बुधवार - आगमन का दूसरा सप्ताह



पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 40:25-31

25) परमपावन ईश्वर कहता है, “तुम मेरी तुलना किस से करना चाहते हो? मेरी बराबरी कौन कर सकता है?“

26) आकाश की ओर दृष्टि लगाओ। किसने यह सब बनाया है? उसी ने, जो नक्षत्रों का समूह फैलाता और एक-एक का नाम ले कर पुकारता है। उसका सामर्थ्य इतना महान् है और उसका तेज इतना अदम्य कि एक भी नक्षत्र अविद्यमान नहीं रहता।

27) याकूब! तुम यह क्यों कहते हो, इस्राएल! तुम यह क्यों बोलते होः “प्रभु मेरी दुर्दशा पर ध्यान नहीं देता, मेरा ईश्वर मुझे न्याय नहीं दिलाता“?

28) क्या तुम यह नहीं जानते, क्या तुमने यह नहीं सुना कि प्रभु अनादि-अनन्त ईश्वर है, वह समस्त पृथ्वी का सृष्टिकर्ता है? वह कभी क्लान्त अथवा परिश्रन्त नहीं होता। कोई भी उसकी प्रज्ञा की थाह नहीं ले सकता।

29) वह थके-माँदे को बल देता और अशक्त को सँभालता है।

30) जवान भले ही थक कर चूर हो जायें और फिसल कर गिर पड़ें,

31) किन्तु प्रभु पर भरोसा रखने वालों को नयी स्फूर्ति मिलती रहती है। वे गरुड़ की तरह अपने पंख फैलाते हैं; वे दौड़ते रहते हैं, किन्तु थकते नहीं, वे आगे बढ़ते हैं, पर शिथिल नहीं होते।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 11:28-30

28) ’’थके-माँदे और बोझ से दबे हुए लोगो! तुम सभी मेरे पास आओ। मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।

29) मेरा जूआ अपने ऊपर ले लो और मुझ से सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ। इस तरह तुम अपनी आत्मा के लिए शान्ति पाओगे,

30) क्योंकि मेरा जूआ सहज है और मेरा बोझ हल्का।’’


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