चक्र - ब - वर्ष का सताईसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : उत्पत्ति ग्रन्थ 2:18-24

18) प्रभु ने कहा, ''अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं। इसलिए मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहयोगी बनाऊँगा।''

19) तब प्रभु ने मिट्ठी से पृथ्वी पर के सभी पशुओं और आकाश के सभी पक्षियों को गढ़ा और यह देखने के लिए कि मनुष्य उन्हें क्या नाम देगा, वह उन्हें मनुष्य के पास ले चला; क्योंकि मनुष्य ने प्रत्येक को जो नाम दिया होगा, वही उसका नाम रहेगा।

20) मनुष्य ने सभी घरेलू पशुओं, आकाश के पक्षियों और सभी जंगली जीव-जन्तुओं का नाम रखा। किन्तु उसे अपने लिए उपयुक्त सहयोगी नहीं मिला।

21) तब प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो गया, तो प्रभु ने उसकी एक पसली निकाल ली और उसकी जगह को मांस से भर दिया।

22) इसके बाद प्रभु ने मनुष्य से निकाली हुई पसली से एक स्त्री को गढ़ा और उसे मनुष्य के पास ले गया।

23) इस पर मनुष्य बोल उठा, ''यह तो मेरी हड्डियों की हड्डी है और मेरे मांस का मांस। इसका नाम 'नारी' होगा, क्योंकि यह तो नर से निकाली गयी है।

24) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे।

दूसरा पाठ: इब्रानियों के नाम पत्र 2:9-11

9) परन्तु हम यह देखते हैं कि मृत्यु की यन्त्रणा सहने के कारण ईसा को महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया गया है। वह स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटे बनाये गये थे, जिससे वह ईश्वर की कृपा से प्रत्येक मनुष्य के लिए मर जायें।

10) ईश्वर, जिसके कारण और जिसके द्वारा सब कुछ होता है, बहुत-से पुत्रों को महिमा तक ले जाना चाहता था। इसलिए यह उचित था कि वह उन सबों की मुक्ति के प्रवर्तक हो, अर्थात् ईसा को दुःखभोग द्वारा पूर्णता तक पहुँचा दे।

11) जो पवित्र करता है और जो पवित्र किये जाते हैं, उन सबों का पिता एक ही है; इसलिए ईसा को उन्हें अपने भाई मानने में लज्जा नहीं होती और वह कहते हैं -

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 10:2-16

2 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, “क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?“

3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? ’’मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?’’

4) उन्होंने कहा, “मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी’’।

5) ईसा ने उन से कहा, ’’उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।

6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;

7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।

8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।

9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’

10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया

11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, ’’जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है

12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है’’।

13) लोग ईसा के पास बच्चों को लाते थे, जिससे वे उन पर हाथ रख दें; परन्तु शिष्य लोगों को डाँटते थे।

14) ईसा यह देख कर बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, ’’बच्चों को मेरे पास आने दो। उन्हें मत रोको, क्योंकि ईश्वर का राज्य उन-जैसे लोगों का है।

15) मैं तुम से यह कहता हूँ- जो छोटे बालक की तरह ईश्वर का राज्य ग्रहण नहीं करता, वह उस में प्रवेश नहीं करेगा।’’

16) तब ईसा ने बच्चों को छाती से लगा लिया और उन पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।

मनन-चिंतन

हमारा प्रभु ईश्वर एक है, और ईश्वर में तीन जन हैं: पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। यह हमें ईश्वर और उसमें समाहित पवित्र रिश्ते की विशेषता बतलाता हैं। पवित्र त्रित्व का रिश्ता एक पवित्र, गूढ, अटूट और एकता का रिश्ता है। आज के सुसमाचार में भी हम एक ऐसे रिश्ते से रूबरू होते है जो कि एक पवित्र रिश्ता है और इस रिश्ते से परिवार का निर्माण होता है। यह रिश्ता पति और पत्नी के बीच का रिश्ता है जो विवाह के द्वारा एक दूसरे से जुडते है। यह कलीसिया का एक पवित्र संस्कार है।

प्रभु ईश्वर ने सृष्टि-कार्य से अपना रिश्ता सृष्टि से बनाये रखा हैं: सृष्टिकर्ता-सृष्टि का रिश्ता, विशेष रूप से ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता। उन्होनें हमें अपना स्वरूप बनाकर एक रिश्ते को एक नयी दिशा देकर एक अमिट रिश्ते को कायम किया हैं। परन्तु मनुष्य ने पाप में गिरकर अपने आप को इस रिश्ते से दूर कर दिया। फिर भी प्रभु ईश्वर ने कभी भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ा और हमेशा किसी न किसी प्रकार से इस रिश्ते को बनाये रखने की कोशिश की। ‘‘मैं तुम्हे अपनी प्रजा मानूँगा और तुम्हारा ईश्वर होऊॅंगा।’’(निर्ग0 6:7; यिर 30:22; 31:1,33; 7:23; उत्पत्ति 17:8, निर्ग0 29:45, एजे0 20:20)

आज के सुसमाचार में हम पति-पत्नि के रिश्ते के बीच में उलझन सम्बद्धित प्रश्न के बारे में सुनते है, जो कि फरीसियों द्वारा ईसा से पूछा गया। यह प्रश्न पति-पत्नी के रिश्ते को सुलझाने हेतु नहीं परंतु प्रभु ईसा की परीक्षा और उन्हे किसी प्रकार से फॅंसाने हेतु पूछा गया। ईसा के साथ यह कोई नयी बात नहीं थी क्योकि अक्सर फरीसी और शास्त्री उन्हें किसी न किसी प्रकार से फॅसाने की कोशिश किया करते थे। इस बार वे पति द्वारा पत्नी को त्यागने के विषय को लेकर ईसा के पास आये थे। जो कि मूसा द्वारा दिया गया था, ‘‘यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करे, बाद में वह उसे इसलिए नापसन्द करे कि वह उस में कोई लज्जाजनक बात पाता हो और उसे त्याग पत्र दे’’ (विधि विवरण 24:1)। प्रभु इसका जवाब देते हुए कहते है ‘‘उन्होनें तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा’’ अर्थात् यह जो नियम या आदेश था ईश्वर द्वारा नहीं अपितु मनुष्य द्वारा प्रेरित था। इस पर प्रभु येसु ईश्वर के नियम या ईश्वर के विचार को प्रकट करते हैं। प्रभु कहते है, ‘‘किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया; इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोडे़गा और दोनो एक शरीर हो जायेंगे। इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं। इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’ ईसा का यह कथन हमें निम्न बातें बताता है।

पहलाः पति-पत्नि का रिश्ता अभी का बनाया हुआ नहीं परन्तु बहुत पहले से बनाया हुआ है, ‘‘सृष्टि के प्रारंभ से ही’’पति-पत्नि के जन्म से भी बहुत पहले। क्योकि ईश्वर जब हमें गढ़ता है, बनाता है तो वह हमारे जन्म से पूर्व ही हमें जानता है और हमारे लिए र्निधारित योजनाए बनाता हमारी हित की योजनाएं, हमारे मंगलमय जीवन की योजनाएं, आशामय भविष्य की महत्वपूर्ण योजनाएं जिनमें से विवाह का रिश्ता भी एक है।

दूसराः एकता का रिश्ता- विवाह के बाद वे दो नहीं अपितु एक हो जाते है जिस प्रकार पवित्र त्रित्व एक है। इसलिए संत पौलुस एफेसियों के नाम अपने पत्र में पतियों से कहते है, ‘‘पति अपनी पत्नी को इस तरह प्यार करे, मानो वह उसका शरीर हो। कोई अपने शरीर से बैर नहीं करता। उल्टे, वह उसका पालन-पोषण करता और उसकी देख-भाल करता रहता है।’’(एफे0 5:28-29) प्रभु ईश्वर ने नारी को नर के अंग से ही बनाया, ‘‘तब प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो गया, तो प्रभु ने उसकी पसली निकाल ली और उसकी जगह को मांस से भर दिया। इसके बाद प्रभु ने मनुष्य से निकाली हुई पसली से एक स्त्री को गढ़ा और उसे मनुष्य के पास ले गया’’ (उत्पत्ति 2:21,22)

तीसराः ईश्वर की इच्छा- ईश्वर और मनुष्य के विचार में बहुत फर्क है ‘‘प्रभु यह कहता है-तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकाश पृथ्वी से ऊॅंचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊॅंचे हैं।’’ यह रिश्ता किसी मनुष्य द्वारा नहीं परंतु ईश्वर द्वारा बनाया हुआ है, ‘‘जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’ जिस रिश्ते को ईश्वर ने जोड़ा है, र्निधारित किया है उसे मनुष्य केवल अपने स्वार्थ के लिए या अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए या किसी भी स्वार्थी मतलब से अलग नहीं करे।

संत मत्ती का सुसमाचार इस विषय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। ’’मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।’’ (मत्ती 19:9) आज कल का ज़माना बहुत ही अलग है आजकल परित्याग या डिवोर्स आम बात होती जा रही हैं। हर छोटी से छोटी बात पर परिवार टूटते जा रहें है, पति-पत्नी में झगड़े, विवाद बढ़कर डिवोर्स का रूप ले रही है। आज कल डिवोर्स के कई कारण हो सकते हैः बीमारी, गरीबी, दहेज, शराब, ससुराल की कड़वाहट आदि परन्तु संत मत्ती का वचन स्पष्ट रूप से बताता है कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है। पति और पत्नी के बीच झगड़ा, टकरार, परेशानी, मुसीबत, सुख-दुःख तो आम बात है परंतु इनको लेकर परित्याग करना अर्थात् ईश्वर के समक्ष की गई प्रतीज्ञा का निरादर हैं। विवाह के समय पति-पत्नी ईश्वर के समक्ष यह वादा करते हैं कि -चाहे सुख हो या दुःख हर परिस्थ्तिति में मैं आपका या आपकी पति या पत्नी बना रहूँगा/रहूँगी। विवाह का रिश्ता एक पवित्रता भरा रिश्ता है जो तोड़ने के लिए नही परंतु निभाने के लिए बना हुआ है। जिस प्रकार मसीह और कलीसिया का रिश्ता है उसी प्रकार पतिपती और पत्नी का भी रिश्ता होना चाहिए। एक दूसरे के प्रति प्रेम और सर्मपण (एफे0 5:21-33)। यह रिश्ता दुख, या समस्या देखकर भागने का नहीं परन्तु अपने जीवन, प्रार्थना एवं श्रद्धापूर्वक जीवन द्वारा विपरीत परिस्थिती को अनुकुल स्थ्तिी बनाने की है। संत जोसफ, संत मोनिका, संत रीता, संत थोमस मोर, बालक येसु की संत तेरेसा के माता-पिता, संत लूईस और ज़ेली मार्टिन इसके ज्वलंत उदाहरण है। और यह सब उनके त्यागपूर्ण, पवित्रता एवं संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी है। ‘‘पत्नियों! आप अपने पतियों के अधीन रहें। यदि उन में कुछ व्यक्ति अब तक सुसमाचार स्वीकार नहीं करते, तो वे आपका श्रद्धापूर्ण तथा पवित्र जीवन देख कर शब्दों के कारण नहीं, बल्कि अपनी पत्नियों के आचरण के कारण विश्वास की ओर आकर्षित हो जायेंगे।’’(1 पेत्रुस 3:1-2)।

आज का सुसमाचार हमें अलग होने का नही अपितु एक रहकर ईश्वरीय रिश्ते को अनुभव करने का निमंत्रण है।

फ़ादर डॆनिस तिग्गा


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