चक्र ’अ’ - वर्ष का दूसरा सामान्य इतवार



📒 पहला पाठ : इसायाह 49:3,5-6

3) उसने मुझे से कहा, “तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा“।

5) परन्तु जिसने मुझे माता के गर्भ से ही अपना सेवक बना लिया है, जिससे मैं याकूब को उसके पास ले चलूँ और उसके लिए इस्राएल को इकट्ठा कर लूँ, वही प्रभु बोला; उसने मेरा सम्मान किया, मेरा ईश्वर मेरा बल है।

6) उसने कहाः “याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने। मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति-विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।“

📕 दूसरा पाठ : 1कुरिन्थियों 1:1-3

1) कुरिन्थ में ईश्वर की कलीसिया के नाम पौलुस, जो ईश्वर द्वारा ईसा मसीह का प्रेरित नियुक्त हुआ है, और भाई सोस्थेनेस का पत्र।

2) आप लोग ईसा मसीह द्वारा पवित्र किये गये हैं और उन सबों के साथ सन्त बनने के लिए बुलाये गये हैं, जो कहीं भी हमारे प्रभु ईसा मसीह अर्थात् अपने तथा हमारे प्रभु का नाम लेते हैं।

3) हमारा पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें।

📙 सुसमाचार : योहन 1:29-34

29) दूसरे दिन योहन ने ईसा को अपनी ओर आते देखा और कहा, "देखो-ईश्वर का मेमना, जो संसार का पाप हरता है।

30) यह वहीं हैं, जिनके विषय में मैंने कहा, मेरे बाद एक पुरुष आने वाले हैं। वह मुझ से बढ़ कर हैं, क्योंकि वह मुझ से पहले विद्यमान थे।

31) मैं भी उन्हें नहीं जानता था, परन्तु मैं इसलिए जल से बपतिस्मा देने आया हूँ कि वह इस्राएल पर प्रकट हो जायें।"

32) फिर योहन ने यह साक्ष्य दिया, "मैंने आत्मा को कपोत के रूप में स्वर्ग से उतरते और उन पर ठहरते देखा।

33) मैं भी उन्हें नहीं जानता था; परन्तु जिसने मुझे जल से बपतिस्मा देने भेजा, उसने मुझ से कहा था, ‘तुम जिन पर आत्मा को उतरते और ठहरते देखोगे, वही पवित्र आत्मा से बपतिस्मा देते हैं’।

34) मैंने देखा और साक्ष्य दिया कि यह ईश्वर के पुत्र हैं।"

📚 मनन-चिंतन

संत योहन बपतिस्ता के जीवन में एक बात सामने आती है कि वे अपनी पहचान, भूमिका तथा लक्ष्य के बारे में बहुत स्पष्ट थे। वे उस मार्ग के बारे में स्पष्ट थे जो स्वर्गिक पिता ने उनके लिए अंकित किया था। वे उस भूमिका के प्रति वफादार थे। केवल ऐसे व्यक्ति ही जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। संत योहन बपतिस्ता ने प्रभु येसु के आने और ईश्वर के राज्य की आसन्न स्थापना की घोषणा करने वाले येसु के अग्रदूत के रूप में अपनी भूमिका पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उच्च स्थिति और राजनीतिक ताक़त के लोगों के सामने भी निर्भय होकर ईश्वर के राज्य के मूल्यों की घोषणा कर अपनी नबीय भूमिका को निभाते हुए, उन्हें शक्तिशालीयों के रोष का सामना करना पड़ा। अंत में उनको सिर कटवा कर मार डाला गया था। वे जीवन और मृत्यु में बहादुर थे। उन्होंने ईश्वर की योजना के अनुसार अपना जीवन पूरा किया। एक साधारण व्यक्ति के लिए संत योहन बपतिस्ता की मृत्यु एक त्रासदी थी। लेकिन वह वास्तव में अंत तक प्रतिबद्धता के जीवन का पूर्तीकरण था।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

One thing that stands out in the life of St. John the Baptist is that he was very clear about his identity, role and goal. He was clear about the path that the heavenly Father had marked out for him. He was faithful to that identity, role and goal. Only such persons can have a fulfillment in life. St. John the Baptist concentrated on his role as the precursor of Jesus announcing the coming of the Messiah and the imminent establishment of the Kingdom of God. While carrying out his prophetic role by fearlessly proclaiming the values of the Kingdom of God even in front of people of high status and political power, he had to face the fury of the powerful. At the end he was beheaded. He was brave in life and braver in death. He had accomplished a life according to the plan of God. To a person with a secular mind the death of St. John the Baptist may look like a tragedy. But it was in reality the fulfillment of a life of commitment to the end.

-Fr. Francis Scaria


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