चक्र ’अ’ - येसु के पवित्रतम हृदय का महोत्सव



पहला पाठ : विधि-विवरण 7:6-11

6) तुम लोग अपने प्रभु - ईश्वर की पवित्र प्रजा हो। हमारे प्रभु - ईश्वर ने पृथ्वी भर के सब राष्ट्रों में से तुम्हें अपनी निजी प्रजा चुना है।

7) प्रभु ने तुम्हें इसलिए नहीं अपनाया और चुना है कि तुम्हारी संख्या दूसरो राष्ट्रों से अधिक थी - तुम्हारी संख्या तो सब राष्ट्रों से कम थी।

8) प्रभु ने तुम्हें प्यार किया और तुम्हारे पूर्वजों को दी गई शपथ को पूरा किया, इसलिए प्रभु ने तुम्हें अपने भुज-बल से निकाला और दासता के घर से, मिस्र देश के राजा फ़िराउन के हाथ से छुड़ाया है।

9) इसलिए याद रखो कि तुम्हारा प्रभु ईश्वर सच्चा और सत्यप्रतिज्ञ ईश्वर है। जो लोग उसे प्यार करते और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, वह उनके लिए हज़ार पीढ़ियों तक अपनी प्रतिज्ञा और अपनी कृपा बनाये रखता है।

10) जो लोग उसका तिरस्कार करते है, वह उन्हें दण्ड देता और उनका विनाश करता है। जो व्यक्ति उसका तिरस्कार करता है, वह उसको दण्ड़ देने में देर नहीं करता।

11) इसलिए जो आदेश नियम और विधि-निषेध मैं आज तुम्हारे सामने रख रहा हूँ, तुम लोग उनका पालन करो।

दूसरा पाठ : 1योहन 4:7-16

7) प्रिय भाइयो! हम एक दूसरे को प्यार करें, क्योंकि प्रेम ईश्वर से उत्पन्न होता है।

8) जौ प्यार करता है, वह ईश्वर की सन्तान है और ईश्वर को जानता है। जो प्यार नहीं करता, वह ईश्वर को नहीं जानता; क्येोंकि ईश्वर प्रेम है।

9) ईश्वर हम को प्यार करता है। यह इस से प्रकट हुआ है कि ईश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को संसार में भेजा, जिससे हम उसके द्वारा जीवन प्राप्त करें।

10) ईश्वर के प्रेम की पहचान इस में है कि पहले हमने ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वर ने हम को प्यार किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा।

11) प्रयि भाइयो! यदि ईश्वर ने हम को इतना प्यार किया, तो हम को भी एक दूसरे को प्यार करना चाहिए।

12) ईश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा। यदि हम एक दूसरे को प्यार करते हैं, तो ईश्वर हम में निवास करता है और ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम पूर्णता प्राप्त करता है।

13) यदि वह इस प्रकार हमें अपना आत्मा प्रदान करता है, तो हम जान जाते हैं कि हम उस में और वह हम में निवास करता है।

14) पिता ने अपने पुत्र को संसार के मुक्तिदाता के रूप में भेजा। हमने यह देखा है और हम इसका साक्ष्य देते हैं।

15) जो यह स्वीकार करता है कि ईसा ईश्वर के पुत्र हैं, ईश्वर उस में निवास करता है और वह ईश्वर में।

16) इस प्रकार हम अपने प्रति ईश्वर का प्रेम जान गये और इस में विश्वास करते हैं। ईश्वर प्रेम है और जो प्रेम में दृढ़ रहता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में।

सुसमाचार : मत्ती 11:25-30

25) उस समय ईसा ने कहा, "पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है।

26) हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा।

27) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।

28) "थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।

29) मेरा जूआ अपने ऊपर ले लो और मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ। इस तरह तुम अपनी आत्मा के लिए शान्ति पाओगे,

30) क्योंकि मेरा जूआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।"

📚 मनन-चिंतन

हृदय हमारी भावनाओं का घर है। हमारे भावनात्मक जीवन ही तुलना हृदय से की जाती है। हमारे हृदय से हमारी भावनाएं बहती है। येसु भी इस को स्वीकारते हुये कहते हैं, ’’परन्तु जो मुँह से निकलता है, वह मन से आता है और वही मनुष्य को अशुद्ध करता हैं। क्योंकि बुरे विचार, हत्या, परगमन, व्याभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा- ये सब मन से निकलते हैं।’’ ये भावनायें हमारे कर्मों में परिणत होती है जो हमारे चरित्र को परिभाषित करती है।

येसु भी इस मानवीय प्रक्रिया के अपवाद नहीं है। येसु का हृदय भी भावनाओं का भण्डार है। उनमें दया, करूणा, सहानुभूति तथा परोकारिता आदि जैसी भावनायें बहती रहती है। येसु दया के सागर है। वे दयालु पिता का मानवीय चेहरा है। पिता की अदृश्य दयालुता येसु की दृश्य दयालुता के द्वारा प्रकट होती है। येसु भी अधिकांशः दया से प्रेरित जीवन जीते हैं। उनकी शिक्षायें तथा दृष्टांत दया एवं सहानुभूति से भरे पडे हैं। जब येसु लोगों की भीड को देखते हैं तो उन्हें उन पर तरह हो आता है। नाईन की विधवा की दयनीय दशा देख कर वे रो पडते हैं। इसी प्रकार लाजरूस की मृत्यु पर वेदना के कारण वे ऑसू बहाते हैं। उडॉउ पुत्र के दृष्टांत को इसलिये भी सराहा जाता है क्योंकि वह एक पिता की सक्रिय दया का अनुपम उदाहरण है।

येसु ने बच्चों की प्रशंसा तथा सराहना करते हुये कहा कि वे स्वर्गराज्य के योग्य हैं। वे हम से भी बच्चों के समान बनने को कहते हैं, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे।’’ (मत्ती 18:3) येसु बच्चों इसलिये भी नमूने के तौर पर प्रस्तुत करते हैं क्योंकि उनका हृदय निर्दाेष और निष्कपट होता है। हम भी निष्कपटता तथा निर्दोषता के द्वारा ईश्वर के प्रति स्वयं को खुले रखकर अपने सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त रह सकते हैं। बच्चों का हृदय पाप, कपटता और ग्लानि से दूर अंजान रहता है। वे पूर्णः दूसरों पर निर्भर रहते हैं। इसे हृदयों के स्वामी स्वर्गराज्य के उत्तराधिकारी बताये गये हैं। आज जब हम येसु के पवित्रत्तम हृदय का पर्व मना रहे हैं तो हमें भी येसु हृदय की सुन्दरता पर चिंतन करना चाहिये तथा प्रार्थना करना चाहिये हम बच्चों के हृदय समान आंतरिक भाव धारण कर उनका अनुकरण कर सके।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Heart is the home of our emotion. Our emotional self is compared with heart. It is from heart that our emotions flow, Lord himself recognizes this fact, “But what comes out of the mouth proceeds from the heart, and this is what defiles. For out of the heart come evil intentions, murder, adultery, fornication, theft, false witness, slander. These are what defile a person…”(Mt.15:18-19)These emotions lead to the actions and they define the character of a person.

Jesus too is not an exception to this procedure. Jesus’ heart is full of care, compassion, sympathy and benevolent emotions. The predominant one is the compassion. Jesus is the compassionate face of the father. Through Jesus the compassion of the father becomes visible. Jesus was often led by compassion. His teachings and parables are sated with mercy and compassion. We even find him moved with compassion when he saw the large crowd. He wept at the plight of the widow of Nine. He wept at the loss of his friend Lazarus. Parable of the ‘Prodigal son’ stand out among all because of the proactive mercy of the father.

Jesus appreciated and applauded the children as calling them worthy candidates for the kingdom of God. He asked to be transformed like these children, "Truly I tell you, unless you change and become like little children, you will never enter the kingdom of heaven." (Matthew 18:3) Jesus perhaps advocated children because of their innocent hearts or inner disposition. It is through the innocence of heart we can learn to be unbiased and open to God. The heart of children knowsno sin, guilt or malice. They completely depended on others. People of such hearts are being touted as heir to the kingdom.

Today as we celebrate the feast of the Sacred Heart of Jesus we recall to mind the beauty of Jesus hearts and pray to emulate him with a childlike heart.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!