चक्र - ब - पास्का का दूसरा रविवार



दिव्य करुणा रविवार

पहला पाठ :प्रेरित-चरित 4:32-35

32) विश्वासियों का समुदाय एक हृदय और एकप्राण था। कोई भी अपनी सम्पत्ति अपनी ही नहीं समझता था। जो कुछ उनके पास था, उस में सबों का साझा था।

33) प्रेरित बड़े सामर्थ्य से प्रभु ईसा के पुनरुत्थान का साक्ष्य देते रहते थे और उन सबों पर बड़ी कृपा बनी रहती थी।

34) उन में कोई कंगाल नहीं था; क्योंकि जिनके पास खेत या मकान थे, वे उन्हें बेच देते और कीमत ला कर

35) प्रेरितों के चरणों में अर्पित करते थे। प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार बाँटा जाता था।

दूसरा पाठ : 1 Jn 5:1-6

1) जो यह विश्वास करता है कि ईसा ही मसीह हैं, वह ईश्वर की सन्तान है और जो जन्मदाता को प्यार करता है, वह उसकी सन्तान को भी प्यार करता है।

2) इसलिए यदि हम ईश्वर को प्यार करते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो हमें ईश्वर की सन्तान को भी प्यार करना चाहिए।

3) ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना- यही ईश्वर का प्रेम है। उसकी आज्ञाएं भारी नहीं,

4) क्योंकि ईश्वर की हर सन्तान संसार पर विजयी होती है। वह विजय, जो संसार को पराजित करती है, हमारा विश्वास ही है।

5) संसार का विजयी कौन है? केवल वही, जो यह विश्वास करता है कि ईसा ईश्वर के पुत्र हैं।

6) ईसा मसीह जल और रक्त से आये - न केवल जल से, बल्कि जल और रक्त से। आत्मा इसके विषय में साक्ष्य देता है, क्योंकि आत्मा सत्य है।

सुसमाचार : योहन 20:19-31.

19) उसी दिन, अर्थात सप्ताह के प्रथम दिन, संध्या समय जब शिष्य यहूदियों के भय से द्वार बंद किये एकत्र थे, ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, "तुम्हें शांति मिले!"

20) और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, "तुम्हें शांति मिले!

21) जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा, उसी प्रकार मैं तुम्हें भेजता हूँ।"

22) इन शब्दों के बाद ईसा ने उन पर फूँक कर कहा, "पवित्र आत्मा को ग्रहण करो!

23) तुम जिन लोगों के पाप क्षमा करोगे, वे अपने पापों से मुक्त हो जायेंगे और जिन लोगों के पाप क्षमा नहीं करोगे, वे अपने पापों से बँधे रहेंगे।

24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।

25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, "हमने प्रभु को देखा है"। उसने उत्तर दिया, "जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।

26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, "तुम्हें शांति मिले!"

27) तब उन्होने थोमस से कहा, "अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं, बल्कि विश्वासी बनो।"

28 थोमस ने उत्तर दिया, "मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!"

29) ईसा ने उस से कहा, "क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।"

30) ईसा ने अपने शिष्यों के सामने और बहुत से चमत्कार दिखाये जिनका विवरण इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।

31) इनका ही विवरण दिया गया है जिससे तुम विश्वास करो कि ईसा ही मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं और विश्वास करने से उनके नाम द्वारा जीवन प्राप्त करो।

📚 मनन-चिंतन

येसु ने अपने शिष्यों से कहा, ’’शांति तुम्हारे साथ हो; जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा है, वैसे ही मैं तुम्हें भेजता हूं। येसु अपने पिता की इच्छा पूरी करने, पिता के द्वारा भेजे गये थे। (योहन 4:34; 6:38-39); वे पिता के वचन बताने (योहन 12:49) तथा पिता के कार्य करने भेजे गये थे। (योहन 4:34; 5:36) वे संसार की मुक्ति के लिये भेजे गये थे (योहन 3:37)। योहन 18:37 में वे पिलातुस से कहते हैं, ’’मैं इसलिये जन्मा और इसलिये संसार में आया हूं कि सत्य के विषय में साक्ष्य पेश कर सकूं।’’ वे लोगों को पिता के राज्य में प्रवेश दिलाने आये। जिस प्रकार वे भेजे गये थे उसी प्रकार वे हमें भी भेजते हैं। इसलिये उनका लक्ष्य अब हमारा लक्ष्य बन जाता है।

येसु पिता को प्रकट करने के लिये हमारे बीच आये। आज प्रभु जिन पर अपने को प्रकट करते हैं उनको भेजते भी है। इसलिये संत पौलुस बताते हैं ख्रीस्त विश्वासियों के बीच उपस्थित तथा जीवंत बने रहते हैं। इस प्रकार हम एक दूसरे के लिये ’लघु ख्रीस्त’ बन जाते हैं।

लेकिन अक्सर एवं अधिकांशः हम कलीसिया के रूप में, भले वह चाहे व्यक्तिगतरूप से हो या सामूहिक- अपने को ख्रीस्त भेजे गये लक्ष्य से भटक जाते हैं। हम वर्तमान के सामाजिक तथा राजनैतिक परिवेश जो ख्रीस्तीय के जीवन को मुश्किल बनाता है, की आड में छिपने की कोशिश करते हुये कहते है, अभी समय अनुकूल नहीं है। हम उन सभी सीमिताओं को, जो हम कलीसिया या व्यक्तिगत रूप से महसूस करते हैं को ढाल बनाते हें। कुछ वर्ष पूर्व इग्लैंड के सोहन सिंह जोकि वहॉ किराने की दुकाने चलते थे का रोचक तथा चर्चित किस्सा सामने आया। उन्होंने अपनी दुकान पर उन सारे उपभोक्ताओं के प्रवेश पर रोक लगा दी थी जो ध्रूमपान करते थे या फिर जो अश्लील भाषा बोलते थे या जो शिशुओं को घुमाने लाते थे या जो अभद्र व्यवहार करते थे आदि। इस प्रकार उन्होंने अपने बहुत सारे ग्राहकों को खो दिया था। एक अखबार को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ’’मेरे सिद्धांतों और निर्णयों के कारण मैंने बहुत ग्राहकों को खो दिया तथा व्यापार में हानि भी उठायी किन्तु मुझे इस पर कोई खेद नहीं हैं।’’ सोहन सिंह के निर्णय पर हम भी सवाल उठा सकते हैं कि यह व्यापार की दृष्टि से सही फैसला नहीं था। किन्तु समाज-सुधार का जो सपना वह संजोय हुये था वह उसे किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता था।

ऐसा प्रतीत होता है कि सोहन सिंह का फैसला मूर्खतापूर्ण फैसला था। उसने अपनी व्यक्तिगत नैतिक धारणा को अपने व्यापार के साथ मिश्रित किया। किन्तु अपने सिद्धांतों के प्रति उसकी दृढ आस्था शिक्षाप्रद तथा प्रेरणादायक है। उसमें उसके सिद्धांतों के लिये खडे होने का साहस था। वह अपनी दुकान में ग्राहकों को अभद्र व्यवहार करते नहीं देख सकता था इसलिये उसने यह अजीबोगरीब कदम उठाया। उसनेस अपनी इस आप्रासंगिक तथा अलोकप्रिय प्रतीत होती शैली के बावजूद भी अपने उसूलों के साथ समझौता नहीं किया।

कलीसिया भी अपने मूल उददेश्य को पूरा करने के लिये समय तथा परिस्थितियों के बदलने का इंतजार नहीं कर सकती । हमारा मिशन ’दूसरा ख्रीस्त’ बनने का है। हमारा मिशन यही है हम उन सब के पाप माफ करे जिन्होंने हमारे विरूद्ध काम किया हो। हमें ईश्वर के राज्य के लिये कार्य करते हुये ’चंगाई’ प्रदान करने वाले सैनिक बनना चाहिये। लेकिन वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण हमारे उत्साह तथा दिलचस्पी में भारी कमी आई है।

हमें अपनी व्यक्तिगत सीमिताओं तथा चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर येसु द्वारा प्रदान मिशन को हर दिन एवं हर पल जीना चाहिये। प्रारंभिक कलीसिया ने बहुत विकट तथा हिंसक परिस्थितियों का सामना किया तथा इसके बावजूद भी वे ख्रीस्त के मिशन को जीने में सफल रहे। हमें भी अपने आईने में झांकना चाहिये तथा पूछना चाहिये कि ख्रीस्त के मिशन को जीने में विफलता के लिये वास्तविक कारण क्या है? हम जानते हैं परिस्थितियों को चुनौती देने से परेशानी तथा अत्याचार का माहौल बनेगा तथा हमारा दमन होगा किन्तु येसु ने हमें भेजते समय यह भी बताया है, ’’देखो, मैं तुम्हें भेडियों के बीच भेडों की तरह भेजता हूं। इसलिये सॉप की तरह चतुर और कपोत की तरह निष्कपट बनों’’ (मत्ती 10:16) हमें भी सॉप के तरह परिस्थितियों का सामना चतुरता के करना तथा कपोत की तरह निष्कपट अंतरतम रखकर अपना कार्य जारी रखना चाहिये।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Jesus said to his disciples, ‘Peace be with you; as the Father has sent Me, I also send you.” Jesus was sent by the Father to do his will (John 4:34; 6:38-39); to speak the Father’s words (John 12:49); and to perform the Father’s works (John 4:34; 5:36). He was sent to bring salvation to the world (John 3:17). In John 18:37, Jesus told Pilate, “For this I have been born, and for this I have come into the world, to testify to the truth.” He came to establish the Father’s kingdom by bringing people under His lordship to do His will. By sending us in the same way that He was sent, His purpose becomes our purpose.

Jesus came to reveal God to us. Today, those whom Jesus sends reveal Him. In this regard, Paul proclaimed that Christ lives in and through believers. Hence we become “little Christ’ to one another.

But so often the church collectively and we as individuals lose sight of our purpose. We get distracted with other things. We try to hide behind the prevailing social and political circumstances which are making the life of the Christians harder and harder. We try to excuse ourselves by enumerating the limitations we experience as individuals and the as collectively Church. A few years ago, Mr. Sohan Singh, grocery store owner hit the headline in England. He had banned customers from his grocery store in England. He told a London newspaper that he was forced to take such drastic action because of people’s bad manners. First, he banned smoking, then crude language, baby strollers, pets and finally customers themselves. Shoppers now must look through the window to spot items they want and then ring a bell to be served through a small hatch in the door. “I have lost business, but I cannot say how much,” Singh said. “I am a man of principles, and I stand by my decision.” (In Flagstaff Live, June 4-10, 1998.)

It seems that a grocer who bans customers from his store has lost sight of his purpose! If your aim is to sell groceries, then you must put up with some people whom you may dislike in order to achieve your purpose.

Sohan Singh made a foolish decision to mix up his personal moral-ethical principles with public behaviour of the people. However, his audacity and conviction to his principles are overwhelmingly edifying. He had the courage to stand for his principle. He could not sit in his store and let people behave in it as it pleases them. He decided to live by this conviction and principles and of course, paid the price. He lost considerable of it. That’s fine! He was true to his conviction although it appears irrelevant and outdated in the modern world.

Church too cannot wait for the situation to become conducive and tolerable. The mission of every individual is to be another Christ to his fellow man. Mission is to forgive the sins of those who have sinned against you. Mission is to be healing soldier working for ‘His kingdom to come’. Somewhere the zeal and zest for the mission has been smothered under theprevailing unconducive situation.

We got to live day in and day out the mission of Jesus, overcoming the personal barriers and limitation and challenging the circumstances. The early Christians had one of the most hostile situations but nothing prevented them to accept Christ and proclaim it. we ought to look into the mirror and challenge our settled disposition to flow with the current. We know by reversing the trend there will be ripples and disturbance but the Lord had already warned us, “Behold, I am sending you out sheep among the wolves. be wise as serpents and innocent as doves." (Matthew 10:16) We ought to gauge the situation and deal with prudence like serpent and maintain our inner self innocent like that of the dove and march forward to complete for which we have been sent.

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!