चक्र - ब - पास्का का चौथा इतवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 4:8-12

8) पेत्रुस ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर उन से कहा, "जनता के शासकों और नेताओ"!

9) हमने एक लँगड़े मनुष्य का उपकार किया है और आज हम से पूछताछ की जा रही है कि यह किस तरह भला-चंगा हो गया है।

10) आप लोग और इस्राइल की सारी प्रजा यह जान ले कि ईसा मसीह नाज़री के नाम के सामर्थ्य से यह मनुष्य भला-चंगा हो कर आप लोगों के सामने खड़ा है। आप लोगों ने उन्हें क्रूस पर चढ़ा दिया, किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया।

11) वह वही पत्थर है, जिसे आप, कारीगरों ने निकाल दिया था और जो कोने का पत्थर बन गया है।

12) किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती; क्योंकि समस्त संसार में ईसा नाम के सिवा मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हमें मुक्ति मिल सकती है।"

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दूसरा पाठ :1 योहन 3:1-2

1) पिता ने हमें कितना प्यार किया है! हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं। संसार हमें नहीं पहचानता, क्योंकि उसने ईश्वर को नहीं पहचाना है।

2) प्यारे भाइयो! अब हम ईश्वर की सन्तान हैं, किन्तु यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ है कि हम क्या बनेंगे। हम इतना ही जानते हैं कि जब ईश्वर का पुत्र प्रकट होगा, तो हम उसके सदृश बन जायेंगे; क्योंकि हम उसे वैसा ही देखेंगे, जैसा कि वह वास्तव में है।

सुसमाचार : योहन 10:11-18

11) "भला गड़ेरिया मैं हूँ। भला गड़ेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है।

12) मज़दूर, जो न गड़ेरिया है और न भेड़ों का मालिक, भेडि़ये को आते देख भेड़ों को छोड़ कर भाग जाता है और भेडि़या उन्हें लूट ले जाता है और तितर-बितर कर देता है।

13) मज़दूर भाग जाता है, क्योंकि वह तो मजदूर है और उसे भेड़ों की कोई चिन्ता नहीं।

14) "भला गडेरिया मैं हूँ। जिस तरह पिता मुझे जानता है और मैं पिता को जानता हूँ, उसी तरह मैं अपनी भेड़ों को जानता हूँ और मेरी भेड़ें मुझे जानती हैं।

15) मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ।

16) मैरी और भी भेड़ें हैं, जो इस भेड़शाला की नहीं हैं। मुझे उन्हें भी ले आना है। वे भी मेरी आवाज सुनेंगी। तब एक ही झुण्ड होगा और एक ही गड़ेरिया।

17) पिता मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं अपना जीवन अर्पित करता हूँ; बाद में मैं उसे फिर ग्रहण करूँगा।

18) कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।"

📚 मनन-चिंतन

पुराने विधान में ईश्वर को चरवाहे के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चरवाहे के गुणों के द्वारा ईश्वर यह बताते हैं कि वे हमारा कितना प्रेम करते हैं। चरवाहा अपनी भेडों को सुरक्षित तथा हरे-भरे स्थानों पर ले जाता है। चरवाहे का मुख्य कार्य अपनी झुण्ड की रक्षा करना होता है। चरवाहे दो प्रकार के होते है। पहले जो दूसरों की झुण्ड की देखभाल का कार्य पैसे के लिये करते हैं तथा दूसरा जो स्वयं झुण्ड के स्वामी तथा चरवाहे दोनों होते हैं। जो चरवाहे पैसों के लिये झुण्ड की देखभाल करते हैं वे विपत्ति या संकट में झुण्ड को छोडकर भाग जाते थे। किन्तु झुण्ड का स्वामी यदि चरवाहा होता था तो वह झुण्ड को बचाने की खातिर जंगली जानवरों से भी भिड जाता था।

दाउद जब चरवाहे का कार्य किया करते थे तो वह अपनी झुण्ड की रक्षा के लिये जंगली जानवरों तक से भिड जाते थे। वे बताते हैं, ’’आपका यह दास जब अपने पिता की भेड़ें चराता था और कोई सिंह या भालू आ कर झुण्ड से कोई भेड़ पकड़ ले जाता, तो मैं उसके पीछे जा कर उसे मारता और उसके मुँह से उसे छीन लेता था और यदि वह मेरा सामना करता, तो मैं उसकी अयाल पकड़ कर उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता था। आपके दास ने तो सिंहों और भालूओं को मारा है।’’ (1 समूएल 17:34-36) जब दाउद राजा बने तो उन में भी चरवाहे के अनेक गुण देखने को मिले।

येसु स्वयं को भला चरवाहा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, ’’भला गड़ेरिया मैं हूँ। भला गड़ेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है। मज़दूर, जो न गड़ेरिया है और न भेड़ों का मालिक, भेड़िये को आते देख भेड़ों को छोड़ कर भाग जाता है और भेड़िया उन्हें लूट ले जाता है और तितर-बितर कर देता है। मज़दूर भाग जाता है, क्योंकि वह तो मजदूर है और उसे भेड़ों की कोई चिन्ता नहीं। भला गडेरिया मैं हूँ।’’ (योहन 10:11-14) येसु अपनी रेवड जोकि हम है को बचाने की खातिर अपने प्राण तक त्याग देते हैं। येसु के प्राण त्यागने से अभिप्राय कू्रस पर अपने प्राण न्यौछावर करने से था।

येसु के प्राण त्यागने का उददेश्य पिता की इच्छा पूरी करना था। येसु की कू्रस पर मृत्यु के द्वारा पिता ने मानवजाति को यह बताया कि वे उन्हें कितना प्रेम करते हैं, ’’ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिये अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उसमें विश्वास करता है उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।’’ (योहन 3:16) येसु ने प्रेम की पराकाष्ठा को बताते हुये कहा, ’’इससे बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15:13) इस प्रकार येसु ने अपने प्रेम का अपूर्व उदाहरण अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। अपने इस प्रेम से येसु ने पिता को महिमा प्रदान की। उन्होंने अपनी मृत्यु को पिता की इच्छा मानकर स्वीकार किया। जिससे पिता उन्हें पुनर्जीवित कर सकें। येसु की मृत्यु का फल पुनरूत्थान था।

आदम और हेवा ने अवज्ञा करके पाप किया। उन्होंने शैतान के सामने स्वयं को कमजोर तथा असहाय साबित किया। किन्तु येसु ने शैतान के प्रलोभन को नकार कर, जो उन्हें क्रूस को नकारने का था, शैतान के सभी प्रलोभनों पर विजय पाकर हमारे लिये मुक्ति का द्वार खोल दिया है। इस प्रकार येसु के नाम में विश्वास के द्वारा हमें पापों से मुक्ति प्राप्त होती है। येसु में विश्वास के द्वारा हम सारे प्रलोभनों पर विजयी प्राप्त होते हैं। आज के पहले पाठ में संत पेत्रुस एक लॅगडे को प्राप्त चंगाई के बारे में गवाही देते हुये कहते हैं, ’’आप लोग और इस्राएल की सारी प्रजा यह जान ले कि ईसा मसीह नाज़री के नाम के सामर्थ्य से यह मनुष्य भला-चंगा हो कर आप लोगों के सामने खड़ा है। ..... किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मुक्ति नहीं मिल सकती; क्योंकि समस्त संसार में ईसा नाम के सिवा मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हमें मुक्ति मिल सकती है।’’

ईसा के नाम पर प्रेरित अनेक चमत्कारों को करते तथा स्वर्गराज्य का सुसमाचार देते थे। उनके नाम पर विश्वास के कारण अनेकों ने चंगाई तथा नवजीवन प्राप्त किया। प्रेरितों ने येसु के नाम की शिक्षा का अपने जीवन में भी अनुपालन किया। उन्होंने अपने जीवन में अनेक कष्टों तथा अत्याचारों का सामना किया तथा अधिकांश ने तो शहादत ग्रहण की। जब हम अपने जीवन में वास्तविक रूप से येसु को चरवाहा मानते तथा व्यवहारिक जीवन में जीते हो तो हमारा जीवन भी बदल जाता है। हम येसु के नाम की शक्ति और सामर्थ्य का अनुभव करते हैं। हम से अधिकांश विश्वासी येसु के नाम तथा उनकी शिक्षाओं को स्वीकारते तो है किन्तु दैनिक जीवन में उन्हें लागू नहीं कर पाते हैं। जब-जब प्रलोभन आता है हम येसु को भूल कर प्रलोभन में पड जाते हैं। प्रलोभन में गिर कर हम अपने स्वार्थ की बातों में लग जाते हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जब किराये के चरवाहें रेवडों को छोडकर अपनी जान बचाने के लिये भाग जाते थे। हमें भागना नहीं बल्कि येसु के नाम से उन सारी बुराईयों, कमजोरियों तथा प्रलोभनों का सामना करना हैं।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


In the old Testament God is projected as a Good Shepherd. Through the characteristics of Good Shepherd God shows us his love towards us. shepherd takes his sheep to safer and a greener pastures. The primary duty of a shepherd is to protect its fold. There are two types of shepherds; the hired shepherds and those who owned the sheep and shepherd them. The hired shepherds used to dessert the sheep whenever a danger arose. However, the owner of the sheepfold cum shepherd used to fight the wild animals and ward off the dangers.

When David was the shepherd of his flock, he used to protect them even at the risk of his own life. He says, “But David said to Saul, ‘Your servant used to keep sheep for his father; and whenever a lion or a bear came, and took a lamb from the flock, I went after it and struck it down, rescuing the lamb from its mouth; and if it turned against me, I would catch it by the jaw, strike it down, and kill it. Your servant has killed both lions and bears; and this uncircumcised Philistine shall be like one of them, since he has defied the armies of the living God.’ (1 Samuel 17:34-36) When he became the king he visibly displayed the qualities of the shepherd.

Jesus presents himself as the good shepherd. He says, “I am the good shepherd. The good shepherd lays down his life for the sheep. 12The hired hand, who is not the shepherd and does not own the sheep, sees the wolf coming and leaves the sheep and runs away—and the wolf snatches them and scatters them. 13The hired hand runs away because a hired hand does not care for the sheep. 14I am the good shepherd. I know my own and my own know me.” (John 10:11-14) Jesus for the safety and security of his sheepfold was ready even to give up his own life. Lord’s sacrifice on the cross was exactly an offering for the redemption of the humanity.

Jesus’ purpose to offer himself as a sacrifice was in obedience to God’s will. Father manifested his love for the humanity by letting his own son die on the cross, “For God so loved the world that he gave his only Son, so that everyone who believes in him may not perish but may have eternal life.” (John 3:16) Jesus defined love saying, “No one has greater love than this, to lay down one’s life for one’s friends.” (John 15:13) Jesus by giving up his life redefined love and set an example before us all. Jesus by his love glorified the Father. He accepted death as the will of the father so that Father raised him up on the third day.

Adam and Eve disobeyed God and sinned. In the wake of the temptation and before devil they proved themselves weak and vulnerable. But Jesus rejected the temptation of denying the Cross and thereby snubbed the devil. By overcoming all the temptations, he proved victorious and opened the door of salvation for all. Therefore, all those who believe in the name of Jesus all become partakers in his salvific work. By believing in his name we can overcome all temptations. In today’s first reading gives testimony of the healed man, “Rulers of the people and elders,….let it be known to all of you, and to all the people of Israel, that this man is standing before you in good health by the name of Jesus Christ of Nazareth, whom you crucified, whom God raised from the dead. ….There is salvation in no one else, for there is no other name under heaven given among mortals by which we must be saved.”

In the name of Jesus apostles were preaching the kingdom of God and performing many miracles. Those who believed in him name found a new meaning and purpose in their life and many of them received healing. Apostles lived a radical life by following the teachings of Jesus. Most of them endured suffering and even martyrdom in many cases. When we in our life live the teaching of Jesus then our life also changes. We would also experience the power of the name of Jesus. Most of us today believe in the name of Jesus yet are far away from translating the teaching into action. Whenever we are faced with temptations we feel entrapped because Jesus seems to be a remote reality. By falling into temptations we become selfish and get lost into the petty affairs of life. This is what the hired shepherds do. Whenever the difficult arise they abandon the flock. We do not need to run away or abandon the name of Jesus but rather stay strong and fight the situation with brevity.

-Fr. Ronald Vaughan

- चिं

मानव अनादि काल से ही शांति की खोज करता रहा है। इब्रानी भाषा में शांति को ’शालो’ कहते हैं जिसका अर्थ है, ’परिपूर्णता’, ’परिपक्वता’, ’सम्पूर्ण’। जब मनुष्य अपने अंतरतम में परिपूर्णता का अनुभव करता है तो उसे वह शांति प्राप्त होती है जिसकी तलाश उसे हमेशा से होती रही है। हम जिंदगी में शांति को समृद्धि में खोजने का प्रयत्न करते हैं। उपलब्धि, संपत्ति, अधिकार, विलक्षणता आदि के द्वारा भी हम परिपूर्णता या शांति को प्राप्त करना चाहते हैं। मानव पहाडों, गुफाओं, रेगिस्तानों जैसी एंकात स्थानों में शरण लेता है। जीवन जीने की विभिन्न शैलियॉ अपनाता तथा योग, प्राणिक चंगाई आदि कसरतें करता है। किन्तु ये मानवीय प्रयत्न क्षणिक सांसारिक उल्लास या सुख प्रदान करते हैं। स्थायी शांति फिर भी दूर बनी रहती है।

’शांति’ प्रभु येसु का वह अनमोल उपहार है जिसे उन्होंने अपने शिष्यों को दिया है। “मैं तुम्हारे लिये शांति छोड जाता हूँ। अपनी शांति तुम्हें प्रदान करता हूँ। वह संसार की शांति-जैसी नहीं है। तुम्हारा जी घबराये नहीं। भीरु मत बनो।” (योहन 14:27) प्रभु के जन्म पर भी स्वर्गदूतों के समूहों ने शांति के वरदान की घोषणा की थी, ‘‘सर्वोच्च स्वर्ग में ईश्वर की महिमा प्रकट हो और पृथ्वी पर उसके कृपापात्रों को शान्ति मिले!” (लूकस 2:14) प्रभु येसु के जन्म की भविष्यवाणी में भी नबी इसायाह उन्हें शांति का राजा कहते हैं, “....हम को एक पुत्र मिला है। उसके कन्धों पर राज्याधिकार रखा गया है और उसका नाम होगा- अपूर्व परामर्शदाता, शक्तिशाली ईश्वर, शाश्वत पिता, शान्ति का राजा।” (इसायाह 9:5) अपने शिष्यों का प्रेषण करते समय येसु उन्हें इसी शांति के साथ भेजते हैं। “जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’ यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।” (लूकस 10:5-6) इब्रानियों के नाम पत्र का लेखक भी येसु को शांति का राजा बताते हैं। वे मेलखिसेदेक को, येसु का पूर्व-चिन्ह बताते हुये इंगित करते हैं, “सालेम के राजा और सर्वोच्च ईश्वर के पुरोहित ....मेलखिसेदेक का अर्थ है -धार्मिकता का राजा। वह सालेम के राजा भी है, जिसका अर्थ है- शान्ति के राजा।”(इब्रानियों 7:1-2)

प्रभु की मृत्यु के बाद जब शिष्य निराश एवं भयभीत थे तो पुनर्जीवित प्रभु तीन बार शिष्यों को पुनः शांति प्रदान करते है। “...ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, “तुम्हें शांति मिले!” और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, “तुम्हें शांति मिले!” (योहन 20:19-20) “वे इन सब घटनाओं पर बातचीत कर ही रहे थे कि ईसा उनके बीच आ कर खड़े हो गये। उन्होंने उन से कहा, ‘‘तुम्हें शान्ति मिले!” (लूकस 24:36) इस प्रकार शांतिप्रदाता येसु शिष्यों के हृदयों की उथलपुथल को अपनी शांति से शांत करते हैं।

हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि हमारा ईश्वर शांति का ईश्वर है तथा उसने हमें शांति का जीवन जीने के लिए बुलाया है। जो शांति प्रभु हमें प्रदान करते हैं वह संसार की शांति के समान नहीं है जो कुछ क्षण के लिए हमें केवल शांति का अहसास कराती है। प्रभु की शांति उनके सानिध्य एवं सामिप्य से प्राप्त होती है।

जब येसु शिष्यों के साथ नाव में जा रहे थे तो नाव तूफान से घिर गयी थी। शिष्यों में भय छा गया था। वे इस डर और घबराहट के बीच येसु को जगाते हैं। येसु ने “वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, “शान्त हो! थम जा!” वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।” (मारकुस 4:39) संत पौलुस कहते हैं, “ईश्वर कोलाहल का नहीं, वरन् शान्ति का ईश्वर है।...” (1 कुरि. 14:33) हमारे जीवन में भी हम अव्यवस्था, अंशांति एवं तूफानों से गुजरते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमें शांति के राजा येसु को पुकारना चाहिए जो सारे कोलाहल को शांत करते हैं। यदि विषम परिस्थितियों में हम सांसारिक तिकडमों पर भरोसा करेंगे तो यह कोलाहल बढता ही जायेगा।

प्रभु की शांति को प्राप्त करने और उसमें बने रहने के लिए हमें लोगों के बीच शांति स्थापित करना चाहिए। जो व्यक्ति मेलमिलाप के कार्यों में लगे रहते हैं वे सचमुच में ऐसे लोग है जो प्रभु की शांति का अनुभव करते हैं। उसी शांति से प्रेरित होकर वे मेल कराते हैं। ऐसे शांतिप्रिय लोगों को येसु धन्य कह कर पुकारते हैं, “धन्य हैं वे, जो मेल कराते हैं! वे ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।” (मत्ती 5:9) इसी प्रकर अपने शिष्यों को नमक के समान बनने की चुनौती देने के साथ-साथ येसु हमें आपसी शांति एवं मेल-मिलाप को बनाये रखने का आव्हान करते हैं। “...अपने में नमक बनाये रखो और आपस में मेल रखो।” (मारकुस 9:50) ईश्वर जो शांति का ईश्वर है चाहते हैं कि हम अपने कार्यों के द्वारा शांति भंग न करें तथा शांति स्थापित कर प्रभु की धन्यता को धारण करना चाहिए। इस प्रकार “ईश्वर की शान्ति, जो हमारी समझ से परे हैं, आपके हृदयों और विचारों को ईसा मसीह में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिल्पियों 4:7) यह वही शांति है जिसे येसु अपने भयभीत शिष्यों को अपने पुनरूत्थान के बाद प्रदान करते हैं।

फादर रोनाल्ड वाँन

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Praise the Lord!