अपने चरवाहे की आवाज़ पहचानते और सुनते हैं?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Jesus has given many comparisons and parables to express and explain his relationship with us. For example Sheep and shepherd, vine and branches (Jn 15:5) king and the people, sheepfold and the gate of sheepfold etc. We first find such example of God’s people being the sheep and God being the shepherd in Old Testament (Cf Gen. 49:24, Ps. 23, Eze. 34). Today’s gospel invites us to reflect our relationship with God as sheep and the shepherd.

The relationship between two people demands certain duties and responsibilities to be fulfilled. If a relationship has to continue there must be execution of these responsibilities duties on behalf of both the parties in relation or else the relationship cannot continue for long. Jesus is the Good Shepherd and we are his beloved sheep. What is the speciality of this relationship between sheep and shepherd and being sheep what could our role in continuing this relationship with our eternal shepherd?

Jesus calling us sheep could be understood in different ways - sheep always remain with their herd, they hear the voice of the shepherd and follow it, they cannot find their way on their own without the shepherd. Research about the social behaviour of the sheep has shown that a sheep cannot survive alone if t is separated from its herd. A shepherd cannot rear a single sheep, because a single cannot survive on its own, it needs the herd, her own group. Perhaps that’s why a shepherd goes in search of one single sheep leaving other ninety-nine unguarded, because that single one is sure to die if left alone. (Cf Luke 15:4-6). Jesus wants that we are called to remain united to our flock. We are called to love one another as Jesus has loved us. God’s commandment to love our neighbour as ourselves is fulfilled when we remain united to each other.

One of the very remarkable thing in the behaviour of sheep is also that they listen to the voice of the shepherd. The sheep cannot find their way without the shepherd, they cannot choose right path for themselves. Sheep listen to the voice of the shepherd and follow him. We live in a very challenging world today, where modern thinking, new worldly teachings can mislead us from the right path. We can be easily driven away with new and selfish understanding of morality and goodness. Worldly ways can lead us to total destruction of our spirit and soul as a Christian. We need to avoid misleading doctrines and teachings and listen to the voice of our Shepherd and follow him. We can hear the voice of our shepherd in the Word of God, in the Catechism and teachings of the Church and we can see it in the lives of hundreds and thousands of saints. Do we listen and recognise the voice of shepherd?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!