चक्र - ब - वर्ष का इकत्तीसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : विधि-विवरण 6:2‍-6

2) यदि तुम अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ जीवन भर अपने प्रभु-ईश्वर पर श्रद्धा रखोगे और जो नियम तथा आदेश मैं तुम्हें दे रहा हूँ, यदि तुम उनका पालन करोगे, तो तुम्हारी आयु लम्बी होगी।

3) इस्राएल यदि तुम सुनोगे और सावधानी से उनका पालन करोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा, तुम फलोगे-फूलोगे और जैसा कि प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों के ईश्वर ने कहा, वह तुम्हें वह देश प्रदान करेगा, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।

4) इस्राएल सुनो। हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।

5) तुम अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी शक्ति से प्यार करो।

6) जो शब्द मैं तुम्हें आज सुना रहा हूँ वे तुम्हारे हृदय पर अंकित रहें।

दूसरा पाठ : इब्रानियों 7:23‍-28

23) वे बड़ी संख्या में पुरोहित नियुक्त किये जाते हैं, क्योंकि मृत्यु के कारण अधिक समय तक पद पर रहना उनके लिए सम्भव नहीं।

24) ईसा सदा बने रहते हैं, इसलिए उनका पौरोहित्य चिरस्थायी हैं।

25) यही कारण है कि जो लोग उनके द्वारा ईश्वर की शरण लेते हैं, वह उन्हें परिपूर्ण मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं; क्योंकि वे उनकी ओर से निवेदन करने के लिए सदा जीवित रहते हैं।

26) यह उचित ही था कि हमें इस प्रकार का प्रधानयाजक मिले- पवित्र, निर्दोष, निष्कलंक, पापियों से सर्वथा भिन्न और स्वर्ग से भी ऊँचा।

27) अन्य प्रधानयाजक पहले अपने पापों और बाद में प्रजा के पापों के लिए प्रतिदिन बलिदान चढ़ाया करते हैं। ईसा को इसकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उन्होंने यह कार्य एक ही बार में उस समय पूरा कर लिया, जब उन्होंने अपने को बलि चढ़ाया।

28) संहिता जो दुर्बल मनुष्यों को प्रधानयाजक नियुक्त करती है, किन्तु संहिता के समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर की शपथ के अनुसार वह पुत्र पुरोहित नियुक्त किया जाता है, जिसे सदा के लिए परिपूर्ण बना दिया है।

सुसमाचार : मारकुस 12:28ब-34

28) तब एक शास्त्री ईसा के पास आया। उसने यह विवाद सुना था और यह देख कर कि ईसा ने सदूकियों को ठीक उत्तर दिया था, उन से पूछा, “सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?“

29) ईसा ने उत्तर दिया, “पहली आज्ञा यह है- इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।

30) अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो।

31) दूसरी आज्ञा यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।“

32) शास्त्री ने उन से कहा, “ठीक है, गुरुवर! आपने सच कहा है। एक ही ईश्वर है, उसके सिवा और कोई नहीं है।

33) उसे अपने सारे हृदय, अपनी सारी बुद्धि और अपने सारी शक्ति से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना, यह हर प्रकार के होम और बलिदान से बढ़ कर है।“

34) ईसा ने उसका विवेकपूर्ण उत्तर सुन कर उस से कहा, “तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो"। इसके बाद किसी को ईसा से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।

मनन-चिंतन

आज के पाठों का सार है यदि हम ईश्वर के साथ जीवन यापन करना चाहते हैं तो हमें अपने जीवन में ईश्वर द्वारा दी गई ईश्वरीय प्रेम और पड़ोसी प्रेम की आज्ञाओं का पालन करना नित्तान्त आवश्यक है।

कहा गया है कि हम इस पृथ्वी या संसार में जिस वस्तु या चीज को अत्यधिक चाहते हैं उसका सौंदर्य या चमक धीरे-धीरे कम होती जाती है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है कि समय के साथ उसका मूल्य कम होते जाता है। पर यदि हम ईश्वरीय प्रेम और पड़ोसी प्रेम को देखें तो यह इसके ठीक विपरीत है। यह जितना ज्यादा से ज्यादा उपयोग में लाया जाता है उसका मूल्य बढ़ता ही जाता है।

इसका उदाहरण स्वरूप आज के पहले पाठ विधि विवरण ग्रंथ 6:2-6, मूसा लोगों से कहते हैं कि यदि तुम अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ जीवन भर प्रभु पर श्रध्दा रखोगे और उसके नियमों का पालन करोगे, तो तुम्हारी आयु लंबी होगी और इसी में तुम्हारा कल्याण है।

हम कितनी बार पवित्र वचनों को प्रवचनों में सुनते हैं, कितनी बार हमें कहा जाता है कि हम ईश्वर में अपनी जीवन को केन्द्रित करें। लेकिन कई बार हमारा जीवन बहुमूल्य मोती को संजोये नहीं रखता है। हम अपने क्रियाकलापों में व्यस्त होकर प्रभु के जीवंत वचनो से अपने को अलग कर देते हैं।

आज के दूसरे पाठ इब्रानियों के नाम पत्र 7:23-28 में कहा गया है, यहूदी याजक मनुष्य मात्र थे। इसलिए उन्हें बारम्बार बलि चढ़ानी पड़ती थी। परन्तु हमारे प्रभु येसु मसीह ने एक ही बार सारी मानव जाति के पापों के लिए पूर्ण प्रायश्चित किया। यह सब इसलिए संभव हुआ कि येसु हर क्षण पिता ईश्वर के साथ थे। उनके जीवन में उनका अतुल्य स्थान था।

इसी के संदर्भ में मैं आप सभों को एक राजा की कहानी का जिक्र करता हूँ जो हमेशा आंनदमय जीवन बिता रहा था। लेकिन वह जीवन में एक चीज से चिंतित और दुःखी था कि उसकी कोई संतान नहीं थी। वह आपनी प्रजा को अत्यंत प्यार करता था। एक दिन की बात है- राजा के घनिष्ट मित्र ने कहा, “स्वामी जी आप अपनी प्रजा के ही किसी बालक को गोद ले लें” और राजा ने गोद लेने के लिए बालकों से दो शर्तें रखी। जो भी युवक या बालक राजा के दरबार में दत्तक पुत्र बनना चाहता है उसमें ईश्वर और पड़ोसी के प्रति प्रेम होना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा के दरबार में आकर कई युवकों और बालकों ने दत्तक पुत्र बनने का प्रयास किया। कई युवक और बालक अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर राजा के समाने पेश हुये, लेकिन राजा ने उन्हें एक-एक करके अयोग्य घोषित कर दिया। अंत में एक फट्टे पुराने कपड़े पहने युवक आया और राजा के सामने राज दरबार में दत्तक पु़त्र बनने का दावा पेश किया। राजा ने सहर्ष उसे गले लगाकर उसका चुंबन किया क्योंकि वह युवक ईश्वर से भय एवं प्यार करता था और अपने पड़ोसी को भी अपने ही समान समझता था। इसे देखकर मीडिया या पत्रकारों ने राजा के पास जाकर उनका साक्षात्कार लिया और राजा से जानना चाहा कि क्यों उन्होंने ऐसे युवक या बालक को अपना दत्तक पुत्र माना। तो राजा का दो टूक जवाब था कि मैंने ऐसे बालक को पहली बार मेरे जीवन में देखा जिसने मेरे जीवन को झकझोर कर रख दिया, जिसकी मुझे अपने जीवन मे खोज थी।

आज के तीसरे पाठ - सुसमाचार – के द्वारा प्रभु हमें सुखमय जीवन जीने के लिए दो बातें बतलाते हैं। ईश्वर को प्यार करना और पड़ोसी को प्यार करना। हमारा जीवन कई प्रकार के प्रश्नों से भरा रहता है। कई बार हम मन ही मन ईश्वर के अनुरूप बनने का प्रयास करते हैं और कई बार हमारे प्रयास कुछ हद तक सफल भी होते हैं। लेकिन कई बार हम अत्यधिक उत्साह के कारण अपने मार्ग से भटक जाते हैं और हमारी चुनौतियाँ हमें सान्सारिक सागर की ओर डूबा देती है। फिर इसी चुनौती का समाधान खोजते-खोजते हम अपने जीवन को ईश्वर से दुर कर देते हैं।

इसलिए आज युख्रीस्तीय बलिदान में हमें प्रण लेना है कि हम जीवन में प्रभु से संयुक्त रहने के लिए हमें ईश्वरीय वचन को मूल मंत्र की तरह अपनायेंगे जिसे हम प्रभु के लिए समर्पित कर सकें।

फादर आइजक एक्का


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