चक्र - ब - वर्ष का छठवाँ सामान्य रविवार



पहला पाठ : लेवी ग्रन्थ 13:1-2,44-46

1) प्रभु ने मूसा और हारून से यह कहा,

2) यदि किसी मनुष्य के चमड़े पर सूजन, पपड़ी या फूल दिखाई पड़े और चमड़े में चर्मरोग हो जाने का डर हो, तो वह मनुष्य याजक हारून अथवा उसके पुत्रों में किसी के पास लाया जाये।

44) तो वह व्यक्ति रोगी और अशुद्ध है। याजक उसे अशुद्ध घोषित करे, क्योंकि यह उसके सिर पर चर्मरोग है।

45) चर्मरोगी फटे कपड़े पहन ले। उसके बाल बिखरे हुए हों। वह अपना मुँह ढक कर "अशुद्ध, अशुद्ध!" चिल्लाता रहे।

46) वह तब तक अशुद्ध होगा, जब तक उसका रोग दूर न हो। वह अलग रहेगा और शिविर के बाहर निवास करेगा।

दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 10:31-11:1

31) इसलिए आप लोग चाहे खायें या पियें, या जो कुछ भी करें, सब ईश्वर की महिमा के लिए करें।

32) आप किसी के लिए पाप का कारण न बनें- न यहूदियों के लिए, न यूनानियों और न ईश्वर की कलीसिया के लिए।

33) मैं भी अपने हित का नहीं, बल्कि दूसरों के हित का ध्यान रख सब बातों में सब को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता हूँ, जिससे वे मुक्ति प्राप्त कर सकें।

11:10) आप लोग मेरा अनुसरण करें, जिस तरह मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ।

सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:40-45

40) एक कोढ़ी ईसा के पास आया और घुटने टेक कर उन से अनुनय-विनय करते हुए बोला, ’’आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं’’।

41) ईसा को तरस हो आया। उन्होंने हाथ बढ़ाकर यह कहते हुए उसका स्पर्श किया, ’’मैं यही चाहता हूँ- शुद्ध हो जाओ’’।

42) उसी क्षण उसका कोढ़ दूर हुआ और वह शुद्ध हो गया।

43) ईसा ने उसे यह कड़ी चेतावनी देते हुए तुरन्त विदा किया,

44) ’’सावधान! किसी से कुछ न कहो। जा कर अपने को याजकों को दिखाओ और अपने शुद्धीकरण के लिए मूसा द्वारा निर्धारित भेंट चढ़ाओ, जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये’’।

45) परन्तु वह वहाँ से विदा हो कर चारों ओर खुल कर इसकी चर्चा करने लगा। इस से ईसा के लिए प्रकट रूप से नगरों में जाना असम्भव हो गया; इसलिए वह निर्जन स्थानों में रहते थे फिर भी लोग चारों ओर से उनके पास आते थे।

मनन-चिंतन

लेवी ग्रंथ में यहूदी लोगों को यह बताया गया था कि कुष्ठ रोगी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। आज के पहले पाठ में हम इसी बात का विवरण पाते हैं। ’’चर्मरोगी फटे कपड़े पहन ले। उसके बाल बिखरे हुए हों। वह अपना मुँह ढक कर अशुद्ध, अशुद्ध! चिल्लाता रहे। वह तब तक अशुद्ध होगा, जब तक उसका रोग दूर न हो। वह अलग रहेगा और शिविर के बाहर निवास करेगा।’’

यहूदी लोग कुष्ठ रोगियों के साथ इसी प्रकार का व्यवहार किया करते थे। येसु के समय भी यही प्रक्रिया प्रचलन में थी। येसु का हृदय दीन-दुखियों, रोगियों एवं निराश्रितों के प्रति बडा ही दयालु था। यही कारण है कि प्रभु येसु का कुष्ठ रोगी के प्रति एकदम विपरीत दृष्टिकोण था। येसु रोगी को पिता परमेश्वर की दयामय दृष्टि से देखते है। शायद रोगी भी येसु में इस दया को देखता है इसलिए वह कुष्ठ रोगी ’चिल्लाकर दूर भागने’ के बजाए येसु के करीब आता है तथा उनसे चंगाई की गुहार लगाता है। येसु को रोगी पर तरस आता है तथा वे उसे चंगाई प्रदान करते हैं। येसु का प्रेम उस रोगी के प्रति इतना गहरा था कि येसु उससे बातचीत करते है तथा फिर उसको छूकर शुद्धता प्रदान करते हैं। इस प्रकार येसु का उस पर तरस आना, वार्तालाप करना तथा उसको स्पर्श कर चंगाई प्रदान करना मानव के प्रति ईश्वर के मर्मस्पर्शी प्रेम की तीव्रता तथा गहराई को दर्शाता है। येसु उस रोगी का इतना ध्यान रखते हैं कि उससे कहते हैं, ’’जाकर अपने को याजकों को दिखाओ और अपने शुद्धीकरण के लिए मूसा द्वारा निर्धारित भंेट चढ़ाओ, जिससे तुम्हारा स्वास्थ्यलाभ प्रमाणित हो जाये।’’ ऐसा करने से लोग उसकी शुद्धता को अधिकारिक रूप से स्वीकार करेगे अन्यथा लोग उसे अभी भी अशुद्ध मान कर दण्डित कर सकते थे।

प्रभु येसु का जीवन हम मानवों के प्रति ईश्वर के प्रेम की तीव्रता को दर्शाता है। येसु मनुष्यों के उत्थान के लिए प्रयत्नशील थे। इस दौरान उन्होंने इस ईश्वरीय प्रेम की गहराई को दिखलाया जैसे नाईन की विधवा के एकलौते बेटे के निधन पर उसकी स्थिति को देखकर येसु को तरस हो आता है। येसु बिना किसी निवेदन के ही उस मृत युवक को पुनःजीवित कर देते है। (लूकस 7:11-17) येसु का यह कार्य मानवीय वेदना तथा शोक के प्रति ईश्वरीय संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है। लाजरूस की मृत्यु पर उसकी बहनों तथा परिजनों के विलाप पर येसु को इतना तरस हो आता है कि वे स्वयं ही रो पडते हैं। (योहन 11:35) इसी प्रकार जब येसु बेथेस्दा में पडे अर्द्धांगरोगी को देखते है तो वे स्वयं उसके पास जाकर उससे बातचीत कर उसका हाल पूछते हैं। इस बातचीत के दौरान उन्हें मालूम चलता कि वह पिछले 38 वर्षों से बीमार है तथा इस दयनीय स्थिति में है। येसु का हृदय अवश्य ही द्रविद हो उठा होगा इसलिए वे उसे राहत पहुॅचाने की पहल स्वयं करते है। येसु उसकी मजबूरी तथा दुःख के प्रति संवेदनशीलता दिखलाते हुये उससे कहते हैं, ’’उठ कर खडे हो जाओ; अपनी चारपाई उठाओं और चलो।’’ (योहन 5:8)

इसी प्रकार येसु उन सभी लोगों को, जो बीमारी, पाप, सामाजिक प्रतिबंध, गरीबी आदि के कारण अस्पर्शता का जीवन बिता रहे थे उनको पुनः सामाजिक एवं स्वस्थ जीवन में लाते हैं। येसु का यह प्रेम हमारे लिये भी एक उदाहरण एवं आदर्श है। भले समारी के दृष्टांत द्वारा येसु हमें सिखलाते है कि हमारा व्यवहार भी उस भले समारी के समान होना चाहिये जिसने बिना किसी हिचकिचहाट के उस घायल अधमरे व्यक्ति की मदद के लिये अपना यथेष्ठ प्रयत्न किया। उस समारी द्वारा की गयी सेवा हमारे लिए येसु की शिक्षा है। समारी ने पास जाकर उस घायल के घावों की मरहम-पट्टी की तथा उसे उसकी ही सवारी पर बैठा कर उसकी सेवाशुश्रूणा की तथा यह भी सुनिश्चित किया कि उसे आगे सब प्रकार की मदद मिलती रहे। हमें भी लोगों के पास जाकर, बातचीत करके, उनकी समस्याओं को दया के साथ दूर करने का हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। जब हम लोगों की तकलीफ, बीमारी तथा मजबूरी में सहायता करते हैं तो हम अप्रत्यक्ष तौर पर येसु का ही स्पर्श करते; येसु की ही सेवा करते है तथा येसु के जीवन को अपनाते है। संत मत्ती के सुसमाचार अध्याय 25 में येसु ने इस बात को बडे ही स्पष्ट रूप से समझाया है कि जो परोपकार के कार्य हम दरिद्रों के लिए करते है वह हम वास्तव में येसु के लिए करते हैं। प्रभु का कहना है कि न्याय के दिन वे दीनदुखियों की सेवा करने वालों से कहेंगे कि ’’ मैं भूखा था और तुमने मुझे खिलाया, मैं प्यासा था तुमने मुझे पिलाया, मैं परदेशी था और तुमने मुझको अपने यहाँ ठहराया, मैं नंगा था तुमने मुझे पहनाया, मैं बीमार था और तुम मुझ से भेंट करने आये, मैं बन्दी था और तुम मुझ से मिलने आये।’.....तुमने मेरे भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’। (मत्ती 25:35-40) तथा उन्हें इस शब्दों के साथ पुरस्कृत करेंगे, ’’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! ....अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’’ (मत्ती 25:21)

आइये हम भी येसु के समान दीन-दुखियों के जीवन का पूर्ण प्रेम, संवेदनशीलता तथा तीव्रता के साथ उद्धार करे। हमारे सामने भी अनेक संतों के ज्वलंत उदाहरण है जिन्होंने येसु के समान लोगों की सेवा की। संत फादर देमियन ने कुष्ठ रोगियों की सेवा की तथा उनकी सेवा करते हुये वे स्वयं भी कुष्ठ रोगी बन गये। कुष्ठ से ग्रस्त होने पर भी वे दुःखी नहीं हुए बल्कि अपने उत्साह का बनाये रखते हुये अंतिम क्षण तक रोगियों की सेवा करते हुये मर गये। संत मदर तेरेसा का जीवन दया की प्रतिमूर्ति था। वे हर जरूरतमंद के लिए एक भली समारी थी। मदर का जीवन का जीवन लोगों की सेवा में इतना डूब गया था कि दया का दूसरा नाम ही मदद तेरेसा बन गया था। हमें भी इन संतों के जीवन से सीख लेकर येसु के समान लोगों की सेवा करना चाहिए।

फादर रोनाल्ड वाँन

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