चक्र - ब - वर्ष का उन्तीसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 53:10-11

10) प्रभु ने चाहा कि वह दुःख से रौंदा जाये। उसने प्रायश्चित के रूप में अपना जीवन अर्पित किया; इसलिए उसका वंश बहुत दिनों तक बना रहेगा और उसके द्वारा प्रभु की इच्छा पूरी होगी।

11) उसे दुःखभोग के कारण ज्योति और पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा। उसने दुःख सह कर जिन लोगों का अधर्म अपने ऊपर लिया था, वह उन्हें उनके पापों से मुक्त करेगा।

दूसरा पाठ: इब्रानियों के नाम पत्र 4:14-16

14) हमारे अपने एक महान् प्रधानयाजक हैं, अर्थात् ईश्वर के पुत्र ईसा, जो आकाश पार कर चुके हैं। इसलिए हम अपने विश्वास में सुदृढ़ रहें।

15) हमारे प्रधानयाजक हमारी दुर्बलताओं में हम से सहानुभूति रख सकते हैं, क्योंकि पाप के अतिरिक्त अन्य सभी बातों में उनकी परीक्षा हमारी ही तरह ली गयी है।

16) इसलिए हम भरोसे के साथ अनुग्रह के सिंहासन के पास जायें, जिससे हमें दया मिले और हम वह कृपा प्राप्त करें, जो हमारी आवश्यकताओं में हमारी सहायता करेगी।

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 10:35-45

35) ज़ेबेदी के पुत्र याकूब और योहन ईसा के पास आ कर बोले, ’’गुरुवर ! हमारी एक प्रार्थना है। आप उसे पूरा करें।’’

36) ईसा ने उत्तर दिया, ’’क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?’’

37) उन्होंने कहा, ’’अपने राज्य की महिमा में हम दोनों को अपने साथ बैठने दीजिए- एक को अपने दायें और एक को अपने बायें’’।

38) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मुझे पीना है, क्या तुम उसे पी सकते हो और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, क्या तुम उसे ले सकते हो?’’

39) उन्होंने उत्तर दिया, ’’हम यह कर सकते हैं’’। इस पर ईसा ने कहा, ’’जो प्याला मुझे पीना है, उसे तुम पियोगे और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, उसे तुम लोगे;

40) किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने देने का अधिकार मेरा नहीं हैं। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए वे तैयार किये गये हैं।’’

41) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे याकूब और योहन पर क्रुद्ध हो गये।

42) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा, ’’तुम जानते हो कि जो संसार के अधिपति माने जाते हैं, वे अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

43) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

44) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने;

45) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।’’

मनन-चिंतन

प्रभु येसु के पुनुरूत्थान के तुरंत बाद जिस मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ, वह है संत पौलुस। पौलुस जो कि एक ख्रीस्तीयों का कट्टर विरोधी था, ख्रीस्त का सबसे उत्तम साक्षी बना। न केवल उसके जीवन में परिवर्तन हुआ परन्तु पवित्र आत्मा की प्रेरणा द्वारा उन्होंने बहुतों को ख्रीस्तीय विश्वास में लाया तथा ख्रीस्त की अद्भुत और गूढ़ से गूढ़ शिक्षाएं दी। उनमें से एक शिक्षा है, “मैं जब दुर्बल हूँ तब बलवान हूँ” (कुरिन्थियों 12:10)। यह शिक्षा पूर्ण रूप से प्रभु येसु द्वारा प्रेरित है, जो कि आज के सुसमाचार से ज्ञात होता है। जो तुम लोगो में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने।“ ऐसा कौन सा व्यक्ति कह सकता है कि जब मै दुर्बल हूँ तब बलवान हूँ, क्योंकि ये एक दूसरे के विपरीत हैं। यह वाक्य किसी दुर्बल व्यक्ति जैसे कि किसी अंधे, लंगडे, या किसी भी कारण से शारीरिक या मानसिक दुर्बल व्यक्ति से पूछा जाये तो वह यह वाक्य कभी भी स्वीकार नही करेगा। एक अंधा कैसे कह पायेगा कि मैं किसी दूसरे व्यक्ति को राह दिखा सकता हूँ, एक लंगडा कैसे कह पायेगा कि मैं दूसरो को सहारा दे सकता हूँ, एक गूँगा कैसे कह पायेगा कि मैं दूसरो को गीत गाना सिखा सकता हूँ। ये व्यक्ति अपनी इन अवस्थाओं में अपने ही बल के कारण ये काम नही कर सकते, परंतु ईश्वर इनकी उन्हीं अवस्थाओं में इनके द्वारा सबकुछ कर सकता है, “क्योंकि ईश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है”(लूकस 1:37)।

ईश्वर एक गूँगे के द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को गीत लिखने या मनोबल खोए हुए व्यक्ति को गीत गाने की प्रेरणा दे सकता है, किसी अंधे व्यक्ति के द्वारा दूसरे को आध्यात्मिक रास्ता दिखा सकता है। जो व्यक्ति जितना ज्यादा लाचार होता है ईश्वर की महिमा उतने ही ज्यादा रूप में प्रकट होती है। उदाहरण के तौर पर लाजरुस का जिलाया जाना। प्रभु कहते हैं, “यह बीमारी मृत्यु के लिये नहीं, बल्कि ईश्वर की महिमा के लिये आयी है” (योहन 11:4)। बड़ी भीड़ को कुछ रोटी और मछलियों द्वारा तृप्त किया जाना, असंभव लगता है। जो असंभव लगता है उसे सर्वशक्तिमान ईश्वर संभव बनाता है।

इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है माँ मरियम। मरियम ने अद्भुत कार्य कर महानता हासिल नही की, परंतु ईश्वर ने मरियम के जीवन में अद्भुत कार्य कर मरियम को महान बनाया। “अब से सब पीढ़ियाँ मुझे धन्य कहेंगी; क्योंकि सर्वशक्तिमान ने मेरे लिए महान् कार्य किये हैं” (लूकस 1:48-49)। हम कितना ही प्रयास एवं महान बनने के लिए बड़े से बड़े कार्य क्यों न कर लें, हम ईश्वर बिना कुछ नहीं कर सकते (योहन 15:5)। प्रभु निर्धन और धनी बना देता है, वह नीचा दिखाता और ऊँचा उठाता है” (1 समूएल 2:7)।

आज के सुसमाचार में हम याकूब और योहन को प्रभु से कुछ माँगते हुए पाते हैं। वे येसु के राज्य की महिमा में उनके दायें और उनके बायें बैठना चाहते थे। किसी भी राज्य में राजा के दायें और बायें कौन बैठता है? वही जो राजा के खास होते हैं जो उनके दायें और बायें बैठने के लायक होते हैं। राजा के दायें और बायें बैठना एक गर्व और महानता की बात होती है। अक्सर लोग उस गौरवमय स्थान को ही देखते हैं परन्तु उस स्थान में बैठने लायक बनने के लिए उन सभी जरूरी गुणों को भूल जाते हैं।

प्रभु येसु शिष्यों की इस बात को जानकर उन्हें महानता के विषय में एक महत्वपूर्ण शिक्षा देते हैं “जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने” (मारकुस 10:43-44)। अर्थात् हम सब बड़ा और प्रधान बनना चाहते हैं परंतु ईश्वर की दृष्टि में बड़ा और प्रधान हम इस संसार में सेवक और दास बनकर ही बन सकते हैं। एक सेवक और दास में ऐसी कौन सी विशेषतायें होती हैं जो उन्हें महान बनाती हैं? एक दास या सेवक खुद की मर्जी का मालिक नहीं होता, दूसरों के सामने नजर नहीं उठा सकता, बिना कुछ कहें सबके कार्य करता है, दर्द होने पर भी सबके जुल्म सहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरों का सेवक या सबका दास बनना अर्थात् दूसरों के मुकाबले सबसे दुर्बल व्यक्ति बनना है। इसे प्रभु येसु ने अपने जीवन में कर के दिखाया “वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होनें दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया। इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामो में श्रेष्ठ है।” (फिलि 2:6-9)

संत मत्ती के सुसमाचार द्वारा प्रभु येसु इस बात को स्पष्ट कर देते है कि, “वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने उन्हें तैयार किया है” (मत्ती 20:23)। अर्थात् दीन हीन बनना हमारा कार्य है और ईश्वर के राज्य में दाये और बाये बिठाना ईश्वर का कार्य है क्योंकि “वह दीन-हीन को धूल से निकालता और कूड़े पर बैठे कंगाल को ऊपर उठा कर उसे रईसों की संगति में पहँचाता और सम्पन्न के आसन पर बैठाता है; क्योंकि पृथ्वी के खम्भे प्रभु के हैं, उसने उन पर जगत् को रखा है।” (1 समूएल 2:8)

एक सेवक की सबसे बडी निशानी या चिन्ह अन्यायपूर्ण दुखों को सहना है अर्थात् गलती न करने पर भी उसे गलती की सजा अगर मिलती है तो उसे धैर्यतापूर्वक सहना है या दूसरों की गलतियों की सजा बिना कुड़कुड़ाए भोगना चाहिए। जो इस प्रकार का दुख सहता है और अपना कर्तव्य पूरा करता है, वह आकाश के तारे की तरह चमकता हैं, “आप लोग भुनभुनाये और बहस किये बिना अपने सब कर्तव्य पूरा करें, जिससे आप निष्कपट और निर्दोष बने रहें और इस कुटिल एवं पथभ्रष्ट पीढ़ी में ईश्वर की सच्ची सन्तान बन कर आकश के तारों की तरह चमकें”(फिलि. 2:14-15) जिस प्रकार प्रभु येसु ने हमारे पापों की सजा को अपने ऊपर लेकर चुपचाप वो अत्याचार सहे। इसायह नबी अपने ग्रंथ में इसका वर्णन करते है, “हमारे पापों के कारण वह छेदित किया गया है। हमारे कुकर्मों के कारण वह कुचल दिया गया है। जो दण्ड वह भोगता था, उसके द्वारा हमें शांति मिली है और उसके घावों द्वारा हम भले-चंगे हो गये हैं ........ वह अपने पर किया हुआ अत्याचार धैर्य से सहता गया और चुप रहा। वध के लिए ले जाये जाने वाले मेमने की तरह और ऊन कतरने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुँह नही खोला..... उसने कोई अन्याय नहीं किया था और उसके मुँह से कभी छल-कपट की बात नहीं निकली थी,.....प्रभु ने चाहा कि वह दुख से रौंदा जाये। उसने प्रायश्चित के रूप में अपना जीवन अर्पित किया, इसलिए उसका वंश बहुत दिनों तक बना रहेगा और उसके द्वारा प्रभु की इच्छा पूरी होगी।” (इसायह 53:5,7,9,10)

प्रभु येसु एक सच्चा सेवक बनकर हमारे लिए मुक्ति का श्रोत बन गये हैं। हम भी प्रभु के समान सेवक बनें जो सेवा कराने नहीं परंतु सेवा करने आये थे। हम दुर्बल बनें जिससे हम ईश्वर के बल को हमारे जीवन में अनुभव कर सकें।

फ़ादर डेनिस तिग्गा


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