चक्र ’अ’ - पास्का का पाँचवाँ इतवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 6:1-7

1) उन दिनों जब शिष्यों की संख्या बढ़ती जा रही थी, तो यूनानी-भाषियों ने इब्रानी-भाषियों के विरुद्ध यह शिकायत की कि रसद के दैनिक वितरण में उनकी विधवाओं की उपेक्षा हो रही है।

2) इसलिए बारहों ने शिष्यों की सभा बुला कर कहा, "यह उचित नहीं है कि हम भोजन परोसने के लिए ईश्वर का वचन छोड़ दे।

3) आप लोग अपने बीच से पवित्र आत्मा से परिपूर्ण सात बुद्धिमान् तथा ईमानदार व्यक्तियों का चुनाव कीजिए। हम उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त करेंगे,

4) और हम लोग प्रार्थना और वचन की सेवा में लगे रहेंगे।"

5) यह बात सबों को अच्छी लगी। उन्होंने विश्वास तथा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण स्तेफनुस के अतिरिक्त फिलिप, प्रोख़ोरुस, निकानोर, तिमोन, परमेनास और यहूदी धर्म में नवदीक्षित अन्ताखिया-निवासी निकोलास को चुना

6) और उन्हें प्रेरितों के सामने उपस्थित किया। प्रेरितों ने प्रार्थना करने के बाद उन पर अपने हाथ रखे।

7) ईश्वर का वचन फैलता गया, येरूसालेम में शिष्यों की संख्या बहुत अधिक बढ़ने लगी और बहुत-से याजकों ने विश्वास की अधीनता स्वीकार की।

दूसरा पाठ : 1 पेत्रुस 2:4-9

4) प्रभु वह जीवन्त पत्थर हैं, जिसे मनुष्यों ने तो बेकार समझ कर निकाल दिया, किन्तु जो ईश्वर द्वारा चुना हुआ और उसकी दृष्टि में मूल्यवान है।

5) उनके पास आयें और जीवन्त पत्थरों का आध्यात्मिक भवन बनें। इस प्रकार आप पवित्र याजक-वर्ग बन कर ऐसे आध्यात्मिक बलिदान चढ़ा सकेंगे, जो ईसा मसीह द्वारा ईश्वर को ग्राह्य होंगे।

6) इसलिए धर्मग्रन्थ में यह लिखा है- मैं सियोन में एक चुना हुआ मूल्यवान् कोने का पत्थर रखता हूँ और जो उस पर भरोसा रखता है, उसे निराश नहीं होना पड़ेगा।

7) आप लोगों लिए, जो विश्वास करते हैं, वह पत्थर मूल्यवान है। जो विश्वास नहीं करते, उनके लिए धर्मग्रन्थ यह कहता है- कारीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है,

8) ऐसा पत्थर जिस से वे ठोकर खाते हैं, ऐसे चट्टान जिस पर वे फिसल कर गिर जाते हैं। वे वचन में विश्वास करना नहीं चाहते, इसलिए वे ठोकर खा कर गिर जाते हैं। यही उनका भाग्य है।

9) परन्तु आप लोग चुने हुए वंश, राजकीय याजक-वर्ग, पवित्र राष्ट्र तथा ईश्वर की निजी प्रजा हैं, जिससे आप उसके महान् कार्यों का बखान करें, जो आप लोगों को अन्धकार से निकाल कर अपनी अलौकिक ज्योति में बुला लाया।

सुसमाचार : योहन 14:1-12.

1) तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!

2) मेरे पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो मैं तुम्हें बता देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये स्थान का प्रबंध करने जाता हूँ।

3) मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।

4) मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ का मार्ग जानते हो।

5 थोमस ने उन से कहा, "प्रभु! हम यह भी नहीं जानते कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वहाँ का मार्ग कैसे जान सकते हैं?"

6) ईसा ने उस से कहा, "मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। मुझ से हो कर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।"

7) यदि तुम मुझे पहचानते हो, तो मेरे पिता को भी पहचानोगे। अब तो तुम लोगों ने उसे पहचाना भी है और देखा भी है।"

8) फिलिप ने उन से कहा, "प्रभु! हमें पिता के दर्शन कराइये। हमारे लिये इतना ही बहुत है।"

9) ईसा ने कहा, "फिलिप! मैं इतने समय तक तुम लोगों के साथ रहा, फिर भी तुमने मुझे नहीं पहचाना? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को भी देखा है। फिर तुम यह क्या कहते हो- हमें पिता के दर्शन कराइये?"

10) क्या तुम विश्वास नहीं करते कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में हैं? मैं जो शिक्षा देता हूँ वह मेरी अपनी शिक्षा नहीं है। मुझ में निवास करने वाला पिता मेरे द्वारा अपने महान कार्य संपन्न करता है।

11) मेरी इस बात पर विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में हैं, नहीं तो उन महान कार्यों के कारण ही इस बात पर विश्वास करो।

12) मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ जो मुझ में सिवश्वास करता है, वह स्वयं वे कार्य करेगा, जिन्हें मैं करता हूँ। वह उन से भी महान कार्य करेगा। क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हूँ।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु कहते हैं, “मार्ग, सत्य और जीवन मैं हूँ, मुझसे होकर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।” जब हम मार्ग के बारे में सोचते हैं, तो तीन चीज़ें हमारे मन में आती हैं- एक वह स्थान जहाँ हम वर्तमान में हैं, यानि कि आने वाले मार्ग का आरम्भ।दूसरा मार्ग की मंज़िल, आख़िर वह मार्ग हमें कहाँ ले जाता है। और तीसरी बात है - मार्ग का प्रकार - चौड़ा या संकरा मार्ग, कठिन या सरल मार्ग। अगर हम अपने व्यक्तिगत जीवन में नज़र डालें तो कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने अपनी आख़िरी मंज़िल पा ली हो या जो किसी न किसी मार्ग पर ना चल रहा हो। हम जो कुछ भी करते हैं, उसका परिणाम हमें कहीं न कहीं लेकर जाता है। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है। हमारी सबकी मंज़िल है हमारा सृष्टिकर्ता पिता, उन्हें पाना ही हमारा अंतिम उद्देश्य है। हम वहीं से आए हैं और वहीं ईश्वर के पास लौट जाना है। कोई भी इसका सामना करने नहीं बच सकता है। सवाल यह है कि हमें पिता के पास पहुँचना कैसे है?

हमारे पाप हमें ईश्वर से दूर करते हैं, और इसलिये पश्चताप और पापों की क्षमा ही हमारा ईश्वर के पास पहुँचने का उपाय और तरीक़ा है।हमारे पापों की क्षमा प्रभु येसु ने क्रूस पर अपना बलिदान देकर कर दी है और इसलिए प्रभु येसु के द्वारा पिता ईश्वर के साथ हमारा मेल हो गया है। जब हम प्रभु येसु को पा लेते हैं, तो हमें हमारे पापों की क्षमा मिल जाती है और प्रभु येसु पिता ईश्वर के पास जाने का हमारा मार्ग बन जाते है।

प्रभु येसु का कहना है जो सत्य को जान जाता है, वह स्वतंत्र हो जाता है। जो सत्य को नहीं जनता वह पाप की दासता में ही बना रहता है। जब हम अपने बपतिस्मा की प्रतिज्ञाओं को दुहराते हैं तो हमें शैतान के छल-प्रपंचों का त्याग करने के लिए कहा जाता है। जब हम सत्य को खोज लेते हैं तो, शैतान के चंगुल से मुक्त हो जाते हैं। प्रभु येसु ही वह सत्य हैं, वह सत्य का संदेश हैं कि ईश्वर हमें प्यार करता है। ईश्वर का प्रेम हमें सब प्रकार के बंधनों से मुक्त करता है। प्रभु येसु के द्वारा ही हम ईश्वर के प्रेम को जान जाते और अनुभव कर पाते हैं।

अनंत जीवन का स्रोत भी प्रभु येसु ही हैं। उनकी शिक्षाओं में अनंत जीवन का संदेश समाहित है। उनका शरीर और रक्त हमें अनंत जीवन के लिए पोषण प्रदान करता है। प्रभु येसु में हमारा विश्वास हमें अनंत जीवन, यानि पिता ईश्वर के सानिध्य का जीवन प्रदान करता है। पुत्र के द्वारा ही हम पिता ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनंत जीवन के उतराधिकारी बन जाते हैं। क्या हमने अपने मार्ग, सत्य और जीवन को पहचान लिया और अपना लिया है?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Jesus says, “I am the way, and the truth and the life. No one comes to the father except through me.” (Jn. 14:6). When we think of a way, there are few things that come to our mind - The place where we are at present (our current position), secondly the destination where we have to reach, and thirdly the type of way that we choose - wide and easy or narrow and difficult. There is no one who has found and reached to his/her ultimate destiny. Whatever we do it results in something. No one is perfect and complete. We have the ultimate destiny as reaching to our heavenly Father. We have come from him and we have to return to him. No one can avoid that. Question is how do we get there?

Our sins are the biggest hurdle in getting to our heavenly Father and repentance and forgiveness of our sins is the solution to that. Jesus has atoned for our sins on the Calvary when he sacrificed himself for our sake and thus reconciling God and the world. When we accept Jesus in our life, we accept forgiveness and God’s love for us, and Jesus becomes our way to the Father.

Jesus assures us that if we know and accept the Truth, we will be liberated from our sins. One who does not accept truth, remains bound to his sins. When we renew our baptismal vows, we are asked to shun all the works of the devil. When we discover our life in Truth we free ourselves from the clutches of satan. Jesus is the Truth that liberates us from all our sins and bondages, Jesus is the truth that God loves us. The love of God liberates us from all the traps and bonds of sins and evil. It is through Jesus that we know and discover and experience the unconditional love of God the father.

Jesus is the source of eternal life for us. His words have the message of eternal life. His body and blood are the source of our nourishment for spiritual life which leads us to eternal life. The Faith in Jesus Christ saves us and unites us with the Father. It is through His son that we become the heirs of eternal live. Have we found our way, truth and life, have we accepted Jesus unconditionally?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!