चक्र - स - चालीसे का पांचवां इतवार



पहला पाठ :इसायाह का ग्रन्थ 43:16-21

16) प्रभु ने समुद्र में मार्ग बनाया और उमड़ती हुई लहरों में पथ तैयार किया था।

17) उसने रथ, घोड़े और एक विशाल सेना बुलायी। वे सब-के-सब ढेर हो गये और फिर कभी नहीं उठ पाये। वे बत्ती की तरह जल कर बुझ गये। वही प्रभु कहता है:

18) “पिछली बातें भुला दो, पुरानी बातें जाने दो।

19) देखो, मैं एक नया कार्य करने जा रहा हूँ। वह प्रारम्भ हो चुका है। क्या तुम उसे नहीं देखते? मैं मरुभूमि में मार्ग बनाऊँगा और उजाड़ प्रदेश में पथ तैयार करूँगा।

20) जंगली जानवर, गीदड़ और शुतुरमुर्ग मुझे धन्य कहेंगे, क्योंकि मैं अपनी प्रजा की प्यास बुझाने के लिए मरुभूमि में जल का प्रबन्ध करूँगा और उजाड़ प्रदेश में नदियाँ बहाऊँगा।

21) मैंने यह प्रजा अपने लिए बनायी है। यह मेरा स्तुतिगान करेगी।

दूसरा पाठ : फ़िलिप्पियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 3:8-14

8) इतना ही नहीं, मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हूँ और इस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को हानि ही मानता हूँ। उन्हीं के लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया है और उसे कूड़ा समझता हूँ,

9) जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ और उनके साथ पूर्ण रूप से एक हो जाऊँ। मुझे अपनी धार्मिकता का नहीं, जो संहिता के पालन से मिलती है, बल्कि उस धार्मिकता का भरोसा है, जो मसीह में विश्वास करने से मिलती है, जो ईश्वर से आती है और विश्वास पर आधारित है।

10) मैं यह चाहता हूँ कि मसीह को जान लूँ, उनके पुनरूत्थान के सामर्थ्य का अनुभव करूँ और मृत्यु में उनके सदृश बन कर उनके दुःखभोग का सहभागी बन जाऊँ,

11) जिससे मैं किसी तरह मृतकों के पुनरूत्थान तक पहुँच सकूँ।

12) मैं यह नहीं जानता कि मैं अब तक यह सब कर चुका हूँ या मुझे पूर्णता प्राप्त हो गयी है! किन्तु मैं आगे बढ़ रहा हूँ ताकि वह लक्ष्य मेरी पकड़ में आये, जिसके लिए ईसा मसीह ने मुझे अपने अधिकार में ले लिया।

13) भाइयो! मैं यह नहीं समझता कि वह लक्ष्य अब तक मेरी पकड़ में आया है। मैं इतना ही कहता हूँ कि पीछे की बातें भुला कर और आगे की बातों पर दृष्टि लगा कर

14) मैं बड़ी उत्सुकता से अपने लक्ष्य की ओर दौड़ रहा हूँ, ताकि मैं स्वर्ग में वह पुरस्कार प्राप्त कर सकूँ, जिसके लिए ईश्वर ने हमें ईसा मसीह में बुलाया है।

सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 8:1-11

1) और ईसा जैतून पहाड़ गये।

2) वे बड़े सबेरे फिर मंदिर आये। सारी जनता उनके पास इकट्ठी हो गयी थी और वे बैठ कर लोगों को शिक्षा दे रहे थे।

3) उस समय शास्त्री और फरीसी व्यभिचार में पकड़ी गयी एक स्त्री को ले आये और उसे बीच में खड़ा कर,

4) उन्होंने ईसा से कहा, "गुरुवर! यह स्त्री व्यभिचार करते हुए पकड़ी गयी है।

5) संहिता में मूसा ने हमें ऐसी स्त्रियों को पत्थरों से मार डालने का आदेश दिया है। आप इसके विषय में क्या कहते हैं?"

6) उन्होंने ईसा की और परीक्षा लेते हुए यह कहा, जिससे उन्हें उन पर दोष लगाने का काई आधार मिले। ईसा झुक कर उँगली से भूमि पर लिखते रहे।

7) जब वे उन से उत्तर देने के लिए आग्रह करते रहे, तो ईसा ने सिर उठा कर उन से कहा, "तुम में जो निष्पाप हो, वह इसे सब से पहले पत्थर मारे"।

8) और वे फिर झुक कर भूमि पर लिखने लगे।

9) यह सुन कर बड़ों से ले कर छोटों तक, सब-के-सब , एक-एक कर खिसक ईसा अकेले रह गये और वह स्त्री सामने खड़ी रही।

10) तब ईसा ने सिर उठा कर उस से कहा, "नारी! वे लोग कहाँ हैं? क्या एक ने भी तुम्हें दण्ड नहीं दिया?"

11) उसने उत्तर दिया, "महोदय! एक ने भी नहीं"। इस पर ईसा ने उस से कहा, "मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब से फिर पाप नहीं करना।"

मनन-चिंतन

जब हम अपने ईश्वर की ओर देखते हैं, तब हमें एहसास होता है कि ईश्वर महान और सर्वगुणसंपन्न हैं। साथ-साथ हमें यह भी ज्ञात होता है कि हम कितने छोटे और अयोग्य हैं। हम सब पापी हैं। फिर भी मौके मिलने पर हम अपने पापों तथा कमियों को छिपा कर दूसरों के पापों तथा कमियों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत कर उन पर आरोप लगाने लगते हैं, उनकी आलोचना करने लगते हैं। यह हमारे आध्यात्मिक रीति से परिपक्व न होने का प्रमाण है। इसलिए मत्ती 7:3 में प्रभु येसु सवाल उठाते हैं, “जब तुम्हें अपनी ही आँख की धरन का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो?”

इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण हमें आज के सुसमाचार में मिलता है। सदूकी और फरीसी अपने पापों को छिपा कर व्यभिचार में पकडी गयी एक स्त्री के पापों को बढ़ा-चढ़ा कर बता कर उस पर आरोप लगाते हैं और मूसा की संहिता के अनुसार उसे दण्ड देने की बात करते हैं। येसु का ध्यान कानून पर नहीं, बल्कि मुक्ति पर है। येसु उस स्त्री पर अनुकम्पा तथा दया दिखाते हैं। साथ-साथ वे उसे पापों का कुमार्ग छोड़ कर मुक्ति का पावन मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। येसु का रवैया उस महिला के अन्दर पश्चात्ताप उत्पन्न कर सकता है। प्रभु ईश्वर यह नहीं चाहते हैं कि किसी का सर्वनाश हो।

योहन 3:16-17 में पवित्र वचन कहता है – “ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता है, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे। ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार में इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।” एज़ेकिएल 18:30-32 में प्रभु कहते हैं, “मैं हर एक का उसके कर्मों के अनुसार न्याय करूँगा। तुम मेरे पास लौट कर अपने सब पापों को त्याग दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे अपराधों के कारण तुम्हारा विनाश हो जाये। अपने पुराने पापों का भार फेंक दो। एक नया हृदय और एक नया मनोभाव धारण करो। प्रभु-ईश्वर यह कहता है-इस्राएलियों! तुम क्यों मरना चाहते हो? मैं किसी भी मनुष्य की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता। इसलिए तुम मेरे पास लौट कर जीते रहो।”

प्रभु येसु ने साऊल नामक युवक को उसकी दमिश्क यात्रा में अपना कुमार्ग छोड़ कर सन्मार्ग अपनाने का अवसर दिया। आगे चल कर साऊल संत पौलुस बनता है और स्वर्गराज्य के लिए महान कार्य करता है। आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस कहते हैं, “मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हूँ और इस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को हानि ही मानता हूँ। उन्हीं के लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया है और उसे कूड़ा समझता हूँ, जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ और उनके साथ पूर्ण रूप से एक हो जाऊँ।” (फिलिप्पियों 3:8-9)

प्रभु येसु किसी पर भी दोष नहीं लगाते हैं – न व्यभिचारिणी पर और न हीं उस पर आरोप लगाने वाले सदूकियों तथा फरीसियों पर। वे सब के अन्तकरण को जगाते हैं ताकि वे स्वयं ईश्वर के समक्ष अपनी अयोग्यता को महसूस करें और अपने पापों तथा गुनाहों को कबूल कर अपने जीवन में परिवर्तन लायें। हमारे नज़रिये किसी भी प्रकार के क्यों न हों, हमारी प्रवृत्तियाँ किसी भी तरह की क्यों न हों, आज प्रभु हमारे अन्तकरण को जगाना चाहते हैं। साथ-साथ वे हमें आह्वान करते हैं कि हम फिर पाप न करें।

प्रभु येसु के व्यवहार से हमें यह प्रेरणा भी मिलती है कि सुसमाचार सुनने और सुनाने वालों को किसी को भी हतोत्साहित या निराश नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित कर सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। प्रवक्ता 28:12 कहता है, “चिनगारी पर फूँक मारों और वह भड़केगी, उस पर थूक दो और वह बुझेगी: दोनों तुम्हारे मुँह से निकलते हैं”। आज हमें तय करना चाहिए कि किस मनोभाव का चयन करेंगे – प्रभु येसु के मनोभाव का या सदूकियों तथा फरीसियों के मनोभाव का?

हमें दूसरों पर दोष लगाने की अपनी प्रवणता पर काबू पाना चाहिए। प्रभु कहते हैं, “दोष नहीं लगाओ, जिससे तुम पर भी दोष न लगाया जाये” (मत्ती 7:1)। आदम ने पाप का आरोप हेवा पर लगाया और हेवा ने साँप पर (देखिए उत्पत्ति 3:12-13)। सोने का बछड़ा बनाने का अरोप हारून ने लोगों पर लगाया (देखिए निर्गमन 32:21-24)। राजा साऊल ने अवैध बलिदान चढ़ाने का कारण नबी समुएल के देर करना बताया (देखिए 1समुएल 13:11-12)। इस प्रकार हम अपनी कमियों और पापों के लिए भी दूसरों पर दोष लगाते हैं। राजा दाऊद की महानता इस में थी कि उन्होंने अपने पापों को स्वीकार किया और पश्चात्ताप किया। यह संत पेत्रुस और संत पौलुस की भी विशेषता थी। आईए हम भी विनम्रता से अपने पापों को स्वीकारें और पश्चात्ताप करें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


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