चक्र - ब - वर्ष का बत्तीसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : 1 राजाओं 17:10-16

10) एलियाह उठ कर सरेप्ता गया। शहर के फाटक पर पहुँच कर उसने वहाँ लकड़ी बटोरती हुई एक विधवा को देखा और उसे बुला कर कहा, "मुझे पीने के लिए घड़े में थोड़ा-सा पानी ला दो"।

11) वह पानी लाने जा ही रही थी कि उसने उसे पुकार कर कहा, "मुझे थोड़ी-सी रोटी भी ला दो"।

12) उसने उत्तर दिया, "आपका ईश्वर, जीवन्त प्रभु इस बात का साक्षी है कि मेरे पास रोटी नहीं रह गयी है। मेरे पास बरतन में केवल मुट्ठी भर आटा और कुप्पी में थोड़ा सा तेल है। मैं दो-एक लकड़ियाँ बटोरने आयी हूँ। अब घर जा कर उसे अपने लिए और अपने बेटे के लिए पकाती हूँ। हम उसे खायेंगे और इसके बाद हम मर जायेंगे।

13) एलियाह ने उस से कहा, "मत डरो। जैसा तुमने कहा, वैसा ही करो। किन्तु पहले मेरे लिये एक छोटी-सी रोटी पका कर ले आओ। इसके बाद अपने लिए और अपने बेटे के लिए तैयार करना;

14) क्योंकि इस्राएल का प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः जिस दिन तक प्रभु पृथ्वी पर पानी न बरसाये, उस दिन तक न तो बरतन में आटा समाप्त होगा और न तेल की कुप्पी खाली होगी ।"

15) एलियाह ने जैसा कहा था, स्त्री ने वैसा ही किया और बहुत दिनों तक उस स्त्री, उसके पुत्र और एलियाह को खाना मिलता रहा।

16) जैसा कि प्रभु ने एलियाह के मुख से कहा था, न तो बरतन में आटा समाप्त हुआ और न तेल की कुप्पी ख़ाली हुई।

दूसरा पाठ : इब्रानियों 9:24-28

24) क्योंकि ईसा ने हाथ के बने हुए उस मन्दिर में प्रवेश नहीं किया, जो वास्तविक मन्दिर का प्रतीक मात्र है। उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश किया है, जिससे वह हमारी ओर से ईश्वर के सामने उपस्थित हो सकें।

25) प्रधानयाजक किसी दूसरे का रक्त ले कर प्रतिवर्ष परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करता है। ईसा के लिए इस तरह अपने को बार-बार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं है।

26) यदि ऐसा होता तो संसार के प्रारम्भ से उन्हें बार-बार दुःख भोगना पड़ता, किन्तु अब युग के अन्त में वह एक ही बार प्रकट हुए, जिससे वह आत्मबलिदान द्वारा पाप को मिटा दें।

27) जिस तरह मनुष्यों के लिए एक ही बार मरना और इसके बाद उनका न्याय होना निर्धारित है,

28) उसी तरह मसीह बहुतों के पाप हरने के लिए एक ही बार अर्पित हुए। वह दूसरी बार प्रकट हो जायेंगे- पाप के कारण नहीं, बल्कि उन लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए, जो उनकी प्रतीक्षा करते हैं।

सुसमाचार : मारकुस 12:38-44

38) ईसा ने शिक्षा देते समय कहा, "शास्त्रियों से सावधान रहो। लम्बे लबादे पहन कर टहलने जाना, बाज़ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना,

39) सभागृहों में प्रथम आसनों पर और भोजों में प्रथम स्थानों पर विराजमान होना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।

40) वे विधवाओं की सम्पत्ति चट कर जाते और दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करते हैं। उन लोगों को बड़ी कठोर दण्डाज्ञा मिलेगी।"

41) ईसा ख़जाने के सामने बैठ कर लोगों को उस में सिक्के डालते हुए देख रहे थे। बहुत-से धनी बहुत दे रहे थे।

42) एक कंगाल विधवा आयी और उसने दो अधेले अर्थात् एक पैसा डाल दिया।

43) इस पर ईसा ने अपने शिष्यों को बुला कर कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ- ख़जाने में पैसे डालने वालों में से इस विधवा ने सब से अधिक डाला है;

44) क्योंकि सब ने अपनी समृद्धि से कुछ डाला, परन्तु इसने तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला।"

मनन-चिंतन

किसी अमुख पल्ली में, गिरजाघर की स्थिति दयनीय बन गयी थीl उस गिरजाघर का रंग उखड़ चुका था, उसके चारों ओर का दृश्य उजाड़ सा प्रतीत हो रहा था। उसकी मरम्मत कराने के प्रति लोग उदासीन थे। उसके अंदर के रखी किताबो और अलमारियो को प्रायः घुन खा चुका था। उसकी मरम्मत के लिए धन की कमी थी। अतः एक दिन वहाँ के पल्ली पुरोहित ने पल्लीवासियों की सभा बुलाई और पूछा कि कैसे गिरजाघर का नवीनीकरण किया जा सके। अतः सभी पल्लीवासियों ने अपनी-अपनी राय प्रस्तुत की और कहा कि सभी लोग अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार योगदान देंगे। उसी पल्ली में ही एक अत्यंत धनी व्यक्ति था जो अत्यंत कठोर हदय का था। उसे कोई भी पल्लीवासी जागरूक नहीं कर सकता था। इसलिए पल्ली पुरोहित ने सभी पल्लीवासियों से कहा क्यों न हम गिरजाघर जाकर ईश्वर से प्रार्थना कर उस धनी व्यक्ति के हदय को ख्रीस्तीयमय बना सके। पल्ली पुरोहित ने भावुक होकर भक्तिभाव से प्रार्थना की। परिणाम स्वरूप तुंरत ही उस धनी व्यक्ति ने कहा कि मैं अब से सारे गिरजाघर के मरम्मत के कार्य में अपना संपूर्ण योगदान दूंगा। इसे सुनते ही सबों के दिल में खुशी की लहर दौड़ चली और उनकी खुशी की कोई सीमा न रही। इस घट्ना से उत्साहित होकर पल्ली पुरोहित और जोर-जोर से प्रार्थना करने लगा जिसे सभी के पत्थरमय हदय पिघल जाये।

आज के तीनों पाठों का निचोड़ है उदारता और त्याग की भावना। हम सभी इसी उदारता और त्याग की भावना में सहभागी होने के लिए ईश्वर द्वारा इस संसार में नाम लेकर बुलाये गये हैं। अब प्रश्न उठता है कि कैसे हम इसे अपने जीवन में कार्यरूप में परिणत करें। हम सभी ईश्वर की असीम दया के कारण किसी न किसी रूप में अवश्य धनी हैं। यही हमें स्मरण दिलाता है कि हमें जरूरतमदों की सहायता करनी है यही हमारे जीवन में भिन्नता दिखाती है।

आज के पहले पाठ और सुसमाचार में सच्चे मनुष्य के गुणों को दर्शाया गया है। पुराने और नये विधान में दो योग्य गरीब विधवाओं की उदारता और त्याग की मिसाल को निखारा गया है उनकी इस भावना को हम कभी भुला नहीं सकते हैं। पवित्र बाइबिल हमें बताती है कि उनकी उदारता और त्याग की भावना एक महान और अद्वितीय घटना थी। क्या आज हम अपने जीवन में इस प्रश्न का जवाब देने का हिम्मत रखते हैं? कि हम ख्रीस्तीय अनुकंपा, उदारता और त्याग से परिपूरित हैं?

आज के सुसमाचार में संत मारकुस हमारे सामने अंत्यत रोचकपूर्ण दृश्य प्रस्तुत करते हैं और वह है प्रभु येसु के मंदिर में दान देने वालों पर टिप्पणी करना। बहुत से धनी लोग अपनी समृध्दि में से दान दे रहे थे और उन्हीं के बीच एक कंगाल विधवा अपनी जीविका के सभी को दान कर देती है। उनकी उदारता की भावना को सराहे बिना येसु स्वय को रोक नहीं सके। वे अपने शिष्यों को उनकी उदारता की भावना का पाठ पढ़ाते हैं कि किसी की उदारता मनुष्य को कभी भी नीचा नहीं वरन् उसे महान बनाती है।

आज के पहले पाठ राजाओं का पहला ग्रंथ हमें एक गरीब विधवा की हदयस्पर्शी घटना की याद दिलाता है, जो अपने मुठ्ठी भर आटा और थोड़ी सी कुप्पी भर के तेल से भोजन बनाकर नबी एलियाह को खाना खिलाती है। यह किसी महान उदारता की भावना से कम नहीं था। क्या हम भी उस विधवा की तरह अपनी निर्धनता में भी परिपूर्णताः दिखाते हैं? उदारता महानता की वह भावना है जो ऊंच नीच की भावना को उखाड़कर फेंक देती है। आज के पुराने और नये विधान का सामान्य भाजक नबी एलियाह की कहानी और संत मारकुस के सुसमाचार में विधवाओं की कहानी जिनका उस दौर की यहूदी प्रथा में कोई सहारा नहीं था। वे मात्र ईश्वर पर आश्रित थे। प्रभु येसु ने इसी भावना को नया अर्थ और परिभाषा दी है।

आइये आज इस यूख्रीस्तीय समारोह में भाग लेकर अपने जीवन में इसे अमल मे करने का दृढ़ निश्चय लें। एक बार अलेक्जेन्डर महान ने दरबार में कहा, “भिखारी के लिए तांबे का सिक्का उसकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त है, अपितु सोने का सिक्का अलेक्जेन्डर की उदारता का प्रतीक है”। अर्थात् हमें मनुष्य के रंग रूप को देखकर उसकी सहायता नहीं करनी चाहिए वरन् इसलिए उसकी सहायाता करनी चाहिए कि वह ईश्वर का प्रतिरूप है।

फादर आइजक एक्का


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