चक्र - स - चालीसे का पहला इतवार



पहला पाठ : विधि-विवरण 26:4-10

4) "याजक तुम्हारे हाथ से टोकरी ले कर उसे तुम्हारे प्रभु-ईश्वर की वेदी के सामने रख देगा।

5) तब तुम लोग अपने प्रभु-ईश्वर के सामने यह कहोगे, ’हमारे पूर्वज अरामी यायावर थे। जब वे शरण लेने के लिए मिस्र देश में बसने आये, तो थोड़े थे; किन्तु वे वहाँ एक शक्तिशाली बहुसंख्यक तथा महान् राष्ट्र बन गये।

6) मिस्र के लोग हमें सताने, हम पर अत्याचार करने और हम को कठोर बेगार में लगाने लगे।

7) तब हमने प्रभु की, अपने पूर्वजों के ईश्वर की, दुहाई दी। प्रभु ने हमारी दुर्गति, दुःख-तकलीफ़ तथा हम पर किया जाने वाला अत्याचार देख कर हमारी पुकार सुन ली।

8) आतंक फैला कर और चिन्ह तथा चमत्कार दिखा कर प्रभु ने अपने बाहुबल से हमें मिस्र से निकाल लिया।

9) उसने हमें यहाँ ला कर यह देश, जहाँ दूध अैर मधु की नदियाँ बहती हैं, दे दिया।

10) प्रभु! तूने मुझे जो भूमि दी है, उसकी फ़सल के प्रथम फल मैं तुझे चढ़ा रहा हूँ - यह कह कर तुम उन्हें अपने प्रभु-ईश्वर के सामने रखोगे और अपने प्रभु-ईश्वर को दण्डवत् करोगे।

दूसरा पाठ : रोमियों 10:8-13

8) किन्तु धर्मग्रन्थ क्या कहता है?- वचन तुम्हारे पास ही हैं, वह तुम्हारे मुख में और तुम्हारे हृदय में है। यह विश्वास का वह वचन है जिसका हम प्रचार करते हैं।

9) क्योंकि यदि आप लोग मुख से स्वीकार करते हैं कि ईसा प्रभु हैं और हृदय से विश्वास करते हैं कि ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया, तो आप को मुक्ति प्राप्त होगी।

10) हृदय से विश्वास करने पर मनुष्य धर्मी बनता है और मुख से स्वीकार करने पर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

11) धर्मग्रन्थ कहता है, "जो उस पर विश्वास करता है, उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा"।

12) इसलिए यहूदी और यूनानी और यूनानी में कोई भेद नहीं है- सबों का प्रभु एक ही है। वह उन सबों के प्रति उदार है, जो उसकी दुहाई देते है;

13) क्योंकि जो प्रभु के नाम की दुहाई देगा, उसे मुक्ति प्राप्त होगी।

सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 4:1-13

1) ईसा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर यर्दन के तट से लौटे। उस समय आत्मा उन्हें निर्जन प्रदेश ले चला।

2) वह चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। ईसा ने उन दिनों कुछ भी नहीं खाया और इसके बाद उन्हें भूख लगी।

3) तब शैतान ने उन से कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये"।

4) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "लिखा है-मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है"।

5) फिर शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर

6) बोला, "मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ।

7) यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।"

8) पर ईसा ने उसे उत्तर दिया, "लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो"।

9) तब शैतान ने उन्हें येरुसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए;

10) क्योंकि लिखा है-तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें

11) और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे"।

12) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "यह भी कहा है-अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो"।

13) इस तरह सब प्रकार की परीक्षा लेने के बाद शैतान, निश्चित समय पर लौटने के लिए, ईसा के पास से चला गया।

मनन-चिंतन

प्रवक्ता ग्रंथ अध्याय 2 वाक्य 1 में पवित्र वचन कहता है, “पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो परीक्षा का सामना करने को तैयार हो जाओ।” प्रभु येसु कहते है, “प्रलोभन अनिवार्य है।” (लूकस 17:1) इनसे यह अभिप्राय है कि परीक्षा या प्रलोभन जीवन के अनिवार्य अंग हैं। लेकिन हम किस तरह इन प्रलोभनों का सामना करते हैं हमारे विश्वास की गहराई को अभिव्यक्त करते हैं।

जीवन में हम निर्णय लेते हैं। हम अनेक बातों को ध्यान में रखकर उस बात का चयन करते हैं जो नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से उचित हो। यदि हम नैतिकता का ध्यान नहीं रखेंगे तो हमारे निर्णय तत्कालीन तौर पर शायद लाभदायक प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु लम्बे समय में वे हमें दुख देने लगेंगे। इसलिये जीवन में निर्णय लेते समय हमें ईश्वर की शिक्षा या आज्ञाओं का ध्यान रखना चाहिये। पवित्र बाइबिल में प्रथम प्रश्न शैतान ने हेवा से यह कहते हुये किया था, “क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना”? शैतान के इस प्रकार पूछने से हेवा भी संशय में पड गयी तथा उससे वार्तालाप करने लगी जिसकी परिणिति पाप में होती है। यदि हेवा ने शैतान के धूर्ततापूर्ण प्रश्नों पर ध्यान नहीं दिया होता तो शायद उसकी सोच पाप की ओर नहीं जाती। आज के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि शैतान येसु से भी प्रश्न करता है। किन्तु हेवा के विपरीत येसु शैतान की बातों के जंजाल में नहीं फंसते बल्कि उसे सटीक उत्तर देकर खाली हाथ लौटा देते हैं। शैतान येसु को तीन प्रलोभन देता है।

“यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये”। इस्राएलियों ने मरूभूमि में रोटी को लेकर ही ईश्वर की परीक्षा ली तथा निंदा की थी, “उन्होंने....इस प्रकार ईश्वर की परीक्षा ली। उन्होंने ईश्वर की निन्दा करते हुए यह कहा, “क्या ईश्वर मरूभूमि में हमारे लिए भोजन का प्रबन्ध कर सकता है?” (स्तोत्र 78:18-19) लेकिन येसु जो आत्मा से परिपूर्ण है अपने जीवन के लिए भौतिक रोटी पर निर्भर नहीं करते बल्कि पिता की इच्छा को अपना भोजन मानते है। ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही भेरा भोजन है”। (योहन 4:8) इसके अलावा भी येसु को रोटी देने वाले तो उनके पिता है। वे जब चाहे पिता उन्हें यह रोटी प्रदान कर सकते हैं। उन्हें शैतान के कहने या उसे दिखाने के लिए ऐसा करने की आवश्यकता नहीं थी। येसु शैतान को यह कहकर, “लिखा है - मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है।” निरूत्तर कर देते हैं।

इसके बाद “शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर बोला, ’मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ। यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।’ यहूदी केवल एक ही ईश्वर में विश्वास करते थे। ईश्वर की दस आज्ञाओं में प्रथम आज्ञा यही है कि, “मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर हूँ।... मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं होगा।” (निर्गमन 20:2-3) ईश्वर को छोड किसी अन्य देवता पर विश्वास करना, उसकी आराधना करना इस्राएलियों के लिए घनघोर पाप था। “....क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर, ऐसी बातें सहन नहीं करता.....मैं तीसरी और चौथी पीढ़ी तक उनकी सन्तति को उनके अपराधों का दण्ड देता हूँ।” (निर्गमन 20:5)

अतीत में जब भी इस्रालिएयों ने इस प्रथम आज्ञा को भंग किया तो ईश्वर ने उन्हें घोर दण्ड भी दिया, यहॉ तक कि उनके देश का विभाजन तथा उनसे उनका निष्काशन भी हो गया। येसु के लिए इस प्रलोभन का कोई मूल्य या महत्व नहीं था क्योंकि वे स्वयं पिलातुस को कहते हैं, “मेरा राज्य इस संसार का नहीं हैं।” (योहन 18:36) येसु के लिए पिता परमेश्वर को छोड और कोई ईश्वर नहीं था इसलिये वचन के माध्यम से वे शैतान को पुनः निरूत्तर कर देते हैं, “लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो।”

शैतान येसु को तीसरी बार उनकी शक्ति-परीक्षण करने का प्रलोभन देता है। “तब शैतान ने उन्हें येरुसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, ’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए क्योंकि लिखा है - तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे”। कोई भी व्यक्ति पहाड या इमारत से कूदने का इच्छुक नहीं हो सकता तो प्रभु येसु के लिए भी कूदना कोई प्रलोभन नहीं था। लेकिन परीक्षा कूदने की नहीं यह देखने की थी उनका अब्बा पिता जो उनके लिये पूर्व प्रंबध करता हैं उन्हें बचायेगा या नहीं।

कई बार हमारे जीवन में हम कुछ बातों या प्रार्थनाओं को सशर्त करते हैं जैसे यदि ऐसा हो जायेगा तो मैं जान जाऊँगा कि ईश्वर मेरे साथ है या ईश्वर सचमुच मेरी प्रार्थना सुनता है। इस प्रकार की सशर्त प्रार्थना या निवेदन जो ’यदि’, ’अगर’, ’ऐसा हो जाये तो’, ’किन्तु’ ’परन्तु’ आदि योजक-शब्दों पर निर्भर है ईश्वर की परीक्षा लेने के समान ही है।

जब होलोफेरनिस ने बेतूलिया नगर की घेराबंदी की थी तो लोगों में घबराहट एवं हताशा थी तब उज्जीया ने कहा, ’भाइयो! ढारस रखो। हम पाँच दिन और ठहरेंगे। इस बीच प्रभु, हमारा ईश्वर अवश्य ही हम पर दया करेगा, क्योंकि वह हमें अन्त तक नहीं छोड़ेगा। यदि इस अवधि में हमें सहायता प्राप्त नहीं होगी, तो मैं तुम्हारा कहना मानूँगा।” (यूदीत 7:30:31) इस प्रकार ईश्वर के लिए सशर्त समयबद्ध बातें ईश्वर की परीक्षा लेने के समान ही थी। यूदीत उन्हें लताडते हुये कहती है, “बेतूलियावासियों के नेताओ!... आपने प्रभु को साक्षी बना कर शपथ खायी है कि यदि प्रभु, हमारे ईश्वर ने निश्चित अवधि तक हमारी सहायता नहीं की, तो आप नगर हमारे शत्रुओं के हाथ दे देंगे। आप कौन होते हैं, जो आपने आज ईश्वर की परीक्षा ली और जो मनुष्यों के बीच ईश्वर का स्थान लेते हैं?.... यदि वह पाँच दिन के अन्दर हमें सहायता देना नहीं चाहता, तो वह जितने दिनों के अन्दर चाहता है, वह हमारी रक्षा करने में अथवा हमारे शत्रुओं द्वारा हमारा विनाश करवाने में समर्थ है। आप हमारे प्रभु-ईश्वर को निर्णय के लिए बाध्य करने का प्रयत्न मत कीजिए, क्योंकि ईश्वर को मनुष्य की तरह डराया या फुसलाया नहीं जा सकता।” (यूदीत 8:11-12,15-16) यूदीत की बातों से स्पष्ट है कि प्रलोभन की जो प्रक्रिया शैतान अपनाता है वह ईश्वर की परीक्षा लेने की थी इसलिये येसु भी उसे निरूत्तर करते हुये कहते हैं, “यह भी कहा है - अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो”।

-फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


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