चक्र -ब - चालीसे का पहला रविवार



पहला पाठ : उत्पत्ति ग्रन्थ 9:8-15

8) ईश्वर ने नूह और उसके पुत्रों से यह भी कहा,

9) ''देखो! मैं तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए अपना विधान ठहराता हूँ!

10) और जो प्राणी तुम्हारे चारों ओर विद्यमान है, अर्थात पक्षी, चौपाये और सब जंगली जानवर, जो कुछ जहाज से निकला है और पृथ्वी भर के सब पशु-उन प्राणियों के लिए भी।

11) मैं तुम्हारे लिए यह विधान ठहराता हूँ-कोई भी प्राणी जलप्रलय से फिर नष्ट नहीं होगा और फिर कभी कोई जलप्रलय पृथ्वी को उजाड़ नहीं बनायेगा।''

12) ईश्वर ने यह भी कहा, ''मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ रहने वाले सभी प्राणीयों के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो विधान ठहराता हूँ, उसका चिन्ह यह होगा-

13) मैं बादलों के बीच अपना इन्द्र धनुष रख देता हूँ; वह पृथ्वी के लिए ठहराये हुए मेरे विधान का चिन्ह होगा।

14) जब मैं पृथ्वी के ऊपर बादल एकत्र कर लूँगा और बादलों में वह धनुष दिखाई पड़ेगा,

15) तब मैं तुम्हारे लिए और सब प्राणियों के लिए ठहराये अपने विधान को याद करूँगा और फिर कभी जलप्रलय सभी शरीरधारियों का विनाश नहीं करेगा।

दूसरा पाठ : सन्त पेत्रुस का पहला पत्र 3:18-22

18) मसीह भी एक बार पापों के प्रायश्चित के लिए मर गये, धर्मी अधर्मियों के लिए मर गये, जिससे वह हम लोगों को ईश्वर के पास ले जाये, वह शरीर की दृष्टि से तो मारे गये, किन्तु आत्मा द्वारा जिलाये गये।

19) वह इसी रूप में कैदी आत्माओं को मुक्ति का सन्देश सुनाने गये।

20) उन लोगों ने बहुत पहले ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था, जब वह धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा था और नूह का जहाज़ बन रहा था। उस जहाज में थोड़े ही अर्थात् आठ व्यक्ति जल से बच गये है।

21) यह बपतिस्मा का प्रतीक है, जो अब आपका उद्धार करता है। बपतिस्मा का अर्थ शरीर का मैल धोना नहीं, बल्कि शुद्ध हृदय से अपने को ईश्वर के प्रति समर्पित करना है। यह बपतिस्मा ईसा मसीह के पुनरुत्थान द्वारा हमारा उद्धार करता है।

22) ईसा स्वर्ग गये और स्वर्ग के सभी दूतों को अपने अधीन कर ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं।

सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:12-15

12) इसके बाद आत्मा ईसा को निर्जन प्रदेश ले चला।

13) वे चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। वे बनैले पशुओं के साथ रहते थे और स्वर्गदूत उनकी सेवा-परिचर्या करते थे।

14) योहन के गिरफ़्तार हो जाने के बाद ईसा गलीलिया आये और यह कहते हुए ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे,

15) ’’समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’’

📚 मनन-चिंतन

चालीसा काल एक ऐसा समय जब हम खुद को, खुद के मन व दिल को टटोलकर देखते हैं। यह एक ऐसा समय है जब पूरी कलीसिया एक तरह से आध्यात्मिक साधना करती है। जब हम आध्यात्मिक साधना अथवा रिट्रीट के बारे में सोचते हैं, तो हम जीवन की सामान्य दिनचर्या से दूर एक विशेष स्थान पर जाने की सोचते हैं जहाँ एक अलग दिनचर्या होती है। सुसमाचार में हम पाते हैं कि येसु बस यही कर रहे हैं । वह आत्मा द्वारा निर्जन स्थान में, ले जाये जाते हैं, जहाँ वे भीड़ से दूर अकेले रहकर प्रार्थना करते हैं। वे चालीस दिनों तक वहीं रहे, जो हमारे तपस्याकाल की अवधी है।

हमारे लिए, हालांकि, चालिसा काल उस अर्थ में एक रिट्रीट नहीं है। चालीसे के आगमन का मतलब यह नहीं है कि हमारे जीवन की लय किसी भी मौलिक तरीके से बदल जाती है। दिन-प्रतिदिन के जीवन की मांग कम नहीं होती है; हम निर्जन स्थानों में नहीं जा सकते। हमें हमारे सामान्य जीवन के बीच में चालीसे को जीना है; हमारी चालीसे की रिट्रीट आध्यात्मिक साधना का अर्थ शाब्दिक, भौतिक अर्थों में सामान्य जीवन से दूर भागना नहीं है। इसका मतलब यह है कि हम अधिक आत्म-चिंतनशील बनने की कोशिश करते हैं। हालाँकि चालीसे के समय हम सुसमाचार के प्रकाश में खुद के भीतर झाँकने का प्रयास करते हैं और ईश्वर से बातचीत करते हैं, तो ऐसे में यह कहना बेहतर होगा कि चालीसा वह समय है जब हमें अधिक प्रार्थनाशील बनने के लिए कहा जाता है। प्रार्थना में, हम प्रभु को अपने जीवन के उन क्षेत्रों को दिखाने के लिए आमंत्रित करते हैं जो वास्तव में सुसमाचार के मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं और हम प्रभु से हमारे जीवन की बेहतरी के लिए माँग करते हैं।

जब येसु निर्जन स्थान में गए तो शैतान ने उनकी परीक्षा ली। दूसरे शब्दों में, कहें तो वे उस शक्ति का सामना करने के लिए सामने आये जो सुसमाचार की विरोधी है। येसु ने सुसमाचार को अपने जीवन में बिना संघर्ष के नहीं जीया । हालाँकि, सुसमाचार बताता है कि उस संघर्ष में वे अकेले नहीं थे । पिता ईश्वर उनका साथ दे रहे थे। हम पढ़ते हैं, स्वर्गदूत उनकी देखभाल व परिचर्या के लिए आते हैं। यदि येसु को उस शक्ति का सामना करना पड़ा जो सुसमाचार के विरोध में है, वही उनके अनुयायियों के साथ होना स्वाभाविक है। हमें उतना ही यथार्थवादी होना चाहिए जितना येसु थे। हमारे बाहर और हमारे भीतर गहरी व बड़ी ताकतें हैं जो सुसमाचार के विरुद्ध हैं और जो हमें सुसमाचार से दूर जाने का काम करती हैं। यदि हम इन ताकतों को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो हम उन्हें अपने में जमा करते रहेंगे। उन पर काबू पाने के लिए पहला कदम उनका सामना करना है जैसा येसु ने किया।

हम अपने दम पर ऐसा नहीं सकते। हम ईश्वर के साथ उन शक्तियों का सामना करते सकते हैं। इसलिए हम संत पौलुस के साथ कह सकते हैं - जो मुझे बल प्रदान करते हैं, मैं उनकी सहायता से सब कुछ कर सकता हूँ। आमेन।


-फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


Lent is a season when we try to take stock of ourselves. It is a time when the whole church is asked to go on a kind of retreat. When we think of a retreat, we tend to think of going away from the normal routine of life to a special place where there is a different routine. In the gospel reading we find Jesus doing just that. He is driven by the Spirit into the wilderness, to a place where he is alone, away from the crowds. He remained there for forty days, which is the length of our Lenten season. For us, however, Lent is not a retreat in that sense. The arrival of Lent does not mean that the rhythm of our lives changes in any fundamental way. The demands of day to day living do not diminish; we cannot head out into the wilderness. We have to live Lent in the midst of life; our Lenten retreat does not mean a retreat from life in the literal, physical sense. What it does mean is that we try to become more self-reflective. Because we are asked to reflect on ourselves, to look at ourselves, in the light of the gospel, it might to better to say that Lent is a time when we are called to become more prayerful. In prayer, we invite the Lord to show us those areas of our lives that are not really in keeping with the call of the gospel and we ask the Lord to help us to change for the better where that is needed.

When Jesus went into the wilderness he was tested by Satan. In other words, he came face to face with the power that is opposed to the gospel. There is a great realism about today’s gospel. Jesus did not live the gospel to the extent he did without a struggle. However, the gospel suggests that in that struggle, he was not alone. God was supporting him. In the words of the gospel reading, ‘the angels looked after him’. If Jesus had to face the power that is opposed to the gospel, the same is true of his followers. We need to be as realistic as Jesus was. There are forces outside of us and deep within us that are hostile to the values of the gospel and that work to take us in very different directions to that of the gospel. Not to take these forces seriously is to submit to them. The first step in overcoming them is to face them as Jesus did. Lent is the time to do that. We do not do this on our own. We face them with the Lord, convinced that, as St Paul reminds us, where the forces opposed to the gospel abound, God’s grace abounds all the more.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore)


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Praise the Lord!