चक्र -ब - पुण्य शुक्रवार



पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 52:13-53:12

13) देखो! मेरा सेवक फलेगा-फूलेगा। वह महिमान्वित किया जायेगा और अत्यन्त महान् होगा।

14) उसकी आकृति इतनी विरूपित की गयी थी कि वह मनुय नही जान पड़ता था; लोग देख कर दंग रह गये थे।

15) उसकी ओर बहुत-से राष्ट्र आश्चर्यचकित हो कर देखेंगे और उसके सामने राजा मौन रहेंगे; क्योंकि उनके सामने एक अपूर्व दृश्य प्रकट होगा और जो बात कभी सुनने में नहीं आयी, वे उसे अपनी आँखों से देखेंगे।

1) किसने हमारे सन्देश पर विश्वास किया? प्रभु का सामर्थ्य किस पर प्रकट हुआ है?

2) वह हमारे सामने एक छोटे-से पौधे की तरह, सूखी भूमि की जड़ की तरह बढ़ा। हमने उसे देखा था; उसमें न तो सुन्दरता थी, न तेज और न कोई आकर्षण ही।

3) वह मनुयों द्वारा निन्दित और तिरस्कृत था, शोक का मारा और अत्यन्त दुःखी था। लोग जिन्हें देख कर मुँह फेर लेते हैं, उनकी तरह ही वह तिरस्कृत और तुच्छ समझा जाता था।

4) परन्तु वह हमारे ही रोगों का अपने ऊपर लेता था और हमारे ही दुःखों से लदा हुआ था और हम उसे दण्डित, ईश्वर का मारा हुआ और तिरस्कृत समझते थे।

5) हमारे पापों के कारण वह छेदित किया गया है। हमारे कूकर्मों के कारण वह कुचल दिया गया है। जो दण्ड वह भोगता था, उसके द्वारा हमें शान्ति मिली है और उसके घावों द्वारा हम भले-चंगे हो गये हैं।

6) हम सब अपना-अपना रास्ता पकड़ कर भेड़ों की तरह भटक रहे थे। उसी पर प्रभु ने हम सब के पापों का भार डाला है।

7) वह अपने पर किया हुआ अत्याचार धैर्य से सहता गया और चुप रहा। वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने की तरह और ऊन कतरने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुँह नहीं खोला।

8) वे उसे बन्दीगृह और अदालत ले गये; कोई उसकी परवाह नहीं करता था। वह जीवितों के बीच में से उठा लिया गया है और वह अपने लोगों के पापों के कारण मारा गया है।

9) यद्यपि उसने कोई अन्याय नहीं किया था और उसके मुँह से कभी छल-कपट की बात नहीं निकली थी, फिर भी उसकी कब्र विधर्मियों के बीच बनायी गयी और वह धनियों के साथ दफ़नाया गया है।

10) प्रभु ने चाहा कि वह दुःख से रौंदा जाये। उसने प्रायश्चित के रूप में अपना जीवन अर्पित किया; इसलिए उसका वंश बहुत दिनों तक बना रहेगा और उसके द्वारा प्रभु की इच्छा पूरी होगी।

11) उसे दुःखभोग के कारण ज्योति और पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा। उसने दुःख सह कर जिन लोगों का अधर्म अपने ऊपर लिया था, वह उन्हें उनके पापों से मुक्त करेगा।

12) इसलिए मैं उसका भाग महान् लोगों के बीच बाँटूँगा और वह शक्तिशाली राजाओं के साथ लूट का माल बाँटेगा; क्योंकि उसने बहुतों के अपराध अपने ऊपर लेते हुए और पापियों के लिए प्रार्थना करते हुए अपने को बलि चढ़ा दिया और उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई।

दूसरा पाठ : इब्रानियों के नाम पत्र 4:14-16;5:7-9

14) हमारे अपने एक महान् प्रधानयाजक हैं, अर्थात् ईश्वर के पुत्र ईसा, जो आकाश पार कर चुके हैं। इसलिए हम अपने विश्वास में सुदृढ़ रहें।

15) हमारे प्रधानयाजक हमारी दुर्बलताओं में हम से सहानुभूति रख सकते हैं, क्योंकि पाप के अतिरिक्त अन्य सभी बातों में उनकी परीक्षा हमारी ही तरह ली गयी है।

16) इसलिए हम भरोसे के साथ अनुग्रह के सिंहासन के पास जायें, जिससे हमें दया मिले और हम वह कृपा प्राप्त करें, जो हमारी आवश्यकताओं में हमारी सहायता करेगी।

7) मसीह ने इस पृथ्वी पर रहते समय पुकार-पुकार कर और आँसू बहा कर ईश्वर से, जो उन्हें मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थना और अनुनय-विनय की। श्रद्धालुता के कारण उनकी प्रार्थना सुनी गयी।

8) ईश्वर का पुत्र होने पर भी उन्होंने दुःख सह कर आज्ञापालन सीखा।

9 (9-10) वह पूर्ण रूप से सिद्ध बन कर और ईश्वर से मेलखि़सेदेक की तरह प्रधानयाजक की उपाधि प्राप्त कर उन सबों के लिए मुक्ति के स्रोत बन गये, जो उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं।

सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 18:1-19:42

1) यह सब कहने के बाद ईसा अपने शिष्यों के साथ केद्रेान नाले के उस पार गये। वहाँ एक बारी थी। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ उस में प्रवेश किया।

2) उनके विश्वासघाती यूदस को भी वह जगह मालूम थी, क्योंकि ईसा अक्सर अपने शिष्यों के साथ वहाँ गये थे।

3) इसलिये यूदस पलटन और महायाजकों तथा फ़रीसियों के भेजे हुये प्यादों के साथ वहाँ आ पहुँचा। वे लोग लालटेनें मशालें और हथियार लिये थे।

4) ईसा, यह जान कर कि मुझ पर क्या-क्या बीतेगी आगे बढे और उन से बोले, ’’किसे ढूढतें हो?’’

5) उन्होंने उत्तर दिया, ’’ईसा नाज़री को’’। ईसा ने उन से कहा, ’’मैं वही हूँ’’। वहाँ उनका विश्वासघाती यूदस भी उन लोगों के साथ खडा था।

6) जब ईसा ने उन से कहा, ’मैं वही हूँ’ तो वे पीछे हटकर भूमि पर गिर पडे।

7) ईसा ने उन से फि़र पूछा, ’’किसे ढूढते हो?’’ वे बोले, ’’ईसा नाजरी को’’।

8) इस पर ईसा ने कहा, ’’मैं तुम लोगों से कह चुका हूँ कि मैं वही हूँ। यदि तुम मुझे ढूँढ़ते हो तो इन्हें जाने दो।’’

9) यह इसलिये हुआ कि उनका यह कथन पूरा हो जाये- तूने मुझ को जिन्हें सौंपा, मैंने उन में से एक का भी सर्वनाश नहीं होने दिया।

10) उस समय सिमोन पेत्रुस ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चलाकर उसका दाहिना कान उडा दिया। उस नौकर का नाम मलखुस था।

11) ईसा ने पेत्रुस से कहा, ’’तलवार म्यान में कर लो। जो प्याला पिता ने मुझे दिया है क्या मैं उसे नहीं पिऊँ?’’

12) तब पलटन, कप्तान और यहूदियों के प्यादों ने ईसा को पकड कर बाँध लिया।

13) वे उन्हें पहले अन्नस के यहाँ ले गये; क्योंकि वह उस वर्ष के प्रधानयाजक कैफस का ससुर था।

14) यह वही कैफस था जिसने यहूदियों को यह परामर्श दिया था- अच्छा यही है कि राष्ट्र के लिये एक ही मनुष्य मरे।

15) सिमोन पेत्रुस और एक दूसरा शिष्य ईसा के पीछे-पीछे चले। यह शिष्य प्रधानयाजक का परिचित था और ईसा के साथ प्रधानयाजक के प्रांगण में गया,

16) किन्तु पेत्रुस फाटक के पास बाहर खडा रहा। इसलिये वह दूसरा शिष्य जो प्रधानयाजक का परिचित था, फि़र बाहर गया और द्वारपाली से कहकर पेत्रुस को भीतर ले आया।

17) द्वारपाली ने पेत्रुस से कहा, ’’कहीं तुम भी तो उस मनुष्य के शिष्य नहीं हो?’’ उसने उत्तर दिया, ’’नहीं हूँ’’।

18) जाड़े के कारण नौकर और प्यादे आग सुलगा कर ताप रहे थे। पेत्रुस भी उनके साथ आग तापता रहा।

19) प्रधानयाजक ने ईसा से उनके शिष्यों और उनकी शिक्षा के विषय में पूछा।

20) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मैं संसार के सामने प्रकट रूप से बोला हूँ। मैंने सदा सभागृह और मन्दिर में जहाँ सब यहूदी एकत्र हुआ करते हैं, शिक्षा दी है। मैंने गुप्त रूप से कुछ नहीं कहा।

21) यह आप मुझ से क्यों पूछते हैं? उन से पूछिये जिन्होंने मेरी शिक्षा सुनी है। वे जानते हैं कि मैंने क्या-क्या कहा।’’

22) इस पर पास खडे प्यादों में से एक ने ईसा को थप्पड मार कर कहा, “तुम प्रधानयाजक को इस तरह जवाब देते हो?“

23) ईसा ने उस से कहा, ’’यदि मैंने गलत कहा, तो गलती बता दो और यदि ठीक कहा तो, मुझे क्यों मारते हो?’’

24) इसके बाद अन्नस ने बाँधें हुये ईसा को प्रधानयाजक कैफस के पास भेजा।

25) सिमोन पेत्रुस उस समय आग ताप रहा था। कुछ लोगों ने उस से कहा, ’’कहीं तुम भी तो उसके शिष्य नहीं हो?’’ उसने अस्वीकार करते हुये कहा, ’’नहीं हूँ’’।

26) प्रधानयाजक का एक नौकर उस व्यक्ति का सम्बन्धी था जिसका कान पेत्रुस ने उडा दिया था। उसने कहा, ’’क्या मैंने तुम को उसके साथ बारी में नहीं देखा था?

27) पेत्रुस ने फिर अस्वीकार किया और उसी क्षण मुर्गे ने बाँग दी।

28) तब वे ईसा को कैफस के यहाँ से राज्य पाल के भवन ले गये। अब भोर हो गया था। वे भवन के अन्दर इसलिये नहीं गये कि अशुद्व न हो जायें, बल्कि पास्का का मेमना खा सकें।

29) पिलातुस बाहर आकर उन से मिला और बोला, ’’आप लोग इस मनुष्य पर कौन सा अभियोग लगाते हैं?’’

30) उन्होने उत्तर दिया, ’’यदि यह कुकर्मी नहीं होता, तो हमने इसे आपके हवाले नहीं किया होता’’।

31) पिलातुस ने उन से कहा, ’’आप लोग इसे ले जाइए और अपनी संहिता के अनुसार इसका न्याय कीजिये।’’ यहूदियों ने उत्तर दिया, ’’हमें किसी को प्राणदंण्ड देने का अधिकार नहीं है’’।

32) यह इसलिये हुआ कि ईसा का वह कथन पूरा हो जाये, जिसके द्वारा उन्होने संकेत किया था कि उनकी मृत्यु किस प्रकार की होगी। 33) तब पिलातुस ने फिर भवन में जा कर ईसा को बुला भेजा और उन से कहा, ’’क्या तुम यहूदियों के राजा हो?’’

34) ईसा ने उत्तर दिया, ’’क्या आप यह अपनी ओर से कहते हैं या दूसरों ने आप से मेरे विषय में यह कहा है?’’

35) पिलातुस ने कहा, ’’क्या मैं यहूदी हूँ? तुम्हारे ही लोगों और महायाजकों ने तुम्हें मेरे हवाले किया। तुमने क्या किया है।’’

36) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता तो मेरे अनुयायी लडते और मैं यहूदियों के हवाले नहीं किया जाता। परन्तु मेरा राज्य यहाँ का नहीं है।’’

37) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ’’तो तुम राजा हो?’’ ईसा ने उत्तर दिया, ’’आप ठीक ही कहते हैं। मैं राजा हूँ। मैं इसलिये जन्मा और इसलिये संसार में आया हूँ कि सत्य के विषय में साक्ष्य पेश कर सकूँ। जो सत्य के पक्ष में है, वह मेरी सुनता है।’’

38) पिलातुस ने उन से कहा, ’’सत्य क्या है?’’ वह यह कहकर फिर बाहर गया और यहूदियों के पास आ कर बोला, ’’मैं तो उस में कोई दोष नहीं पाता हूँ,

39) लेकिन तुम्हारे लिये पास्का के अवसर पर एक बन्दी को रिहा करने का रिवाज है। क्या तुम लोग चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिये यहूदियों के राजा को रिहा कर दूँ?’’

40) इस पर वे चिल्ला उठे, ’’इसे नहीं, बराब्बस को’’। बराब्बस डाकू था।

1) तब पिलातुस ने ईसा को ले जा कर कोडे लगाने का आदेश दिया।

2) सैनिकेां ने काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रख दिया और उन्हें बैंगनी कपडा पहनाया।

3) फिर वे उनके पास आ-आ कर कहते थे, ’’यहूदियों के राजा प्रणाम!’’ और वे उन्हें थप्पड मारते जाते थे।

4) पिलातुस ने फिर बाहर जा कर लोगों से कहा, ’’देखो मैं उसे तुम लोगों के सामने बाहर ले आता हूँ, जिससे तुम यह जान लो कि मैं उस में कोई दोष नहीं पाता’’।

5) तब ईसा काँटों का मुकुट और बैगनी कपडा पहने बाहर आये। पिलातुस ने लोगों से कहा, ’’यही है वह मनुष्य!’’

6) महायाजक और प्यादे उन्हें देखते ही चिल्ला उठे, ’’इसे क्रूस दीजिये! इसे क्रूस दीजिये!’’ पिलातुस ने उन से कहा, ’’इसे तुम्हीं ले जाओ और क्रूस पर चढाओ। मैं तो इस में कोई दोष नहीं पाता।’’

7) यहूदियों ने उत्तर दिया, ’’हमारी एक संहिता है और उस संहिता के अनुसार यह प्राणदंण्ड के योग्य है, क्योंकि इसने ईश्वर का पुत्र होने का दावा किया है।’’

8) पिलातुस यह सुनकर और भी डर गया।

9) उसने फिर भवन के अन्दर जा कर ईसा से पूछा, ’’तुम कहाँ के हो?’’ किन्तु ईसा ने उसे उत्तर नहीं दिया।

10) इस पर पिलातुस ने उन से कहा, ’’तुम मुझ से क्यों नहीं बोलते? क्या तुम यह नहीं जानते कि मुझे तुम को रिहा करने का भी अधिकार है और तुम को क्रूस पर चढ़वाने का भी?

11) ईसा ने उत्तर दिया, ’’यदि आप को ऊपर से अधिकार न दिया गया होता तो आपका मुझ पर कोई अधिकार नहीं होता। इसलिये जिसने मुझे आपके हवाले किया, वह अधिक दोषी है।’’

12) इसके बाद पिलातुस ईसा को मुक्त करने का उपाय ढूँढ़ता रहा, परन्तु यहूदी यह कहते हुये चिल्लाते रहे, ’’यदि आप इसे रिहा करते हैं, तो आप कैसर के हितेषी नहीं हैं। जो अपने को राजा कहता है वह कैसर का विरोध करता है।’’

13) यह सुनकर पिलातुस ने ईसा को बाहर ले आने का आदेश दिया। वह अपने न्यायासन पर उस जगह, जो लिथोस-त्रोतोस, और इब्रानी में गबूबथा, कहलाती है, बैठ गया।

14) पास्का की तैयारी का दिन था। लगभग दोपहर का समय था। पिलातुस ने यहूदियों से कहा, ’’यही ही तुम्हारा राजा!’’

15) इस पर वे चिल्ला उठे, ’’ले जाइये! ले जाइए! इसे क्रूस दीजिये!’’ पिलातुस ने उन से कहा क्या, ’’मैं तुम्हारे राजा को क्रूस पर चढवा दूँ?’’ महायाजकों ने उत्तर दिया, ’’कैसर के सिवा हमारा कोई राजा नहीं’’।

16) तब पिलातुस ने ईसा को कू्रस पर चढाने के लिये उनके हवाले कर दिया।

17) वे ईसा को ले गये और वह अपना कू्रस ढोते हुये खोपडी की जगह नामक स्थान गये। इब्रानी में उसका नाम गोलगोथा है।

18) वहाँ उन्होंने ईसा को और उनके साथ और दो व्यक्तियों को कू्रस पर चढाया- एक को इस ओर, दूसरे को उस ओर और बीच में ईसा को।

19) पिलातुस ने एक दोषपत्र भी लिखवा कर क्रूस पर लगवा दिया। वह इस प्रकार था- ’’ईसा नाज़री यहूदियों का राजा।’’

20) बहुत-से यहूदियों ने यह दोषपत्र पढा क्योंकि वह स्थान जहाँ ईसा कू्स पर चढाये गय थे, शहर के पास ही था और दोष पत्र इब्रानी, लातीनी और यूनानी भाषा में लिखा हुआ था।

21) इसलिये यहूदियों के महायाजकों ने पिलातुस से कहा, ’’आप यह नहीं लिखिये- यहूदियों का राजा; बल्कि- इसने कहा कि मैं यहूदियों का राजा हूँ’’।

22) पिलातुस ने उत्तर दिया, ’’मैंने जो लिख दिया, सो लिख दिया।’’

23) ईसा को कू्रस पर चढाने के बाद सैनिकों ने उनके कपडे ले लिये और कुरते के सिवा उन कपडों के चार भाग कर दिये- हर सैनिक के लिये एक-एक भाग। उस कुरते में सीवन नहीं था, वह ऊपर से नीचे तक पूरा-का-पूरा बुना हुआ था।

24) उन्होंने आपस में कहा, ’’हम इसे नहीं फाडें। चिट्ठी डालकर देख लें कि यह किसे मिलता है। यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये- उन्होंने मेरे कपडे आपस में बाँट लिये और मेरे वस्त्र पर चिट्ठी डाली। सैनिकेां ने ऐसा ही किया।

25) ईसा की माता, उसकी बहिन, क्लोपस की पत्नि मरियम और मरियम मगदलेना उनके कू्रस के पास खडी थीं।

26) ईसा ने अपनी माता को और उनके पास अपने उस शिष्य को, जिसे वह प्यार करते थे देखा। उन्होंने अपनी माता से कहा, ’’भद्रे! यह आपका पुत्र है’’।

27) इसके बाद उन्होंने उस शिष्य से कहा, ’’यह तुम्हारी माता है’’। उस समय से उस शिष्य ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया।

28) तब ईसा ने यह जान कर कि अब सब कुछ पूरा हो चुका है, धर्मग्रन्थ का लेख पूरा करने के उद्देश्य से कहा, ’’मैं प्यासा हूँ’’।

29) वहाँ खट्ठी अंगूरी से भरा एक पात्र रखा हुआ था। लेागों ने उस में एक पनसोख्ता डुबाया और उसे जूफ़े की डण्डी पर रख कर ईसा के मुख से लगा दिया।

30) ईसा ने खट्ठी अंगूरी चखकर कहा, ’’सब पूरा हो चुका है’’। और सिर झुकाकर प्राण त्याग दिये।

31) वह तैयारी का दिन था। यहूदी यह नहीं चाहते थे कि शव विश्राम के दिन कू्रस पर रह जाये क्योंकि उस विश्राम के दिन बड़ा त्यौहार पडता था। उन्होंने पिलातुस से निवेदन किया कि उनकी टाँगें तोड दी जाये और शव हटा दिये जायें।

32) इसलिये सैनिकेां ने आकर ईसा के साथ क्रूस पर चढाये हुये पहले व्यक्ति की टाँगें तोड दी, फिर दूसरे की।

33) जब उन्होंने ईसा के पास आकर देखा कि वह मर चुके हैं तो उन्होंने उनकी टाँगें नहीं तोडी;

34) लेकिन एक सैनिक ने उनकी बगल में भाला मारा और उस में से तुरन्त रक्त और जल बह निकला।

35) जिसने यह देखा है, वही इसका साक्ष्य देता है, और उसका साक्ष्य सच्चा है। वह जानता है कि वह सच बोलता है, जिससे आप लोग भी विश्वास करें।

36) यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये- उसकी एक भी हड्डी नहीं तोडी जायेगी;

37) फिर धर्मग्रन्थ का एक दूसरा कथन इस प्रकार है- उन्होंने जिसे छेदा, वे उसी की ओर देखेगें।

38) इसके बाद अरिमथिया के यूसुफ ने जो यहूदियों के भय के कारण ईसा का गुप्त शिष्य था, पिलातुस से ईसा का शब ले जाने की अनुमति माँगी। पिलातुस ने अनुमति दे दी। इसलिये यूसुफ आ कर ईसा का शव ले गया।

39) निकोदेमुस भी पहुँचा, जो पहले रात को ईसा से मिलने आया था। वह लगभग पचास सेर का गंधरस और अगरू का सम्मिश्रण लाया।

40) उन्होंने ईसा का शव लिया और यहूदियों की दफन की प्रथा के अनुसार उसे सुगंधित द्रव्यों के साथ छालटी की पट्टियों में लपेटा।

41) जहाँ ईसा कू्रस पर चढाये गये थे, वहाँ एक बारी थी और उस बारी में एक नयी कब्र, जिस में अब तक कोई नहीं रखा गया था।

42) उन्होंने ईसा को वहीं रख दिया, क्योंकि वह यहूदियों के लिये तेयारी का दिन था और वह कब्र निकट ही थी।

📚 मनन-चिंतन

दुख-तकलीफ मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है। किन्तु फिर भी मनुष्य मुख्यतः यही प्रयास करता है कि वह दुख से बचकर सुख और आराम पाता रहें। ट्रेन, होटलों आदि में यात्रा करने या ठहरने की श्रेणीयॉ या वर्ग होते है। उच्च श्रेणीयों में यात्रा करने से हमें अधिक सुविधा और आराम मिलता है जिसके एवज में हमें ज्यादा पैसा खर्च करना पडता है। हांलाकि साधारण श्रेणी के टिकट से भी हम उसी जगह पहुंचते जहॉ उच्च श्रेणी के लोग लेकिन हम अधिकांशः सुविधाजनक एवं आरामदेह यात्रा को ही प्राथमिकता देते हैं। लेकिन प्रभु येसु दुख से बचने के लिये हमें कोई शिक्षा या मार्ग नहीं दिखाते है। उन्होंने दुखभोग एवं क्रूस-मरण को ही जीवन की प्राथमिकता तथा उददेश्य बताया। उन्होंने अपने दुखःभोग एवं मरण के द्वारा ही मानव-जाति की मुक्ति का द्वार खोला।

गेथसेमनी की बारी में येसु ने पिता से प्रार्थना की वे इस भावी प्राणा पीडा का प्याला उनसे हटा ले किन्तु उन्होंने पिता की इच्छा को पूरी करने में ही अपना सुख समझा फिर चाहे वह भले ही दुखभोग एवं मरण ही क्यों न हो। जीवन में स्थायी बने रहने वाले सुख और शांति तब आती है जब हम सही काम करे। ऐसा करने से भले ही कष्ट क्यों न हो किन्तु भलाई और सत्य के काम ही सच्ची और स्थायी शांति प्रदान करते हैं। जीवन में सांसारिक सुख के लिये हमें कई बार समझौते करने पडते हैं। हम चारों ओर से खतरे तथा असुरक्षा की भावना से घेरे रहते हैं। इसलिये हमारी कोशिश सुख सुनिश्चित करने की होती है तथा इसे हासिल करने के लिये हम अनेक बार नैतिक मूल्यों के साथ समझौता करते हैं। किन्तु अपनी नासमझी में हम यह भूल जाते ही सच्चा एवं स्थायी सुख तो ईश्वर का जीवन जी कर आता है उसके लिये चाहे हमें कष्ट ही क्यों न झेलना पडे।

येसु निर्दोष थे। उन्होंने कोई पाप नहीं किया था। उन्होंने सदैव वहीं किया जो सही था तथा अपने भलाई के कार्यों के द्वारा लोगों के स्वास्थ्य और जीवन को पुनः लौटाया। उन्होंने खुले तौर पर सच्ची शिक्षा दी किन्तु फिर भी उन पर साजिश, ईशनिंदा आदि जैसे मनगणंत आरोप मढे गये। किन्तु येसु जानते थे कि उनका दुखभोग और मरण पिता की योजना का हिस्सा है। कोई भी उनका जीवन उनसे नहीं ले सकता था। जब पिलासुन ने उनसे कहा, ’’तुम मुझ से क्यों नहीं बोलते? क्या तुम यह नहीं जानते कि मुझे तुम को रिहा करने का भी अधिकार है और तुम को क्रूस पर चढ़वाने का भी? ईसा ने उत्तर दिया, ’’यदि आप को ऊपर से अधिकार न दिया गया होता तो आपका मुझ पर कोई अधिकार नहीं होता।’’ (योहन 19:10-11) और यहूदियों को उन्होंने और भी स्पष्ट रूप से कहा, ’’मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ, बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा। कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता, मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।’’ (योहन 10:17-18)

इस प्रकार येसु के दुखभोग में कुडवाहट एवं खेद की भावना नहीं। उनका दुखभोग कठिन है किन्तु वह उन्हें स्वीकार्य है क्योंकि यह पिता को प्रिय है। पुण्य शुक्रवार जीवन के दुख से भागने या बचने का कोई झूठा एवं छदम् सब्जबाग नहीं दिखाता है। वह जो सही और सच्चा है उसे अपनाकर, सबकुछ पिता की इच्छा पर छोडकर, बहादुरी के साथ आगे बढने का प्रस्ताव रखता है। हम हमारे दुख को किसी पुरस्कार से जोडकर देखते हैं। लोग दुख उठाने को तैयार हो जाते हैं किन्तु किसके एवज में। वह जानना चाहते है कि इससे क्या लाभ होगा। किन्तु धर्मग्रंथ हमें बताता है कि धर्मी के दुखभोग का पुरस्कार स्वयं ईश्वर होता है।

योब के दुख का कारण उसकी धार्मिकता थी। शैतान उसे दुख पहुंचाता है ताकि वह अपनी धार्मिकता त्याग दे। योब ने अत्याधिक दुख और हानि उठायी किन्तु उसने ईश्वर को और उसकी धार्मिकता को नहीं त्यागा। ईश्वर स्वयं उसका पुरस्कार था। कई नबियों ने भी धार्मिकता के कारण दुख उठाये वह पुरस्कार जो स्वयं ईश्वर होगा उस पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी दुखभोग आता है। हमें इससे घबरा कर भागना नहीं चाहिये और झूठी सुरक्षा के पीछे नहीं भागना चाहिये। इसके विपरीत जो भी हम अपनी मानवीय क्षमता के अनुसार कर सकते वही करना चाहिये बाकि जो भी हो उसे ईश्वर की इच्छा मानकर सहना चाहिये। हमें नहीं भूलना चाहिये कि पिता की इच्छा के बिना हमारे सिर का बाल भी नहीं गिरता तो फिर पिता के लिये हमारा जीवन कहीं अधिक मूल्यवान है। हमारे कष्ट और पीडा उससे छिपे हुये नहीं है। वह हमें न सिर्फ सहनशक्ति प्रदान करता है बल्कि जो ख्राीस्तीय साहस के साथ अपने दुःखों को वहन करते हैं उन्हें पुरस्कार भी उन्हें प्रदान करता है।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Suffering is the integral part of human life. Yet most common attempts of human beings have been to avoid suffering and gain comfort. In the trains, hotels etc. we have classes and categories to be availed while travelling and If we want more comfort then we must pay more. The general class will serve the same purpose and take you to same destination as the first-class but it won’t be comfortable. To avoid any inconvenience, we must take a premium class ticket or reservation. This has been the tendency in all ages. But Jesus does not offer a way out of suffering but a way to go through it. It was Cross that brought the salvation and eternal comfort.

In the Garden of Gethsemane Jesus prayed to have the cup of suffering be taken away yet he found comfort in doing the will of God. Lasting peace and happiness come when we do what is right even if it causes up pain and loss. To gain the worldly comfort and to prolong it we make a lot of compromises in life. We are surrounded by the threat of danger and insecurity. So, we try to ensure our safety and comfort by the worldly means even if they are unethical and corrupt. But when we stand for the right and even suffer for it we experience and gain God’s favour and lasting peace and happiness.

Jesus was innocent. He committed no sin. He did what was right and brought restoration of health and life to the people. He taught them the right things in the open, yet he was unjustly condemned of crimes which were far-fetched and flimsy. But Jesus already knew that no one can take away his life or do any harm to him. In response to Pilot’s exclamation, “Do you not know that I have power to release you, and power to crucify you?’ Jesus answered, “You would have no power over me unless it had been given you from above;” (John 19:10-11) and to the Jews he said even more clearly, “I lay down my life in order to take it up again. No one takes it from me, but I lay it down of my own accord. I have power to lay it down, and I have power to take it up again. I have received this command from my Father.’ (John 10:17-18)

So in Jesus’ suffering there are no grudges and force. It is difficult but it is acceptable because this is what pleases God. Good Friday offers no short cuts and false promises but a stark truth to accept life and its suffering and pain with a brave heart. Often suffering is related with a reward. People are ready to undergo suffering but for what. They would like to know the package. God himself is the reward of the suffering of the righteous. The reason of Job’s suffering was his righteousness. Devil wanted to trouble him so that he may forfeit his righteousness. He underwent extreme suffering but remained righteous. God was his reward. So therefore, in our life too there difficult and painful moments. We do not have get panicked and take all safety measure to avoid pain. But rather do all that in normal human capacity and rest accept it as the will of the father, without his knowledge not even the hair of your heads falls. Our pain and difficulties are not hidden from him. He provides endurance as well the reward to those who bravely take it upon himself.

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!