चक्र ’अ’ - वर्ष का चौबीसवाँ समान्य इतवार



📒 पहला पाठ : प्रवक्ता-ग्रन्थ 27:33-28:9

27) मैं बहुत-सी बातों से घृणा करता हूँ, किन्तु ऐसे व्यक्ति से सब से अधिक। प्रभु को भी उस से घृणा है।

28) जो पत्थर ऊपर फेंकता, वह उसे अपने सिर पर गिराता है, जो षड्यन्त्र रचता, वह उस से घायल हो जायेगा।

29) जो गड्ढा खोदता, वह स्वयं उसी में गिरेगा, जो अपने पड़ोसी के लिए पत्थर रखता, वह उसी से ठोकर खायेगा और जो जाल बिछाता, वह उसी में फँसेगा।

30) जो बुराई करता, उसे उस से हानि होती है, यद्यपि वह नहीं जानता कि वह कहाँ से आती है।

31) घमण्डी का उपहास और अपमान किया जायेगा और प्रतिशोध घात में बैठे हुए सिंह की तरह उसकी प्रतीक्षा करता है।

32) जो धर्मियों के पतन पर आनन्दित है, वे स्वयं जाल में फँसेंगे और वे मृत्यु से पहले वेदना से धुल जायेंगे।

33) विद्वेष और क्रोध घृणित है, तो भी पापी दोनों किया करता है।

1) ईश्वर बदला लेने वाले को दण्ड देगा और उसके पापों का पूरे-पूरा लेखा रखेगा।

2) अपने पड़ोसी का अपराध क्षमा कर दो और प्रार्थना करने पर तुम्हारे पाप क्षमा किये जायेंगे।

3) यदि कोई अपने मन में दूसरों पर क्रोध बनाये रखता है, तो वह प्रभु से क्षमा की आशा कैसे कर सकता है?

4) यदि वह अपने भाई पर दया नहीं करता, तो वह अपने पापों के लिए क्षमा कैसे माँग सकता है?

5) निरा मनुष्य होते हुए भी यदि वह बैर बनाये रखता, तो उसे अपने पापों की क्षमा कैसे मिल सकती है? उसके पापों की क्षमा के लिए कौन प्रार्थना करेगा?

6) अन्तिम बातों का ध्यान रखो और बैर रखना छोड़ दो।

7) विकृति तथा मृत्यु को याद रखो और आज्ञाओें का पालन करो।

8) आज्ञाओें का ध्यान रखो और अपने पड़ोसी से बैर न रखो।

9) सर्वोच्च ईश्वर के विधान का ध्यान रखो और दूसरो के अपराध क्षमा कर दो।

📕 दूसरा पाठ :रोमियो 14:7-9

7) कारण, हम में कोई न तो अपने लिए जीता है और न अपने लिए मरता है।

8) यदि हम जीते रहते हैं, तो प्रभु के लिए जीते हैं और यदि मरते हैं, तो प्रभु के लिए मरते हैं। इस प्रकार हम चाहे जीते रहें या मर जायें, हम प्रभु के ही हैं।

9) मसीह इसलिए मर गये और जी उठे कि वह मृतकों तथा जीवितों, दोनों के प्रभु हो जायें।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 18:21-35

21) तब पेत्रुस ने पास आ कर ईसा से कहा, ’’प्रभु! यदि मेरा भाई मेरे विरुद्ध अपराध करता जाये, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? सात बार तक?’’

22) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मैं तुम से नहीं कहता ’सात बार तक’, बल्कि सत्तर गुना सात बार तक।

23) ’’यही कारण है कि स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जो अपने सेवकों से लेखा लेना चाहता था।

24) जब वह लेखा लेने लगा, तो उसका लाखों रुपये का एक कर्ज़दार उसके सामने पेश किया गया।

25) अदा करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था, इसलिए स्वामी ने आदेश दिया कि उसे, उसकी पत्नी, उसके बच्चों और उसकी सारी जायदाद को बेच दिया जाये और ऋण अदा कर लिया जाये।

26) इस पर वह सेवक उसके पैरों पर गिर कर यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए, और मैं आपको सब चुका दूँगा।

27) उस सेवक के स्वामी को तरस हो आया और उसने उसे जाने दिया और उसका कजऱ् माफ़ कर दिया।

28) जब वह सेवक बाहर निकला, तो वह अपने एक सह- सेवक से मिला, जो उसका लगभग एक सौ दीनार का कर्ज़दार था। उसने उसे पकड़ लिया और उसका गला घांेट कर कहा, ’अपना कर्ज़ चुका दो’।

29) सह-सेवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए और मैं आपको चुका दूँगा’।

30) परन्तु उसने नहीं माना और जा कर उसे तब तक के लिये बन्दीगृह में डलवा दिया, जब तक वह अपना कर्ज़ न चुका दे!

31) यह सब देख कर उसके दूसरे सह-सेवक बहुत दुःखी हो गये और उन्होंने स्वामी के पास जा कर सारी बातें बता दीं।

32) तब स्वामी ने उस सेवक को बुला कर कहा, ’दृष्ट सेवक! तुम्हारी अनुनय-विनय पर मैंने तुम्हारा वह सारा कजऱ् माफ़ कर दिया था,

33) तो जिस प्रकार मैंने तुम पर दया की थी, क्या उसी प्रकार तुम्हें भी अपने सह-सेवक पर दया नहीं करनी चाहिए थी?’

34) और स्वामी ने क्रुद्ध होकर उसे तब तक के लिए जल्लादों के हवाले कर दिया, जब तक वह कौड़ी-कौड़ी न चुका दे।

35) यदि तुम में हर एक अपने भाई को पूरे हृदय से क्षमा नहीं करेगा, तो मेरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करेगा।’’

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में येसु ने एक निर्दय सेवक के बारे में बताया जो अपने स्वामी से क्षमा का उपहार प्राप्त करता है, लेकिन वह अपने सह- सेवक को क्षमा करने से इंकार कर देता है। यह दृष्टान्त जहाँ एक ओर ईश्वर की क्षमाशीलता को दर्शाता है, वहीँ हमें अपने अपराधियों को क्षमा करने के लिए आह्वान करता है।

हमारे जीवन में हम देखते हैं कि जब हमारी बारी आती है, तो हम औरों से हमारी बड़ी से बड़ी गलती की भी क्षमा की उम्मीद करते हैं पर जब दूसरों को क्षमा देने की बात आती है तो फिर हमें वहाँ पर न्याय चाहिए होता है। यही माविय प्रवृति है। अगर ईश्वर हमारे हर-एक गुनाह के अनुसार हमारे साथ बर्ताव करता तो बताओ कौन उनके सामने टिक सकता जैसा के भजन संहिंता 130:3 में हम पढ़ते है - "प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?"

जिस तरह से ईश्वर हमारे साथ बर्ताव करता है, हम कितना दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव कर पाते हैं। हम तो हमारी स्वार्थी प्रवृति के शिकार हैं और सिर्फ खुद का भला सोचते हैं। पर हमें याद रहे कि ऐसी प्रवृति तो सांसारिक है, और हम सांसारिक नहीं स्वर्गिक हैं। इसलिए हमारे मनोभाव स्वर्ग के मुताबिक होने चाहिए। संत मत्ती 5:48 में येसु कहते हैं - "इसलिए तुम पूर्ण बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।" और संत लूकस इसी बात को थोड़ा सा अलग रूप में पेश करते हैं - "अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो।" पूर्णता का आह्वान ईश्वर के समान उदार और प्रेममय क्षमा करने का आह्वान है। प्रभु हमें सिर्फ पूर्णता के जीवन का आह्वान ही नहीं देते, पर इस आह्वान को अपने जीवन में साकार करने के लिए साधन भी मुहैया कराते हैं और वह साधन, निश्चित रूप से, पवित्र आत्मा है, जिसे संत पौलुस ईश्वर के प्रेम का आत्मा कहता है, जिसे ईश्वर ने हमारे दिलों में रोपित किया है।

जब हम आत्मा से संचालित जीवन जियेंगे, तो हम हमारे स्वर्गिक पिता जैसा प्यार और क्षमा दूसरों को दिखा पाएंगे।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

In today's gospel, Jesus tells of an unforgiving servant who receives the gift of forgiveness from his master, but refuses to forgive his co-servant. While this parable shows God's forgiveness on the one hand, it calls on us to forgive our fellow brothers or sisters on the other hand.

In our lives we see that when it is our turn, we expect forgiveness of even our biggest mistake from others, but when it comes to forgiving others, and then we need justice there. This is the social trend. If God treats us according to our every wrongdoing, then, who can stand in front of Him, as we read in Psalm 130: 3 - "Lord! If you remember our sins, then who will stand?"

How much are we able to treat others as God treats us? We are victims of our selfish tendencies and think only of ourselves. But let us remember that such a tendency is worldly and we are heavenly, not earthly. Therefore our attitude should be in accordance with heaven. In St. Matthew 5:48, Jesus says - "Therefore, be perfect, as your heavenly Father is perfect." And Saint Luke presents this in a slightly different form- "Be merciful as your heavenly Father is merciful."

The call to perfection is a call to generous and loving forgiveness like God. The Lord not only gives us the call to a life of perfection, but also provides the means to make this call come true in our lives and that means, of course, is the Holy Spirit, which Saint Paul calls the Spirit of God's love, Which God has planted in our hearts.

When we live a spirit-driven life, we will be able to show to others the love and forgiveness like our Heavenly Father.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)


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Praise the Lord!