चक्र - ब - प्रभु येसु का बपतिस्मा



पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 55:1-11

1) “तुम सब, जो प्यासे हो, पानी के पास चले आओ। यदि तुम्हारे पास रुपया नहीं हो, तो भी आओ। मुफ़्त में अन्न ख़रीद कर खाओ, दाम चुकाये बिना अंगूरी और दूध ख़रीद लो।

2) जो भोजन नहीं है, उसके लिए तुम लोग अपना रुपया क्यों ख़र्च करते हो? जो तृप्ति नहीं दे सकता है, उसके लिए परिश्रम क्यों करते हो? मेरी बात मानो। तब खाने के लिए तुम्हें अच्छी चीज़ें मिलेंगी और तुम लोग पकवान खा कर प्रसन्न रहोगे।

3) कान लगा कर सुनो और मेरे पास आओ। मेरी बात पर ध्यान दो और तुम्हारी आत्मा को जीवन प्राप्त होगा। मैंने दाऊद से दया करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार मैं तुम लोगों के लिए, एक चिरस्थायी विधान ठहराऊँगा।

4) मैंने राष्ट्रों के साक्य देने के लिए दाऊद को चुना और उसे राष्ट्रों का पथप्रदर्शक तथा अधिपति बना दिया है।

5) “तू उन राष्ट्रों को बुलायेगी, जिन्हें तू नहीं जानती थी और जो तुझे नहीं जानते थे, वे दौड़ते हुए तेरे पास जायेंगे। यह इसलिए होगा कि प्रभु, तेरा ईश्वर, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुझे महिमान्वित करेगा।

6) “जब तक प्रभु मिल सकता है, तब तक उसके पास चली जा। जब तक वह निकट है, तब तक उसकी दुहाई देती रह।

7) पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेगा; क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है।

8) प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं।

9) जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।

10) जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके,

11) उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।

दूसरा पाठ : 1 योहन 5:1-9

1) जो यह विश्वास करता है कि ईसा ही मसीह हैं, वह ईश्वर की सन्तान है और जो जन्मदाता को प्यार करता है, वह उसकी सन्तान को भी प्यार करता है।

2) इसलिए यदि हम ईश्वर को प्यार करते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो हमें ईश्वर की सन्तान को भी प्यार करना चाहिए।

3) ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना- यही ईश्वर का प्रेम है। उसकी आज्ञाएं भारी नहीं,

4) क्योंकि ईश्वर की हर सन्तान संसार पर विजयी होती है। वह विजय, जो संसार को पराजित करती है, हमारा विश्वास ही है।

5) संसार का विजयी कौन है? केवल वही, जो यह विश्वास करता है कि ईसा ईश्वर के पुत्र हैं।

6) ईसा मसीह जल और रक्त से आये - न केवल जल से, बल्कि जल और रक्त से। आत्मा इसके विषय में साक्ष्य देता है, क्योंकि आत्मा सत्य है।

7) इस प्रकार ये तीन साक्ष्य देते हैं-

8) आत्मा, जल और रक्त और तीनों एक ही बात कहते हैं।

9) हम मनुष्यों का साक्ष्य स्वीकार करते हैं, किन्तु ईश्वर का साक्ष्य निश्चय ही कहीं अधिक प्रामाणिक है। ईश्वर ने अपने पुत्र के विषय में साक्ष्य दिया है।

सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:7-11

7) वह अपने उपदेश में कहा करता था, ’’जो मेरे बाद आने वाले हैं, वह मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं तो झुक कर उनके जूते का फ़ीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।

8) मैंने तुम लोगों को जल से बपतिस्मा दिया है। वह तुम्हें पवित्र आत्मा से बपतिस्मा देंगे।’’

9) उन दिनों ईसा गलीलिया के नाज़रेत से आये। उन्होंने यर्दन नदी में योहन से बपतिस्मा ग्रहण किया।

10) वे पानी से निकल ही रहे थे कि उन्होंने स्वर्ग को खुलते और आत्मा को कपोत के रूप में अपने ऊपर आते देखा।

11) और स्वर्ग से यह वाणी सुनाई दी, ’’तू मेरा प्रिय पुत्र है। मैं तुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’

📚 मनन-चिंतन

कौन ऐसा व्यक्ति है जो स्वर्गीय पिता का पुत्र या पुत्री कहलाना नहीं चाहेगा? आज हम यर्दन नदी में प्रभु येसु के बपतिस्मा का पर्व मनाते हैं। जब वह योहन बप्तिस्ता से यर्दन नदी में बपतिस्मा ग्रहण करते हैं तो स्वर्ग से यह वाणी सुनाई देती है, “तू मेरा प्रिय पुत्र है। मैं तुझ पर अत्यंत प्रसन्न हूँ।” बपतिस्मा प्रभु येसु के मिशन कार्य को प्रारम्भ करने का संकेत था। यह वास्तव में उचित था कि स्वर्गीय पिता प्रभु येसु को उनकी वास्तविक पहचान याद दिलाते कि यह वही पुत्र है जिसे संसार की मुक्ति के लिए स्वर्गीय पिता ने भेजा है क्योंकि ईश्वर संसार को असीम प्यार करते हैं (देखें योहन ३:१६)। यदि प्रभु येसु ईश्वर के पुत्र हैं तो उन्हें पश्चाताप का बपतिस्मा ग्रहण करने की क्या ज़रूरत थी? क्या उन्होंने पाप किए थे क्योंकि योहन बप्तिस्ता तो पश्चाताप का बपतिस्मा देता था? (मत्ती ३:२)।

प्रभु येसु पापियों को बचाने ही इस दुनिया में आए, इसके लिए चाहे उन्हें कोई भी क़ीमत क्यों ना चुकानी पड़े, इसीलिए उन्होंने क्रूस की कष्टकारी मृत्यु को गले लगाया। वह उन्होंने अपने पापों के कारण नहीं बल्कि हमारे पापों के लिए ऐसा किया। अगर वह हमारे पापों के लिए खुद को क़ुर्बान कर सकते थे तो क्या पश्चाताप का बपतिस्मा ग्रहण नहीं कर सकते थे? वह पापी मानवता की ख़ातिर पश्चाताप का बपतिस्मा ग्रहण करते हैं। जब स्वर्गीय पिता उन्हें अपना प्रिय पुत्र घोषित करते हैं तो ये शब्द हमें याद दिलाते हैं कि जो भी अपने पापों पर पश्चाताप करते हुए ईश्वर की शरण में आता है वह उसका प्रिय पुत्र या पुत्री बन जाता है।

हमने भी प्रभु येसु में बपतिस्मा ग्रहण किया है। माता कलिसिया हमें सिखाती है कि बपतिस्मा के द्वारा हम ईश्वर के प्रिय पुत्र-पुत्रियाँ बन जाते हैं, क्योंकि हमारे सभी पाप क्षमा हो जाते हैं। साथ ही हम ईश्वर की चुनी हुई प्रजा-कलिसिया के सदस्य बन जाते हैं। हम अपने बपतिस्मा द्वारा पुराना स्वभाव त्यागकर एक नए व्यक्ति बन जाते हैं। हमारा बपतिस्मा हमारे लिए अन्य संस्कारों को ग्रहण करने का मार्ग खोल देता है जो हमें और भी गहराई से ईश्वर की संताने बनने में मदद करते हैं। लेकिन हम ईश्वर की प्रिय सन्तानें सदा बने रहने के लिए क्या करना पड़ेगा?

आज के पाठ में सन्त योहन अपने पत्र में हमें याद दिलाते हैं कि यदि हम अपने स्वर्गीय पिता को प्यार करते हैं तो हम उनकी आज्ञाओं का पालन भी करेंगे। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना उसके साथ हमारे सम्बन्ध को बनाए रखने का प्रमाण है। जो ईश्वर को प्यार करते हैं, वह उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, जो ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हैं, ईश्वर उन्हें प्यार करता है और उनमें निवास करता है। जब ईश्वर हम में निवास करते हैं तो हम उनके प्रिय पुत्र-पुत्रियाँ बन जाते हैं। और कौन ऐसा व्यक्ति है जो ईश्वर की प्रिय सन्तान नहीं बनना चाहेगा?

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Who does not want to be called beloved son or daughter of the heavenly Father? Today we celebrate the feast of the baptism of our Lord in the Jordan. When he receives baptism from John, a voice from heaven is heard, “You are my son, the beloved, with whom I am well pleased.” Baptism marked the beginning of Jesus’ public ministry. It was very appropriate that heavenly father assures Jesus of his real identity, the Son who is sent to save the world because God the father loved the world so much that he sent his son (cf John 3:16). If Jesus was the son of God then why should he receive the baptism of repentance? Did he commit sins, because John the Baptist was preaching the baptism of repentance (Matthew 3:2).

Jesus came to save us and in order to do so he was ready to pay any price, he accepted to die a painful death on the cross. It was not for his sins, but as a repentance for our sins. If he could die for our sins, then could he not receive the baptism of repentance for our sins? He represented the sinful humanity to receive the baptism of repentance. When heavenly father acknowledges him to be his beloved son with whom he is well pleased, these words also indicate that whoever repents and turns back to God, becomes his beloved son or daughter.

We also have received the baptism in the Lord. Mother church teaches us that our baptism makes us beloved children of God, because our sins, including original sin, are forgiven. We also become members of the Church, the family of the saved people. Through our baptism we die to sin and become a new identity, a new person. Our baptism also opens the door to other saving sacraments, which make us all the more beloved children of God. But how do we continue to remain as the beloved children of God?

St. John in his letter reminds us that if we love our heavenly father then we need to keep his commandments. Keeping God’s commandments is assurance of our relationship with him. Those who love God, they will keep his commandments and those who keep his commandments God will love them and dwell in them, when God dwells in us we become the beloved son or daughter of God. And who does not want to be called the beloved son or daughter of God?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!