चक्र ’अ’ - येसु के पवित्रतम शरीर और रक्त का महोत्सव (Corpus Christi)



पहला पाठ : विधि-विवरण 8:2-3, 14-16

2) मरुभूमि में इन चालीस वर्षों की वह यात्रा याद रखो, जिसके लिए तुम्हारे प्रभु-ईश्वर ने तुम लोगों को बाध्य किया था। उस ने तुम्हें दीन-हीन बनाने के लिए ऐसा किया, तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए, तुम्हारा मनोभाव पता लगाने के लिए और इस प्रकार यह जानने के लिए कि तुम उसकी आज्ञाओं का पालन करते हो या नहीं।

3) उसने तुम्हे त्रस्त किया, भूखा रखा फिर तुम्हें मन्ना भी खिलाया, जिसे न तुम जानते थे और न तुम्हारे पूर्वज ही। इससे उसने तुमको यह समझाना चाहा कि मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है। वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है।

14) तो तुम घमण्डी बन जाओ और अपने प्रभु ईश्वर को भूल जाओ। उसने तुम लोगो को मिस्र देश से - दासता के घर से - निकाल लिया।

15) उसने इस विशाल भयंकर मरुभूमि में विषैले साँपो, बिच्छुओं और प्यास के देश में तुम्हारा पथप्रदर्शन किया। उसने इस जलहीन स्थल में तुम्हारे लिए कठोर चट्टान से पानी निकाला।

16) उसने तुम लोगों को इस मरुभूमि मे मन्ना खिलाया, जिसे तुम्हारे पूर्वज नहीं जानते थे। उसने तुम लोगों का घमण्ड तोड़ने के लिए और तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ऐसा किया, जिससे आगे चल कर तुम्हारा कल्याण हो।

दूसरा पाठ : 1कुरिन्थियों 10:16-17

16) क्या आशिष का प्याला, जिस पर हम आशिष की प्रार्थना पढ़ते हैं, हमें मसीह के रक्त का सहभागी नहीं बनाता? क्या वह रोटी, जिसे हम तोड़ते हैं, हमें मसीह के शरीर का सहभागी नहीं बनाती?

17) रोटी तो एक ही है, इसलिए अनेक होने पर भी हम एक हैं; क्योंकि हम सब एक ही रोटी के सहभागी हैं।

सुसमाचार : योहन 6:51-58

51) स्वर्ग से उतरी हुई वह जीवन्त रोटी मैं हूँ। यदि कोई वह रोटी खायेगा, तो वह सदा जीवित रहेगा। जो रोटी में दूँगा, वह संसार के लिए अर्पित मेरा मांस है।"

52) यहूदी आपस में यह कहते हुए वाद विवाद कर रहे थे, "यह हमें खाने के लिए अपना मांस कैसे दे सकता है?"

53) इस लिए ईसा ने उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा।

54) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा;

55) क्योंकि मेरा मांस सच्चा भोजन है और मेरा रक्त सच्चा पेय।

56) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में।

57) जिस तरह जीवन्त पिता ने मुझे भेजा है और मुझे पिता से जीवन मिलता है, उसी तरह जो मुझे खाता है, उसको मुझ से जीवन मिलेगा। यही वह रोटी है, जो स्वर्ग से उतरी है।

58) यह उस रोटी के सदृश नहीं है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खायी थी। वे तो मर गये, किन्तु जो यह रोटी खायेगा, वह अनन्त काल तक जीवित रहेगा।"

📚 मनन-चिंतन

आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के शरीर और रक्त का पर्व मना रहे हैं। वह शरीर और रक्त जो मानव जाति के उद्धार के लिए समर्पित रहा। हम सभी किसी न किसी से प्रेम करते है तथा हम यह प्रेम अपना समय एवं संसाधन बांट कर करते हैं। यह प्रेम की एक निस्वार्थ अभिव्यक्ति होती है जब हम दूसरों के लिए वह सब समर्पित करते हैं जो हमें प्रिय हो। जब हम प्रेम से प्रेरित होकर दूसरों के लिए अपने प्राण भी समर्पित कर देते है तो यह निस्वार्थ प्रेम की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति होती है। जैसे प्रभु कहते हैं, ’’इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।’’(योहन 15:13) एक माँ का जीवन भी ऐसे प्रेम का उचित उदाहरण है। जब वह गर्भवती होती है उसी क्षण से वह अपने बच्चे की भलाई के बारे में सोचने लगती है तथा जीवंतपर्यन्त वह उसकी सेवा करती है।

प्रभु येसु का जीवन मानवजाति के प्रति प्रेम एवं सेवा में समर्पित एक आदर्श एवं सर्वोŸाम जीवन है। वे स्वयं कहते हैं, ’’क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।’’ (मारकुस 10:45) प्रभु ने अपना सारा समय, ऊर्जा, ज्ञान तथा वरदान लोगों के साथ बांटे। उनका समय लोगों के मार्गदर्शन एवं उनके उत्थान के कार्यों के लिए बीता। प्रभु ने रोगियों को चंगा किया, मृतकों को जिलाया, भूखों को खिलाया, पापियों को क्षमा किया, तिरस्कृतों को अपनाया, भटकों को मार्ग दिखाया, लोगों को सांत्वना देकर कहा, ’’थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।’’(मत्ती 11:28), विनम्र बनकर शिष्यों के पैर धौए, सुसमाचार को घोषित किया तथा अंत में मुक्ति के चिरस्थायी विधान को क्रूस पर अपने शरीर एवं रक्त के बलिदान द्वारा स्थापित किया। इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन लोगों की मदद करते-करते बीता।

यूखारिस्तीय बलिदान प्रभु के इसी निस्वार्थ प्रेम और सेवा का वह उत्सव है जब हम येसु के प्रेम, सेवा तथा क्रूस पर अर्पित उनके शरीर तथा रक्त की याद करते तथा उसे खाते है।

यूखारिस्तीय संस्कार हमें भी प्रभु के समान निस्वार्थ सेवाभाव से प्रेम का जीवन जीने के लिए प्रेरित तथा प्रेषित करता है। यूदस ने भी प्रभु के भोज में भाग लिया था लेकिन यूदस का हृदय स्वार्थ एवं महत्वकांक्षाओं से भरा था इसलिए उस पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा ’’उन्होंने रोटी डुबो कर सिमोन इसकारियोती के पुत्र यूदस को दी। यूदस ने उसे ले लिया और शैतान उस में घुस गया।’’ (योहन 13:26-27) इसी बात को संत पौलुस कहते हैं, ’’इसलिए जो अयोग्य रीति से वह रोटी खाता या प्रभु का प्याला पीता है, वह प्रभु के शरीर और रक्त के विरुद्ध अपराध करता है।’’ (1कुरि. 11:27)

यदि हम भी प्रभु के शरीर और रक्त के उत्सव यूखारिस्तीय संस्कार में विश्वास, तैयारी, सेवा एवं प्रेम के मनोभावों से भाग नहीं लेते हैं तो हम भी प्रभु के जीवन के भागी नहीं बन पायेंगे। हमें भी इस बात की विवेचना करना चाहिए कि क्या हम यूखारिस्त के मूल्यों के अनुसार जीवन जीता हूँ या फिर यूदस के समान अपनी ही स्वार्थ की दुनिया में डूबा रहता हूँ।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Today we are celebrating the feast of Body and Blood of Christ; the body and blood that was sacrificed and shed for the salvation of man. We all love someone and we express our love by sharing our time and resources with them. This is an altruistic expression of love when we give away everything that we love for the sake of beloved ones. Inspired and moved by love when we are even ready to offer our life then it becomes the supreme expression of love. Jesus too said it, “there is no greater love than this that a man should lay down his life for his friend. (John 15:13) a mother’s love for her child is a perfect example of unconditional love. From the moment of conception, she begins to worry and care for the life. And for her this remains a lifelong process.

Jesus’ dedicated and committed life of love and service to the humanity is one of the best examplesof ideal love. Jesus proclaimed, “For the Son of Man came not to be served but to serve, and to give his life a ransom for many.” (Mark 10:45) Lord spent all his time, energy, knowledge and gifts with the people. He spent his entire time for the good of the people. He healed the sick, raised the dead, fed the hungry, forgave the sinner, uplifted the downtrodden, comforted and forgave the people with the words, ‘Come to me, all you that are weary and are carrying heavy burdens, and I will give you rest.” (Matthew 11:28) He humbled himself and washed the feet of his disciples, proclaimed the Good News and at the end for the salvation of mankind he sacrificed his body and blood on the cross. Therefore, we see in nutshell his entire life and even death was spent for the people.

Eucharist sacrifice is the celebration of his benevolent love and service to the humanity when we eat and drink his body and blood broken and shed on the cross. Eucharistic inspires and urges us to live a benevolent life like Jesus did with others. Judas too shared in the eucharistic meal. but since his heart was full of ambitions and selfishness it had adverse effect on him, “So when he had dipped the piece of bread, he gave it to Judas son of Simon Iscariot. After he received the piece of bread, Satan entered into him.” (John 13:26-27) St. Paul underlines the same truth in his first letter to the Corinthians, “Whoever, therefore, eats the bread or drinks the cup of the Lord in an unworthy manner will be answerable for the body and blood of the Lord.” (1Cor. 11:27)

Hence if we do not take part in Eucharistic celebration without proper disposition of heart and mind then we would not be able to share into life the of Christ, who is the Lord of the Eucharist. To be part of the Eucharist we ought to have a mind of Christ. Otherwise like Judas we shall be in the Eucharist but away from its desired effect. We ought to examine ourselves if we live a life based on the eucharist values or an ambitious life away from God.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!