चक्र - स - पास्का का सातवाँ इतवार



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 7:55-60

55) स्तेफ़नुस ने, पवित्र आत्मा से पूर्ण हो कर, स्वर्ग की ओर दृष्टि की और ईश्वर की महिमा को तथा ईश्वर के दाहिने विराजमान ईसा को देखा।

56) वह बोल उठा, "मैं स्वर्ग को खुला और ईश्वर के दाहिने विराजमान मानव पुत्र को देख रहा हूँ"।

57) इस पर उन्होंने ऊँचे स्वर से चिल्ला कर अपने कान बन्द कर लिये। वे सब मिल कर उस पर टूट पड़े

58) और उसे शहर के बाहर निकाल कर उस पर पत्थर मारते रहे। गवाहों ने अपने कपड़े साऊल नामक नवयुवक के पैरों पर रख दिये।

59) जब लोग स्तेफ़नुस पर पत्थर मार रहे थे, तो उसने यह प्रार्थना की, "प्रभु ईसा! मेरी आत्मा को ग्रहण कर!"

60) तब वह घुटने टेक कर ऊँचे स्वर से बोला, "प्रभु! यह पाप इन पर मत लगा!" और यह कह कर उसने प्राण त्याग दिये।

दूसरा पाठ : प्रकाशना ग्रन्थ 22:12-14,16-17,20

12) ''देखो, मैं शीघ्र ही आऊँगा। मेरा पुरस्कार मेरे पास है और मैं प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का प्रतिफल दूँगा।

13) मैं आल्फा और ओमेगा हूँ, प्रथम और अन्तिम, आदि और अन्त।

14) धन्य हैं, वे जो अपने वस्त्र धोते हैं। वे जीवन-वृक्ष के अधिकारी होंगे और फाटकों से हो कर नगर में प्रवेश करेंगे।

15) कुत्ते, ओझे, व्यभिचारी, हत्यारे, मूर्तिपूजक, असत्यप्रेमी और मिथ्यावादी बाहर ही रहेंगे।''

16) ''मैं-ईसा -ने कलीसियाओं के विषय में ये बातें प्रकट करने के लिए तुम्हारे पास अपना दूत भेजा है। मैं दाऊद का वंशज तथा सन्तान हूँ, प्रभात का उज्ज्वल तारा हूँ।''

17) आत्मा तथा वधू, दोनों कहते हैं- 'आइए'। जो सुनता है, वह उत्तर दे -'आइए'। जो प्यासा है, वह आये। जो चाहता है, वह मुफ्त में संजीवन जल ग्रहण करे।

18) जो लोग इस पुस्तक की भविष्यवाणी की बातें सुनते हैं, मैं उन सबों को यह चेतावनी देता हूँ- ''यदि कोई इन में कुछ जोड़ेगा, तो ईश्वर इस पुस्तक में लिखी हुई विपत्तियां उस पर ढायेगा।

19) और यदि कोई भविष्यवाणी की इस पुस्तक की बातों से कुछ निकालेगा, तो ईश्वर इस पुस्तक में वर्णित जीवन-वृक्ष और पवित्र नगर से उसका भाग निकाल देगा''।

20) इन बातों का साक्ष्य देने वाला यह कहता है, ''मैं अवश्य शीघ्र ही आऊँगा''। आमेन! प्रभु ईसा! आइए!

सुसमाचार : सन्त योहन 17:20-26

20) मैं न केवल उनके लिये विनती करता हूँ, बल्कि उनके लिये भी जो, उनकी शिक्षा सुनकर मुझ में विश्वास करेंगे।

21) सब-के-सब एक हो जायें। पिता! जिस तरह तू मुझ में है और मैं तुझ में, उसी तरह वे भी हम में एक हो जायें, जिससे संसार यह विश्वास करे कि तूने मुझे भेजा।

22) तूने मुझे जो महिमा प्रदान की, वह मैंने उन्हें दे दी है, जिससे वे हमारी ही तरह एक हो जायें-

23) मैं उनमें रहूँ और तू मुझ में, जिससे वे पूर्ण रूप से एक हो जायें और संसार यह जान ले कि तूने मुझे भेजा और जिस प्रकार तूने मुझे प्यार किया, उसी प्रकार उन्हें भी प्यार किया।

24) पिता! मैं चाहता हूँ कि तूने जिन्हें मुझे सौंपा है, वे जहाँ मैं हूँ, मेरे साथ रहें जिससे वे मेरी महिमा देख सकें, जिसे तूने मुझे प्रदान किया है; क्योंकि तूने संसार की सृष्टि से पहले मुझे प्यार किया।

25) न्यायी पिता! संसार ने तुझे नहीं जाना। परन्तु मैंने तुझे जाना है और वे जान गये कि तूने मुझे भेजा।

26) मैंने उन पर तेरा नाम प्रकट किया है और प्रकट करता रहूँगा, जिससे तूने जो प्रेम मुझे दिया, वह प्रेम उन में बना रहे और मैं भी उन में बना रहूँ।


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