चक्र ’अ’ - वर्ष का छठवाँ सामान्य इतवार



📒 पहला पाठ : प्रवकता ग्रन्थ 15:16-21

16) यदि तुम चाहते हो, तो आज्ञाओें का पालन कर सकते हो; ईश्वर के प्रति ईमानदार रहना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है।

17) उसने तुम्हारे सामने अग्नि और जल, दोनों रख दिये हाथ बढ़ा कर उन में एक का चुनाव करो।

18) मनुष्य के सामने जीवन और मरण, दोनों रखे हुए हैं। जिसे मनुष्य चुनता, वहीं उसे मिलता है।

19) ईश्वर की प्रज्ञा अपार है। वह सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ है।

20) वह अपने श्रद्धालु भक्तों की देखरेख करता है। मनुष्य जो भी करते हैं, वह सब देखता रहता है।

21) उसने न तो किसी को अधर्म करने का आदेश दिया और न किसी को पाप करने की छूट।

📕 दूसरा पाठ : 1 कुरिन्थियों 2:6-10

6) हम उन लोगों के बीच प्रज्ञा की बातें करते हैं, जो परिपक्व हो गये हैं। यह प्रज्ञा न तो इस संसार की है और न इस संसार के अधिपतियों की, जो समाप्त होने को हैं।

7) हम ईश्वर की उस रहस्यमय प्रज्ञा और उद्देश्य की घोषणा करते हैं, जो अब तक गुप्त रहे, जिन्हें ईश्वर ने संसार की सृष्टि से पहले ही हमारी महिमा के लिए निश्चित किया था,

8) और जिन को संसार के अधिपतियों में किसी ने नहीं जाना। यदि वे लोग उन्हें जानते, तो महिमामय प्रभु को क्रूस पर नहीं चढ़ाते।

9) हम उन बातों के विषय में बोलते हैं, जिनके सम्बन्ध में धर्मग्रन्थ यह कहता है - ईश्वर ने अपने भक्तों के लिए जो तैयार किया है, उस को किसी ने कभी देखा नहीं, किसी ने सुना नहीं और न कोई उसकी कल्पना ही कर पाया।

10) ईश्वर ने अपने आत्मा द्वारा हम पर वही प्रकट किया है, क्योंकि आत्मा सब कुछ की, ईश्वर के रहस्य की भी, थाह लेता है।

📙 सुसमाचार : मत्ती 5:17-37

(17) "यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।

(18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।

(19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।

(20) मैं तुम लोगों से कहता हूँ - यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से गहरी नहीं हुई, तो तुम स्वर्गराज्य में प्रवेश नहीं करोगे।

(21) "तुम लोगों ने सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है- हत्या मत करो। यदि कोई हत्या करे, तो वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा।

(22) परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ - जो अपने भाई पर क्रोध करता है, वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। यदि वह अपने भाई से कहे, ’रे मूर्ख! तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ’रे नास्तिक! तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा ।

(23) "जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहाँं याद आये कि मेरे भाई को मुझ से कोई शिकायत है,

(24) तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आ कर अपनी भेंट चढ़ाओ।

(25) "कचहरी जाते समय रास्ते में ही अपने मुद्दई से समझौता कर लो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हें न्यायाकर्ता के हवाले कर दे, न्यायाकर्ता तुम्हें प्यादे के हवाले कर दे और प्यादा तुम्हें बन्दीगृह में डाल दे।

(26) मैं तुम से यह कहता हूँ - जब तक कौड़ी-कौड़ी न चुका दोगे, तब तक वहाँ से नहीं निकल पाओगे।

(27) तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है - व्यभिचार मत करो।

(28) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ - जो बुरी इच्छा से किसी स्त्री पर दृष्टि डालता है वह अपने मन में उसके साथ व्यभिचार कर चुका है।

(29) "यदि तुम्हारी दाहिनी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, तो उसे निकाल कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न डाला जाये।

(30) और यदि तुम्हारा दाहिना हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न जाये।

(31) "यह भी कहा गया है- जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उसे त्याग पत्र दे दे।

(32) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ - व्यभिचार को छोड़ किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उस से व्यभिचार कराता है और जो परित्यक्ता से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है।

(33) तुम लोगों ने यह भी सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है -झूठी शपथ मत खाओ। प्रभु के सामने खायी हुई शपथ पूरी करो।

(34) परतु मैं तुम से कहता हूँः शपथ कभी नहीं खानी चाहिए- न तो स्वर्ग की, क्योंकि वह ईश्वर का सिंहासन है;

(35) न पृथ्वी की, क्योंकि वह उसका पावदान है और न येरूसालेम की, क्योंकि वह राजाधिराज का नगर है।

(36) और न अपने सिर की, क्योंकि तुम इसका एक भी बाल सफेद या काला नहीं कर सकते।

(37) तुमहारी बात इतनी हो-हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। जो इससे अधिक है, वह बुराई से उत्पन्न होता है।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में, प्रभु येसु घोषणा करते हैं कि वे संहिता और नबियों को पूर्ण करने के लिए आये हैं। सुसमाचार हमें इस बात के उदाहरण भी देता है कि वे कैसे संहिता और नबियों को पूरा करते हैं। पुराने विधान ने हत्या न करने का आदेश दिया, जबकि नये विधान ने दूसरों से नाराज होने या शब्दों के साथ भी उनका अनादर करने से मना किया। येसु अपने शिष्यों को यह भी सिखाते हैं कि पवित्रता जो प्रभु के सामने आने के योग्य होने के लिए आवश्यक है, वह केवल शारीरिक पवित्रता या स्वच्छता नहीं है, बल्कि एक आंतरिक पवित्रता है जो मांग करती है कि किसी और के प्रति कोई बुरा व्यवहार नहीं होना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति आपके खिलाफ कुछ भावना रखता है, वह आपको प्रभु की वेदी पर कोई भी बलिदान चढ़ाने के लिए अयोग्य बना सकता है। पुराने नियम ने व्यभिचार को मना किया था, लेकिन नए नियम की मांग है कि हम बुरे विचारों से भी बचें। इस प्रकार येसु नैतिकता को हमेशा नई ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। इस प्रकार येसु पुराने विधान की पुष्टि कर उसे पूर्णता तक ले जाते हैं। क्या हम नए नियम की आध्यात्मिकता की पूर्णता तक पहुँच गए हैं?

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In today’s gospel, Jesus declares that he has come to complete and perfect the Law and the Prophets. The gospel also gives us examples of how he completes the Law and the Prophets. The Old Testament Law forbade killing while the New Testament Law forbids one to be angry with others or to abuse them even with words. Jesus also teaches his disciples that purity that is required for being found worthy to come before the Lord is not just physical purity or external cleanliness but an internal purity which demands that there should be no ill-feeling in our hearts against anyone else. Another person having something against you can make you unworthy to offer any sacrifice at the altar of the Lord. The Old Testament Law had forbidden adultery, but the New Testament Law demands that we avoid even lustful thoughts. Thus Jesus takes morality and ethics to ever new heights. Thus Jesus perfects the Law and the Prophets. Have we reached the perfection of the New Testament Spirituality?

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!