चक्र - स - वर्ष का छठवां सामान्य रविवार



पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 17:5-8

5) प्रभु यह कहता है: “धिक्कार उस मनुय को, जो मनुय पर भरोसा रखता है, जो निरे मनुय का सहारा लेता है और जिसका हृदय प्रभु से विमुख हो जाता है!

6) वह मरुभूमि के पौधे के सदृश है, जो कभी अच्छे दिन नहीं देखता। वह मरुभूमि के उत्तप्त स्थानों में- नुनखरी और निर्जन धरती पर रहता है।

7) धन्य है वह मनुय, जो प्रभु पर भरोसा रखता है, जो प्रभु का सहारा लेता है।

8) वह जलस्रोत के किनारे लगाये हुए वृक्ष के सदृश हैं, जिसकी जड़ें पानी के पास फैली हुई हैं। वह कड़ी धूप से नहीं डरता- उसके पत्ते हरे-भरे बने रहते हैं। सूखे के समय उसे कोई चिंता नहीं होती क्योंकि उस समय भी वह फलता हैं।“

दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 15:12.16-20

12) यदि हमारी शिक्षा यह है कि मसीह मृतकों में से जी उठे, तो आप लोगों में कुछ यह कैसे कहते हैं कि मृतकों का पुनरूत्थान नहीं होता?

16) कारण, यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे।

17) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो आप लोगों का विश्वास व्यर्थ है और आप अब तक अपने पापों में फंसे हैं।

18) इतना ही नहीं, जो लोग मसीह में विश्वास करते हुए मरे हैं, उनका भी विनाश हुआ है।

19) यदि मसीह पर हमारा भरोसा इस जीवन तक ही सीमित है, तो हम सब मनुष्यों में सब से अधिक दयनीय हैं।

20) किन्तु मसीह सचमुच मृतकों में से जी उठे। जो लोग मृत्यु में सो गये हैं, उन में वह सब से पहले जी उठे।

सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 6:17.20-26

17) ईसा उनके साथ उतर कर एक मैदान में खड़े हो गये। वहाँ उनके बहुत-से शिष्य थे और समस्त यहूदिया तथा येरुसालेम का और समुद्र के किनारे तीरूस तथा सिदोन का एक विशाल जनसमूह भी था, जो उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से मुक्त होने के लिए आया था।

20) ईसा ने अपने शिष्यों की ओर देख कर कहा, ’’धन्य हो तुम, जो दरिद्र हो! स्वर्गराज्य तुम लोगों का है।

21) धन्य हो तुम, जो अभी भूखे हो! तुम तृप्त किये जाओगे। धन्य हो तुम, जो अभी रोते हो! तुम हँसोगे।

22) धन्य हो तुम, जब मानव पुत्र के कारण लोग तुम से बैर करेंगे, तुम्हारा बहिष्कार और अपमान करेंगे और तुम्हारा नाम घृणित समझ कर निकाल देंगे!

23) उस दिन उल्लसित हो और आनन्द मनाओ, क्योंकि स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। उनके पूर्वज नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।

24) ’’धिक्कार तुम्हें, जो धनी हो! तुम अपना सुख-चैन पा चुके हो।

25) धिक्कार तुम्हें, जो अभी तृप्त हो! तुम भूखे रहोगे। धिक्कार तुम्हें, जो अभी हँसते हो! तुम शोक मनाओगे और रोओगे।

26) धिक्कार तुम्हें, जब सब लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं! उनके पूर्वज झूठे नबियों के साथ ऐसा ही किया करते थे।

मनन-चिंतन

धन्य है वह मनुष्य जो ईश्वर पर भरोसा रखता है वह उस पेड़ के सदृश्य है जो सदाबहार और bumper फल पैदा करता है। (येरिमियाह 17:5-8) येसु ख्रीस्त मृतकों में से जी उठे हैं और वे पहला फल हैं। (1 कुरिन्थियों 15:12,16-20)

आज सामान्य काल का छटवाँ रविवार है और मेरा प्रवचन आज के सुसमाचार पर आधारित करना चाहूँगा। आज के सुसमाचार, लूकस 6:17, 20-26, का विषय है - येसु मसीह का पर्वत प्रवचन। इसका उल्लेख संत मत्ती के द्वारा भी किया गया है। अंग्रेजी में इसे beatitudes कहते हैं। यह शब्द लैटिन के beatis शब्द से उद्गम होता है जिसका अर्थ है happy, Blest, fortunate यानि खुश, सुखद्, आनंदित, सौभाग्यशाली, मुदित, संतोषमय इत्यादि। सामान्य रचना के तौर पर इस प्रकार की शैली का प्रयोग पुराने साहित्य में अलंकार के रूप में किया जाता था, और बाईबल की किताबों में भी इसका प्रयोग किया गया है। वर्तमान की या आधुनिक साहित्य में भी यह अलंकार उपयोग में लिया जाता है। परपंरागत वह व्यक्ति धन्य या सुखद माना जाता था, जिससे ईश्वर प्रसन्न हो। संत लूकस के लेख में चार सकारात्मक आर्शीवादपूर्ण और चार धिक्कारपूर्ण पंक्तियाँ मिलती हैं। सांसारिक दृष्टि में सौभाग्यशाली वह व्यक्ति माना जाता है जो आर्थिक दृष्टि में सम्पन्न है, शारीरिक रूप में स्वस्थ है और परिवार में कुशल हैं तथा उसकी ईश्वरभय रखने वाली पत्नी और संतान हो और जिनकी लम्बी उम्र हो।

दुनिया की दृष्टि में उपरोक्त सब कुछ होने के बावजूद भी ईश्वर की दृष्टि में एक व्यक्ति नगण्य तथा धिक्कार के योग्य हो सकता है। येसु अपने शिष्यों को प्रत्यक्ष रूप से संबोधित करते हैं। येसु के दर्शनों में आम आदमी भी सम्मिलित है। जो नज़दीकी शिष्यों को बुलाता है और वे भी शिष्यों की गिनती में आते हैं, और यह भी प्रतीत होता है कि संत लूकस की कलीसिया या समुदाय में अधिकांश लोग आर्थिक रूप से तंगी की हालात में थे और येसु का अनुसरण करने की वजह से उन्हें अत्याचार भी सहना पड़ता था। वे अक्सर तिरस्क्र्त किये जाते थे, घृणित और तुच्छ नजरों से देखे जाते थे। वे दुनिया की दृष्टि में हँसी, अपमान, उपहास के पात्र थे। लेकिन येसु की दृष्टि में वे धन्य, खुशहाल, सौभाग्यशाली थे क्योंकि ईश्वर उनके पक्ष और उनके साथ थे। उनकी खुशी, संतुष्टि, पर्याप्तता का कारण और स्रोत ईश्वर थे। व्यंग और विरोधाभाष भाषा का प्रयोग करते हुए येसु उन्हें धन्य कहते हैं, इसलिए नहीं कि वे गरीब हैं, भूखे हैं, शोकित हैं, घृणित हैं लेकिन इसलिए कि वे स्वर्गराज के उत्तराधिकारी हैं, वे तृप्त किये जाएगें तथा आनन्द के हकद़ार होगें। ईश्वर उन्हें धिक्कारते हैं जो अपनी खुशी, आस्था, चिंता तथा दुनियाई मूल्यों पर केन्द्रित जीवन बिताते हैं। शायद कुछ सीख है। क्या ईश्वर हमारे आनन्द, सौभाग्यशाली होने का कारण है?

क्या ईश्वर हमें और हमारे जीवन को देख के हमें धन्य कहेगें या धिक्कारेगें?

क्या हमारी खुशी क्षणभंगुर है या ईश्वर जैसी चिरस्थायी है?

ईश्वर का राज्य और ईश्वर का मूल्य सांसारिक मूल्यों के विपरीत हैं।

सांसारिक मूल्य ईश्वरीय मूल्यों और ईश्वर के राज्य का विरोध करते हैं।

ईश्वर का राज्य हमें ऊपर की बातों की प्रतिज्ञा करता है।

ख्रीस्त के राज्य की स्थापना करना एक चुनौती है।

ख्रीस्तीय जीवन जीना अर्थात् ईश्वरीय राज्य के मूल्यों के आधारित जीना है।

ईश्वर की दृष्टि में धन्य होना है, मानवीय दृष्टि में नहीं।

येसु की शिक्षा, आधुनिक मानव और समाज के लिए चुनौती है क्योंकि हर एक ख्रीस्तीय एक नबी है; वह कोई पेशा नहीं।

ईश्वर के राज्य का भागी होना अर्थात् फैसला लेना कि ईश्वर के पक्ष में या ईश्वर के विरोध में।

-फादर पयस लकड़ा एस.वी.डी


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