चक्र ’अ’ - वर्ष का इक्कीसवाँ समान्य इतवार



📒 पहला पाठ : इसायाह 22:19-23

19) मैं तुम को तुम्हारे पद से हटाऊँगा, मैं तुम को तुम्हारे स्थान से निकालूँगा।

20) “मैं उस दिन हिज़कीया के पुत्र एलियाकीम को बुलाऊँगा।

21) मैं उसे तुम्हारा परिधान और तुम्हारा कमरबन्द पहनाऊँगा। मैं उसे तुम्हारा अधिकार प्रदान करूँगा। वह येरुसालेम के निवासियों का तथा यूदा के घराने का पिता हो जायेगा।

22) मैं दाऊद के घराने की कुंजी उसके कन्धे पर रख दूँगा। यदि वह खोलेगा, तो कोई बन्द नहीं कर सकेगा। यदि वह बन्द करेगा, तो कोई नहीं खोल सकेगा।

23) मैं उसे खूँटे की तरह एक ठोस जगह पर गाड़ दूँगा। वह अपने पिता के घर के लिए एक महिमामय सिंहासन बन जायेगा।

📕 दूसरा पाठ : रोमियों 11:33-36

33) कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग!

34) प्रभु का मन कौन जान सका? उसका परामर्शदाता कौन हुआ?

35) किसने ईश्वर को कभी कुछ दिया है जो वह बदले में कुछ पाने का दावा कर सके?

36) ईश्वर सब कुछ का मूल कारण, प्रेरणा-स्रोत तथा लक्ष्य है - उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 16:13-20

13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’

20) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग किसी को भी यह नहीं बताओ कि मैं मसीह हूँ।

📚 मनन-चिंतन

हमारा देश बहुत से साधु-महात्माओं और ईश्वर को खोजने वाले ऋषि-मुनियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। हर देश में ईश्वर को खोजने वाले ऐसे लोग होते हैं। हम सन्त अगस्टिन की उस कहानी से परिचित हैं, जब वह ईश्वर के रहस्य को समझने की कोशिश कर रहे थे, और इसी कोशिश के दौरान एक बार जब वह अकेले समुंदर के किनारे गहन मनन-चिंतन में मगन टहल रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक छोटा सा बालक अपने नन्हे-नन्हे हाथों से समुंदर के पानी को भरकर किनारे पर बालू में बने एक छोटे से गड्डे में भरने की चेष्टा कर रहा था। वह पानी लाने के लिए बहुत कठिन प्रयास कर रहा थे, लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा था। उसके अथक प्रयास को देखते हुए, सन्त अगस्टिन ने उससे पूछा, “क्या कर रहे हो मुन्ना?” बच्चे ने कहा, “मैं इस समुंदर के सारे पानी को इस छोटे से गड्डे में भर रहा हूँ।” सन्त अगस्टिन उस नन्हे बालक की अज्ञानता पर हँस पड़े और बोले, “बेटे इतने बड़े समुंदर को तुम इतने छोटे से गड्डे में कैसे भर सकते हो?” बच्चे ने उत्तर दिया, “वही तो आप कर रहे हैं।” संत अगस्टिन अपने छोटे से दिमाग़ में अनंत ईश्वर के रहस्य को समाने का असम्भव प्रयास कर रहे थे। बाद में उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। हमारे छोटे से मस्तिष्क में जिसे खुद ईश्वर ने बनाया है, उसी ईश्वर का रहस्य कैसे समा सकता है? कोई भी ईश्वर के रहस्य को पूरी तरह से नहीं जान सकता, क्योंकि हम उसी के हाथों की रचना हैं।

लेकिन आज हम देखते हैं कि प्रभु येसु यह पता लगाना चाहते थे कि क्या उनके शिष्य उन्हें जानते हैं। उन्होंने प्रभु येसु के बारे में दूसरों की राय बतायी। अक्सर हम स्वयं ईश्वर को जाने और अनुभव किए बिना दूसरों के अनुभव और ज्ञान में आनंद मनाते हैं, दूसरों का ईश्वरीय अनुभव और ज्ञान क्या है, और कैसा है। प्रभु येसु के बारे में दूसरों का ज्ञान भी पूर्ण नहीं था। कुछ लोगों ने प्रभु येसु को योहन बप्तिस्ता समझ लिया, शायद इसलिए कि प्रभु येसु में संत योहन से मिलती-जुलती कुछ समानताएँ थीं। उन्होंने सत्य बोला, ग़लत रास्ते पर जाने वाले लोगों को सही राह पर लाने का प्रयास किया, और उसने राजा को लौमडी कहकर पुकारा, क्योंकि वह उससे नहीं डरता था, उसने मौलिक जीवन जिया। लेकिन यह उसका असली परिचय नहीं था।

कुछ लोगों ने उसे महान नबी येरेमियाह अथवा नबी एलियस समझा, उनमें भी प्रभु येसु से मिलती-जुलती समानताएँ थीं, लेकिन वह भी उसका असली परिचय नहीं था। और अंततः प्रभु येसु अपने शिष्यों से उनके व्यक्तिगत अनुभव के बारे में पूछते हैं, और संत पेत्रुस जवाब देने के लिए आगे आते हैं। आज प्रभु येसु हममें से प्रत्येक को वहीं सवाल पूछते हैं, “तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” मेरा उत्तर क्या होगा? मेरे व्यक्तिगत जीवन में प्रभु येसु को कैसे अनुभव किया है? ईश्वर या प्रभु येसु का मेरा अपना क्या अनुभव है? क्या वह मेरे मुक्तिदाता हैं, चंगाई दाता या चमत्कार करने वाला? एक मित्र या एक सान्त्वनादाता है? इसका जवाब पाने के लिए अपने मन में झांककर देखें।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

India is a land known for its number of sages and seekers of God. In every land there are people having quest for knowing God. We are well familiar with the story of St. Augustine who was trying to understand God and in this pursuit, one day he was spending sometime walking and reflecting about understanding God. He was trying very hard and using his mind to understand God and then he saw a small child who was trying to fill water with his hands in a small pit that he had made in the sand. He was trying very hard to bring water but it was all in vain. Seeing how desperate he was, Augustine asked him, “What are you doing, child?” He said, “I am going to fill the whole water of this ocean into this small hole.” Augustine laughed at his ignorance and said, “How can you fill such a vast ocean into this small tiny hole?” The child replied, “That’s what you are doing.” St. Augustine was trying to understand the mystery of God with tiny small mind. How can our tiny brain contain such a vast mystery? No one can know God fully, we are just creation of his hands.

But today we see Jesus, trying to find out whether the disciples know him. They replied about what others said about Jesus. Very often instead of knowing and experiencing God for ourselves, we try to feast on others experience and explanation of God, what and how others understand God. Even others had not understood Jesus fully. Some understood Jesus as John the Baptist, perhaps because Jesus had some similarities with John. He spoke truth, he corrected those who went on wrong path, he was not afraid of the king whom he called ‘fox’, and he lived a radical life. But that was not his real identity.

Others understood him to be some great prophet like Elijah or Jeremiah, they both also had similarities that matched with Jesus, but that either was not his real identity. Then finally Jesus asks their personal experience of him and Peter comes forward with the answer. Today Jesus asks each one of us the same question “Who do you say that I am?” what will be my answer? How have I experienced Jesus in my personal life? What is my personal experience of God or Jesus? Is he a saviour for me? A healer, a miracle worker? A friend, a consoler? Let us ask ourselves.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!