चक्र ’अ’ - वर्ष का अट्ठाइसवाँ समान्य इतवार



📒 पहला पाठ :इसायाह का ग्रन्थ 25:6-10a

6) विश्वमण्डल का प्रभु इस प्रर्वत पर सब राष्ट्रों के लिए एक भोज का प्रबन्ध करेगाः उस में रसदार मांस परोसा जायेगा और पुरानी तथा बढ़िया अंगूरी।

7) वह इस पर्वत पर से सब लोगों तथा सब राष्ट्रों के लिए कफ़न और शोक के वस्त्र हटा देगा,

8) श्वह सदा के लिए मृत्यु समाप्त करेगा। प्रभु-ईश्वर सबों के मुख से आँसू पोंछ डालेगा। वह समस्त पृथ्वी पर से अपनी प्रजा का कलंक दूर कर देगा। प्रभु ने यह कहा है।

9) उस दिन लोग कहेंगे - “देखो! यही हमारा ईश्वर है। इसका भरोसा था। यह हमारा उद्धार करता है। यही प्रभु है, इसी पर भरोसा था। हम उल्लसित हो कर आनन्द मनायें, क्योंकि यह हमें मुक्ति प्रदान करता है।“

10) इस पर्वत पर प्रभु का हाथ बना रहेगा।

📕 दूसरा पाठ: फ़िलिप्पियों 4:12-14, 19-20

12) मैं दरिद्रता तथा सम्पन्नता, दोनों से परिचित हूँ। चाहे परितृप्ति हो या भूख, समृद्धि हो या अभाव -मुझे जीवन के उतार-चढ़ाव का पूरा अनुभव है।

13) जो मुझे बल प्रदान करते हैं, मैं उनकी सहायता से सब कुछ कर सकता हूँ।

14) फिर भी आप लोगों ने संकट में मेरा साथ देकर अच्छा किया।

19) मेरा ईश्वर आप लोगों को ईसा मसीह द्वारा महिमान्वित कर उदारतापूर्वक आपकी सब आवश्यकताओं को पूरा करेगा।

20) हमारे पिता ईश्वर को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 22:1-14

1) ईसा उन्हें फिर दृष्टान्त सुनाने लगे। उन्होंने कहा,

2) ’’स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जिसने अपने पुत्र के विवाह में भोज दिया।

3) उसने आमन्त्रित लोगों को बुला लाने के लिए अपने सेवकों को भेजा, लेकिन वे आना नहीं चाहते थे।

4) राजा ने फिर दूसरे सेवकों को यह कहते हुए भेजा, ’अतिथियों से कह दो- देखिए! मैंने अपने भोज की तैयारी कर ली है। मेरे बैल और मोटे-मोटे जानवर मारे जा चुके हैं। सब कुछ तैयार है; विवाह-भोज में पधारिये।’

5) अतिथियों ने इस की परवाहा नहीं की। कोई अपने खेत की और चला गया, तो कोई अपना व्यापार देखने।

6) दूसरे अतिथियों ने राजा के सेवकों को पकड़ कर उनका अपमान किया और उन्हें मार डाला।

7) राजा को बहुत क्रोध आया। उसने अपनी सेना भेज कर उन हत्यारों का सर्वनाश किया और उनका नगर जला दिया।

8) ’’तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’विवाह-भोज की तैयारी तो हो चुकी है, किन्तु अतिथि इसके योग्य नहीं ठहरे।

9) इसलिए चैराहों पर जाओ और जितने भी लोग मिल जायें, सब को विवाह-भोज में बुला लाओ।’

10) सेवक सड़कों पर गये और भले-बुरे जो भी मिले, सब को बटोर कर ले आये और विवाह-मण्डप अतिथियों से भर गया।

11) ’’राजा अतिथियों को देखने आया, तो वहाँ उसकी दृष्टि एक ऐसे मनुष्य पर पड़ी, जो विवाहोत्सव के वस्त्र नहीं पहने था।

12) उसने उस से कहा, ’भई विवाहोत्सव के वस्त्र पहने बिना तुम यहाँ कैसे आ गये?’ वह मनुष्य चुप रहा।

13) तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’इसके हाथ-पैर बाँध कर इसे बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’

14) क्योंकि बुलाये हुए तो बहुत हैं, लेकिन चुने हुए थोडे़ हैं।’’

📚 मनन-चिंतन

अक्सर जब हम उन चीजों को नहीं करते हैं जिन्हें हमें करना चाहिये तो हमारे पास अपने को सही ठहराने के लिए कई बहाने होते हैं; अपनी गलतियों को स्वीकार करने और जीवन सुधार का हम विरोध करते हैं। जबकि ये बहाने हमें तंग स्थितियों से कभी-कभी बाहर निकाल सकते हैं, वे हमारे बढ़ने में और आध्यात्मिक एवं व्यक्तिगत विकास में बाधा हैं। ईश्वर की क्षमाशीलता हमारे लिए जीवनसुधार नहीं करने का बहाना नहीं बनना है; हमें उसकी पुकार का जवाब देना होगा या पीछे रह जाना होगा।

पहले पाठ में, नबी इसायस ईश्वर की भलाई की घोषणा करता है, जो पवित्र पर्वत पर सभी लोगों के लिए भोज तैयार करता है। ईश्वर चाहता है कि सभी लोग उसके राज्य में उसके साथ हों।

सुसमाचार का आज का दृष्टांत हमें बताता है कि एक राजा अपने दूतों को अपने बेटे की शादी की दावत के लिए आमंत्रित मेहमानों को बुलाने भेजता है। लेकिन उन्होंने आने से मना कर दिया। राजा अभी भी मेहमानों के साथ धीरज रखता है और दूसरे सेवकों को भेजता है। लेकिन फिर से आमंत्रित लोग बहाने बनाते हैं और उन्होंने दुर्व्यवहार किया और नौकरों को मार डाला, जिससे राजा क्रुद्ध हो जाता और उन्हें मार डालता है। चूंकि भोज सब तय है, राजा अब अपने दूतों को चौराहों में भेजता है ताकि वे मिलने वाले सभी लोगों को भोज के लिए बुला लायें। और सेवक सड़कों पर निकल गए और वे सब को बुला लाये जिससे विवाह मंडप अतिथियों से भर गया।

सबसे पहले यह दृष्टांत हमें बताता है कि मुक्ति मसीह में केंद्रित है; यह हमेशा ईश्वर है जो मुक्ति के लिए पहल करता है। यह प्रक्रिया शुरू करने के लिए हम कुछ भी नहीं कर सकते। विश्वास हमेशा एक दान है और विश्वास के माध्यम से ही हम आमंत्रित किये जाते है।

दूसरी बात, यह दृष्टांत हमें ईश्वर की क्षमाशीलता की याद दिलाती है, जो हमें त्याग नहीं देता है। इस दृष्टांत में सेवक न केवल उन नबियों के प्रतीक हैं जिन्हें इस्राएलियों ने अस्वीकार कर दिया था, बल्कि प्रेरितों और विशेष दूतों के भी हैं जिनको ईश्वर हमारे जीवन में भेजते हैं, हमें उनकी पुकार की याद दिलाते हैं। ईश्वर हमें अपने वचन के माध्यम से, प्रार्थना के माध्यम से बुला सकता है; वह हमें उपदेश, शिक्षा और गवाहों के माध्यम से बुला सकता है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि हम ईश्वर का आह्वान सुनें, और उनका कार्य करने में बहाना न बनाये। येसु के शिष्य होने की हमारी प्रतिबद्धता में देरी करने के लिए हम अक्सर अनुचित बहाने ढूंढ़ते हैं। कई बार, हम अपने परिवार के रिश्ते या खुशी को ईश्वर की इच्छा को पूरी करने की इच्छा से अधिक महत्त्व देते हैं। येसु निश्चित रूप से यह नहीं कह रहे हैं कि हम इन दायित्वों को भूल जायें, लेकिन यह कि ईश्वर की इच्छा हमारे जीवन की पहली प्राथमिकता बने। अगर हम अपने जीवन में ईश्वर को पहला स्थान देते हैं तो बाकि सब अपने आप से सही हो जाएंगे। जैसा कि हम मत्ति 6:33 में पढ़ते हैं, "तुम सबसे पहले ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो और ये सभी चीजें यों ही मिल जायेंगी।"

भोजन बाइबल का एक पसंदीदा प्रतीक है। यह जीवन, समावेशिता, आनंद और उत्सव के लिए खड़ा है। प्रभु येसु ने अपने जीवन में इस प्रतीक का खूब उपयोग किया और इसे सुसमाचार का प्रचार का एक जीवंत माध्यम बनाया। पापियों और नाकेदारों के साथ भोजन करते हुए येसु ने “टेबल फेलोशिप” को गरीबों और तिरस्कृत लोगों के लिए सुसमाचार का एक प्रभावी शैली बनायी। पवित्र यूखरिस्त भोजन की स्थापना के साथ वह हमें अपने जीवन में साझा करने के लिए आमंत्रित करता है।

क्या ईश्वर का वचन का जवाब देने में आप बहाने बनाते हैं? आप क्यों ईश्वर के पास आना नहीं चाहते हैं? ऐसा क्या या कौन है जो आपको ईश्वर को अपने जीवन में प्रधम स्थान देने में बाधा बनती है? अपने बहाने छोड़ दो और प्रभु के आनंद में भाग लो !

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

Often when we don't do the things we are supposed to do we have our excuses to justify our actions, refuse to accept our mistakes and resist change. While these excuses may get us out of tight situations they can also hinder us from growing and becoming the people we are called to be. In our faith commitment, while we know that God is infinitely patient, we cannot make excuses for our conversion; we have to respond to His call or be left behind.

In the first reading, Isaiah proclaims the goodness of God, who is preparing a banquet for all his people on the holy mountain. God wants all people to be with him in his kingdom.

The Gospel parable tells us that a king sends out his messengers to summon the invited guests for the marriage feast of his son. But they refuse to come. The king is still patient with the guests and sends a second reminder but again those invited scorn the invitation, make excuses and they maltreated and killed the servants, which incenses the king and he destroys them. Since the banquet is all set, the king now sends his messengers to invite anyone whom they can find. And the servants went out into the streets and gathered all whom they found, both good and bad; so the banquet hall was filled with guests.

The parable tells us, firstly, salvation is centred in Christ; it is always God who takes the initiative for salvation. We cannot do anything to start the process, faith is always a gift and it is through our faith that we are invited, as it were, to a royal banquet.

Secondly, the parable reminds us of the patience of God, who does not give up on us. The servants in the parable stand not only for the prophets whom the Israelites rejected but also for the apostles and special messengers whom God sends into our lives to remind us of his call. God can call us through His word, through prayer; he can call us through the preaching, teaching and witnessing.

What is important is to heed God’s call when it comes and not to make excuses. We often make unjustifiable excuses to delay our commitment to being a disciple of Jesus. At times, we put our family relationship or joy higher than our willingness to do God’s will. Jesus is certainly not saying that we forget these obligations but that God’s will must be the first priority of our lives. If we can put God first, everything else will fit in place. As we read in Mt 6:33, “Seek first the Kingdom and his righteousness, and all these things shall be yours as well.”

The meal is a favourite symbol of the Bible. It stands for life, inclusiveness, celebration. Jesus made use of this symbol in his life and preaching lavishly. The table fellowship of Jesus with sinners and tax collectors was his way of proclaiming the good news to the poor. With the institution of the Eucharistic meal he invites us to share in his very life.

What are the usual excuses that you make not to respond to God’s call? What is it that prevents you from coming to the Lord’s banquet? How can you balance your commitment to your family and work with your relationship to the Lord? Give up your excuses and come to the joy of the Lord!

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)

मनन-चिंतन - 2

येसु मसीह के इस संसार में जन्म लेने से इस पूरे संसार को एक नया मोड़ मिला है। येसु के इस संसार में आने से कई ईश्वरीय रहस्य प्रकट हुए जिसे हम शायद ही जान पाते। येसु के जन्म के बाद मॉं मरियम और यूसुफ बालक येसु को प्रभु को अर्पित करने के लिए येरुसालेम ले गये। वहॉं पर सिमेयोन नामक एक धर्मी तथा भक्त पुरुष ने ईसा को अपनी गोद में ले लिया और ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘यह गैर-यहुदियों के प्रबोधन के लिए ज्योति है और तेरी प्रजा इस्राएल का गौरव।’’ (योहन 2:32) प्रभु येसु ने अपने वचनो एवं दृष्टांतों द्वारा कई ईश्वरीय रहस्य हम सब को दिये है। आज का दृष्टांत समस्त लोगों की मुक्ति का निमंत्रण लेकर आता है। आज के दृष्टांत का अहम संदेश यह है कि मुक्ति केवल यहुदियों के लिए नहीं परंतु गैर-यहुदियों के लिए भी है।

आज प्रभु येसु हमारे सामने विवाह उत्सव का दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टांत में राजा ने अपने पुत्र के विवाह के अवसर पर एक बड़ा भोज का उत्सव रखा परन्तु निमंत्रित लोगो के भोज में आने से इंकार करने पर राजा ने रास्ते और चौराहों पर जो भी मिले उन्हें लाने का आदेश दिया। राजा ने लाये गये लोगों में से एक व्यक्ति को पाया जो विवाह उत्सव का वस्त्र नही पहने हुए था और राजा ने उसको दण्डित किया। इस दृष्टांत को सुनने के बाद हमारे मन में राजा के व्यवहार के प्रति अजीबोगरीब भावनाए उत्पन्न होती होगी कि यह राजा तो बड़ा अजीब है सबसे पहले तो वह रास्ते में मिलने वाले सभी लोगो को लाने को कहता है और जब कोई एक व्यक्ति बिना विवाह वस्त्र पहने हुए पाया जाता है तो उसे दण्डित भी करता है। राजा को तो खुश होना चाहिए कि कम से कम वह व्यक्ति विवाह उत्सव में तो आया। अगर राजा ने सबको बुलाया तो उसे उन सब को अपनाना चाहिये था। हो सकता है वह व्यक्ति गरीब हो और उसके पास विवाह वस्त्र खरीदने के लिए समय या धन न हो।

इसे समझने के लिए आइये हम मनन चिंतन और अवलोकन करें- राजा ने जब चौराहो पर मिलने वाले हर एक व्यक्ति को, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, सबको लाने का आदेश दिया तब वहॉं पर यह व्यक्ति अकेला नही था परन्तु उसके साथ-साथ बहुत सारे व्यक्ति थे और शायद उन व्यक्तियों के पास भी विवाह के वस्त्र नही होंगे। लेकिन जब वे सब विवाह उत्सव में प्रवेश करते हैं तो केवल एक व्यक्ति ही बिना विवाह उत्सव के वस्त्र के था। इसका मतलब यह है कि विवाह उत्सव के वस्त्र या तो द्वार पर रखे गये थे या ये वस्त्र उन्हें दिये गये थे जिससे वे उन्हे पहन कर अंदर प्रवेश कर सकें। विवाह वस्त्र को पहनना उनकी एक परम्परा रही होगी। विवाह उत्सव के वस्त्र विवाह भोज के लिए अत्यंत जरूरी या अनिवार्य थे ।

यहुदी जनता ईश्वर के करीब थी और शुरू से ईश्वर से जुडी हुई थी। ‘‘मैं तुम्हें और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशजों को वह भूमि प्रदान करूँगा, जिस में तुम निवास करते हो, अर्थात् कनान का समस्त देश। उस पर सदा के लिए तुम लोगों का अधिकार होगा और मैं तुम्हारे वंशजों का ईश्वर होऊॅंगा।’’ (उत्पत्ति 17:18)। ‘‘तुम इस्राएलियों से यह कहोगे - प्रभु तुम्हारे पूर्वजों के ईश्वर, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब के ईश्वर ने मुझे तुम लोगो के पास भेजा है’’(निर्गमन 3:15)। ‘‘मैं उनके पूर्वजों को राष्ट्रों के देखते-देखते मिस्र से निकाल लाया। मैं उनके लिए निर्धारित विधान का स्मरण करूँगा और मैं, प्रभु उनका अपना ईश्वर होऊॅंगा’’ (लेवी 26:45)। ‘‘वह मेरी प्रजा हो और मैं उसका प्रभु होऊॅं’’ (एजे़किएल 1:11)। ईश्वर ने स्वर्ग राज्य का निमंत्रण सबसे पहले यहुदियों को दिया परन्तु उसे उन्होने अस्वीकार किया। इसके बाद प्रभु ने नबियों को भेजा जिससे वे नबियों की सुनें, परन्तु उन्होने उनका अपमान किया और उन्हें मार डाला। ईश्वर ने उनके इस बर्ताव और घमण्ड के कारण उनका और उनके नगर येरुसालेम का सर्वनाश होने दिया। ‘‘येरुसालेम! येरुसालेम! तू नबियों की हत्या करता है और अपने पास भेजे हुए लोगों को पत्थरों से मार देता है। मैंने कितनी बार चाहा कि तेरी सन्तान को वैसे ही एकत्र कर लूँ, जैसे मुर्गी अपने चूजों को अपने डैनों के नीचे एकत्र कर लेती है, परन्तु तुम लोगों ने इनकार कर दिया। देखो, तुम्हारा घर उजाड़ छोड़ दिया जायेगा। मैं तुम से कहता हूँ। अब से तुम मुझे नहीं देखोगे, जब तक तुम यह न कहोगे-धन्य हैं वह, जो प्रभु के नाम पर आते हैं।’’ (मत्ती 23:37-39)।

प्रभु येसु के इस संसार में आने के बाद स्वर्गराज्य सब के लिए, हर प्रकार के जाति, वर्ग और लोगों के लिए खुल गया और दुनिया के हर कोने में रहने वाले सभी लोगों के लिए आमंत्रण मिला। और इस आमंत्रण में हम सब भी शामिल हैं। परन्तु इस विवाह उत्सव में प्रवेश करने से पूर्व हमें इसके लिए तैयारी करने की आवश्यकता है। अन्यथा हमंस उस मनुष्य के समान जिसने विवाह उत्सव के वस्त्र नहीं पहने थे हाथ-पैर बॉंधकर अन्धकार में फेंक दिया जायेगा। विवाह उत्सव का वस्त्र अर्थात् अपने पुराने वस्त्र को उतार कर नये वस्त्र को पहनना हैं। ‘‘आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है। आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है’’ (एफेसियों 22:24)। अर्थात् अपने पुराने पापमय स्वभाव को छोड़ कर एक पवित्र और नवीन स्वभाव को अपनाने की जरूरत है। और यह नया स्वभाव प्रभु येसु का मनोभाव और उसकी धार्मिकता है। हम सब को स्वर्गराज्य में प्रवेश करने के लिए प्रभु येसु का मनोभाव या उसकी धार्मिकता को अपनाने की जरूरत है।

आज का दृष्टांत हमें यह बताता है कि स्वर्गराज्य सब के लिए है न केवल एक ही जाति या एक ही प्रजाति के लिए। परन्तु बहुतो के अस्वीकार के कारण वे उसमें प्रवेश नही कर पाते हैं। पहले यहुदियों ने येसु मसीह को मानने से इनकार किया और बाद में उन लोगों ने जो येसु के मनोभाव या धार्मिकता को अस्वीकार करते हैं। यहॉं ख्रीस्त का मनोभाव अपनाने का मतलब केवल ख्रीस्तीय धर्म अपनाना नही परन्तु ख्रीस्त के मन के अनुसार अपने मन को बनाना या आचरण करना है और यह मनोभाव या आचरण गैर ख्रीस्तीयों के जीवन में भी पाया जा सकता है।

आईये हम सब अपने मनोभाव को ख्रीस्त के मनोभाव के अनुसार बनायें (फिलिप्पियों 2:5)।

फादर डेन्नीस तिग्गा


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Praise the Lord!