चक्र - स - येसु के पवित्रतम शरीर और रक्त का महोत्सव (Corpus Christi)



पहला पाठ : उत्पत्ति 14:18-20

18) सालेम का राजा मेलख़ीसेदेक रोटी और अंगूरी ले आया। वह सर्वोच्च का याजक था।

19) उसने उसे यह कहते हुए आशीर्वाद दिया, ''स्वर्ग और पृथ्वी का सृष्टिकर्ता सर्वोच्च ईश्वर अब्राम को आशीर्वाद प्रदान करे।

20) धन्य है सर्वोच्च ईश्वर, जिसने तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे अधीन कर दिया।'' अब्राम ने उसे सब चीजों का दशमांश दिया।

दूसरा पाठ : 1 कुरिन्थियों 11:23-26

23) मैंने प्रभु से सुना और आप लोगों को भी यही बताया कि जिस रात प्रभु ईसा पकड़वाये गये, उन्होंने रोटी ले कर

24) धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर कहा-यह मेरा शरीर है, यह तुम्हारे लिए है। यह मेरी स्मृति में किया करो।

25) इसी प्रकार, ब्यारी के बाद उन्होंने प्याला ले कर कहा- यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। जब-जब तुम उस में से पियो, तो यह मेरी स्मृति में किया करो।

26) इस प्रकार जब-जब आप लोग यह रोटी खाते और वह प्याला पीते हैं, तो प्रभु के आने तक उनकी मृत्यु की घोषणा करते हैं।

सुसमाचार : लूकस 9:11-17

11) किन्तु लोगों को इसका पता चल गया और वे भी उनके पीछे हो लिये। ईसा ने उनका स्वागत किया, ईश्वर के राज्य के विषय में उन को शिक्षा दी और बीमारों को अच्छा किया।

12) अब दिन ढलने लगा था। बारहों ने उनके पास आ कर कहा, "लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे आसपास के गाँवों और बस्तियों में जा कर रहने और खाने का प्रबन्ध कर सकें। यहाँ तो हम लोग निर्जन स्थान में हैं।"

13) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "तुम लोग ही उन्हें खाना दो"। उन्होंने कहा, "हमारे पास तो केवल पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं। क्या आप चाहते हैं कि हम स्वयं जा कर उन सब के लिए खाना ख़रीदें?"

14) वहाँ लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे। ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "पचास-पचास कर उन्हें बैठा दो"।

15) उन्होंने ऐसा ही किया और सब को बैठा दिया।

16) तब ईसा ने वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले लीं, स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर उन पर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उन्हें तोड़-तोड़ कर वे अपने शिष्यों को देते गये ताकि वे उन्हें लोगों में बाँट दें।

17) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।

मनन-चिंतन

आज हम प्रभु येसु ख्रीस्त के अति पवित्रम शरीर एवं रक्त का पर्व मना रहे हैं। कुछ दिन पहले प्रख्यात पेंटेकोस्टल प्रवचक बेन्नी हिंन का एक विडियो देखने को मिला जिसमें वे पवित्र यूखरिस्त के बारे मंा बतलाते हुए कहते हैं कि एक अध्ययन में ये सामने आया है कि कैथोलिक चर्च में पवित्र यूखरिस्त के दौरान ज्यादा लागों को चंगाई मिलती है। क्योंकि वे पवित्र यूखरिस्त में विश्वास करते हैं। अपने चर्च का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि उनके लिए तो यूखरिस्त में प्रभु येसु की केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति होती है। परन्तु प्रभु येसु ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा कि - ‘‘ले लो और खाओ। यह मेरा शरीर है” (मत्ती 26:26)। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह रोटी मेरे शरीर का प्रतीक है। पर उन्होंने कहा यह मेरा शरीर है। और संत योहन 6:53 में भी प्रभु येसु ने स्पष्ट कहा है - ‘‘यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा”।

प्रभु येसु के इस संसार में आने का उद्देश्य ही यह था कि उनके द्वारा हमें अनन्त जीवन प्राप्त हो। संत योहन 3:16 में लिखा है - ‘‘ईश्वर ने संसार को इतना प्रेम किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो कोई उस में विश्वास करता है, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे”।

अनन्त जीवन का खजाना, अनन्त जीवन का उपहार पवित्र यूखरिस्त में छिपा है। इसलिए मैं मेरी कैथलिक पैदाईश पर गर्व करता हूँ। और अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ। मैं ही क्यों दुनियाभर के सब कैथोलिक विश्वासी विशेषरूप से अनुग्रहित हैं क्योंकि वे जीवित प्रभु येसु का शरीर एवं रक्त ग्रहण करते हैं। द्वितीय वैटिकन महासभा सिखलाती है कि पवित्र युखरिस्त कलीसिया के जीवन का स्रोत और उसकी परकाष्ठा है। (Lumen Gentium, 11) इसी से कलीसिया को जीवन मिलता है और इसी में कलीसिया का अंतिम लक्ष्य निहित है। अन्य संस्कारों में तो हमें ईश्वर की कृपा मिलती है परन्तु पवित्र यूखारिस्त में तो हमें कृपाओं को प्रदान करने वाला ईश्वर स्वयं प्राप्त होता है। क्योंकि यूखरिस्त तो स्वयं प्रभु येसु ही हैं, और बिना उनके कलीसिया की कल्पना करना संभव नहीं।

पर एक बडा सवाल यह उठता है कि इस प्रभु येसु को ग्रहण करने वालों ने उन्हें कितनी गहराई से समझा है? क्या आपने कभी कल्पना की कि यदि आप भी प्रभु येसु के समय उनके साथ होते और आपको उन्हें स्पर्श करने का अवसर मिलता! कितना सुखद और कितना अनुग्रहकारी क्षण होता वह, है न? अगर छूना नहीं मिलता तो कम से कम उनकी एक झलक भी देखने को मिल जाती तो भी हम तो अपने को बडा सौभाग्यशाली मानते, है न? माँ मरियम की महानता पर प्रवचन देते समय मैं कई बार इस बात को रखता हूँ कि वे इसलिए महान मानी जाती है क्योंकि उन्होंने ईश्वर के पुत्र को नौ महिनों तक अपने गर्भ में रखा। उन्होंने सृष्टिकर्त्ता को नौ महिनों तक अपनी कोख में रखा। जरा विचार कीजिए कि यदि सिर्फ नौ महिनों तक येसु की देह को अपने गर्भ में रखने से यदि माता मरिय सब नारियों में धन्य बन गई तो हर रविवार या फिर हर रोज उसी येसु को अपने दिल में ग्रहण करने वाले हम कितने महान हो सकते हैं। क्या हम इस बात को दिल से मानते हैं कि हमारे दिल में रोज आने वाला येसु वही येसु है जो मरियम के गर्भ में था? क्या यह वही येसु है जो जोसफ और मरियम के साथ नाज़रेथ में करीब तीस साल रहा? क्या यह वही येसु है जिसने अंधों को आँखें और मुर्दों को जान दी?

हम में से अधिकतर लोग पवित्र यूखरिस्त की गहराई तक नहीं पहुँच पाते। हम पवित्र यूखरिस्त को बहुत ही हल्के में लेते हैं। यदि पवित्र यूखरिस्त की आराधना किसी रिट्रीट के दौरान हो रही है तो हम उन्हें बहुत ही आदर सम्मान देते हैं। यदि साधारण आराधना है तो आदर व भक्ति की तीव्रता थोडी कम हो जाती है। और यदि पवित्र यूखरिस्त सिर्फ पवित्र संदूक में है तो सिर्फ सिर झूका कर हम आगे बढ़ जाते हैं। या कई बार हम इसकी भी ज़रूरत नहीं समझते। और जब वही प्रभु येसु हमारे अपने हृदय में आते हैं तो उनका आदर और भी कम हो जाता है। रिट्रीट या आराधना के समय हमारी श्रद्धा और भक्ति का पात्र बनने वाले प्रभु को क्या हो जाता है जब वह हमारे दिल में आते हैं। हाँ जरूर प्रभु येसु अपने आपको बहुत ही विनम्र और दीन हीन बना लेते हैं जब वे एक रोटी में समाहित होकर हमारे पास आते हैं। पर उनका वैभव, उनकी महिमा, और उनका ईश्वरत्व कम नहीं होता।

तब दूसरा सवाल यह खडा होता है कि यदि प्रभु येसु अपनी उसी महिमा में पवित्र यूखरिस्त में हमारे दिल में आते हैं तो फिर हम जो उन्हें ग्रहण करते हैं उस प्रभु की उपस्थिति का प्रभाव हमारे जीवन में क्यों नहीं पडता? पवित्र परम प्रसाद ग्रहण करने के पहले और ग्रहण करने के बाद मुझ में क्या परिवर्तन आता है? परमप्रसाद ग्रहण करने के कितने समय तक मैं इस अनुभुति में रहता हूँ कि प्रभु मेरे दिल में है।

एक और बडा सवाल हमेशा मेरे मन में कौंधता रहता है कि यदि जीवित प्रभु येसु मेरे हृदय में हैं तो फिर भी क्यों मेरे जीवन में संकट, दुःख, बीमारी, निराशा और परेशानियाँ है? अथवा जब मैं कठिनाईयों के दौर से गुजरता हूँ तब यूखरिस्तीय प्रभु मेरे अंदर क्या कर रहे होते हैं? क्या वे सो रहे होते हैं? जी हाँ, काफी हद तक यह कहा जा सकता है कि प्रभु सो जाते होंगे। वास्तव में तो प्रभु कभी सोते नहीं। स्तोत्र 121:4 में प्रभु का वचन कहता है -‘‘इस्राएल का रक्षक न तो सोता है और न झपकी लेता है”। पर मत्ती 8:23-27 में हम पाते हैं कि प्रभु येसु अपने शिष्यों के साथ नाव में सवार होकर कहीं जा रहे थे। और वे एक आँधी में फँस जाते हैं। उस बवंडर के बीच पवित्र सुसमाचार हमें बतलाता है कि प्रभु येसु सो रहे होते हैं। क्या प्रभु येसु वास्तव में सो रहे थे? क्या वे वास्तव में इतनी गहरी नींद में थे कि वहाँ पर क्या हो रहा है उन्हें पता भी नहीं चला? मैं नहीं सोचता वे वास्तव में गहरी नींद में थे। दरअसल शिष्यों के पास उनसे बात करने का समय नहीं था। शिष्य अपनी ही धुन में थे। इसलिए येसु विश्राम करने चले जाते हैं। शायद हम भी यूखरीस्तीय प्रभु को इसी प्रकार सोने भेज देते हैं। एक बार पवित्र परम प्रसाद ग्रहण किया और फिर भूल गये प्रभु को। हम व्यर्थ ही जीवन में परेशान रहते हैं, जबकि हमारा जिंदा खुदावन्द हरदम हमारे साथ रहता है। शिष्यों की तरह व्यर्थ ही जिंदगी के छोटे-मोटे तूफानों से घबराकर अपने हिसाब से अपने जीवन की नाव को बचाने के प्रयास करते रहते हैं। जब सब कुछ हमारी क्षमता के परे होने लगता है तब हमें उस प्रभु की याद आती है। हमें हमारे प्रभु को सुलाना नहीं उन्हें हमारी जिंदगी में व्यस्त रखना है। यदि आपका कोई अजीज मित्र आपसे मिलने आपके घर इस उम्मीद से आये कि मिलकर ढेर सारी बातें करेंगे, अपना सुख-दुख साझा करेंगे व साथ में कुछ समय बितायेंगे। ज़रा सोचिए यदि आप उसे समय नहीं देते, आप अपने मोबाइल, टीवी या फिर कम्प्यूटर में व्यस्थ हैं तो आपके उस दोस्त को कैसा लगेगा? प्रभु येसु आपसे रोज बातें करना चाहते हैं; रोज आपका हाल पूछना चाहते हैं; आपकी रोज की खैर-खबर रखना चाहते हैं; आपके दुखों को हल्का करना चाहते हैं; आपकी जिंदगी के बोझ को अपने ऊपर लेना चाहते हैं; वे कहते हैं - ‘‘थके माँदे और बोझ से दबे हुए लोगों तुम सबके सब मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूँगा”। (संत मत्ती 11,28)

वे आपके जीवन को लेकर चिंतित है; उनके मन में आपके लिए एक योजना है। ‘‘तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ मैं जानता हूँ - तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ”। (यिरमियाह 29:11)। वे चाहते हैं कि आपको अपनी उस सुखद योजना के बारे में बताए, आपसे उस पर चर्चा करें।

क्या हम हमारे दिल में रहने वाले प्रभु येसु से बातचीत करते हैं? उनकी बातों को सुनते हैं? अपने जीवन में उनकी रजा, उनकी मरजी क्या है, क्या हम उनसे यह पूछते हैं? दिन में कितनी बार हम उनको याद करते हैं? वो तो हमारे सबसे करीब हैं; हमारे दिल में अंदर हैं, हमेशा इस इंतजार में कि हम कब उनसे बात करने का समय निकालेंगे। वो अपने प्यार भरे लब्जों से दिन में कितनी ही बार हमें पुकारते हैं। पर हम कितनी ही बार उनकी वाणी को अनसुना कर देते हैं। हर घडी जब प्रलोभन व बुराई की शक्तियाँ हमें अपनी ओर खींचती हैं तो वह प्रभु येसु कितनी बार हमें उनसे बचने के लिए आगाह करते हैं; पर हम उनके प्रयासों को नज़रअंदाज कर देते हैं। हम उन्हें हमारे दिल के एक कोने में सोने को मज़बूर कर देते हैं।

आईये हम पवित्र परमप्रसाद के प्रति अपने नज़रिये को बदलें और उसमें उपस्थित प्रभु की वास्तविक उपस्थिति का आभास स्वयं को हर पल करायें। विशेष करके परमप्रसाद ग्रहण करने के तुरन्त बाद के मूल्यवान पलों में कुछ क्षण शाँत रहकर प्रभु येसु से संवाद करने, और उनसे बातचीत करने में लीन हो जायें। जितनी घनिष्टता से हम उनसे जुडेंगे उतना अधिक हम उनका दिव्य अनुभव प्राप्त करेंगे। प्रभु येसु को हम अपना सबसे करीबी मित्र बना लें। उनकी उपस्थिति की अनुभुति हर पल हमारे मन में रहे। यदि ऐसा हुआ तो फिर न तो कोई प्रलोभन, न कोई शैतान की ताकत, न कोई बुराई, न कोई विपत्ति, न कोई बीमारी और न कोई निराशा हमें विचलित कर सकती है क्योंकि येसु ने इन सब पर विजय प्राप्त की है। (योहन 16:33)।

-फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


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