चक्र - स - वर्ष का नौवाँ इतवार



पहला पाठ : राजाओं का पहला ग्रन्थ 8:41-43

41) "यदि कोई परदेशी, जो तेरी प्रजा का सदस्य नहीं है, तेरे नाम के कारण दूर देश से आये-

42) क्योंकि लोग तेरे महान् नाम, तेर शक्तिशाली हाथ तथा समर्थ बाहुबल की चरचा करेंगे- यदि वह इस मन्दिर मे ंविनती करने आये,

43) तो तू अपने निवास स्थान स्वर्ग में उसकी प्रार्थना सुन और जो कुछ परदेशी माँगे, उसे दे दे। इस प्रकार पृ्थ्वी के सभी राष्ट्र, तेरी प्रजा इस्राएल की तरह , तेरा नाम जान जायेंगे, तुझ पर श्रद्धा रखेंगे और यह समझ जायेंगे कि यह मन्दिर, जिसे मैंने बनवाया है, तेरे नाम को समर्पित है।

दूसरा पाठ : गलातियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 1:1-2, 6-10

1) यह पत्र पौलुस की ओर से है, जो न तो मनुष्यों की ओर से और न किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित हुआ है, बल्कि ईसा मसीह द्वारा और पिता-परमेश्वर द्वारा नियुक्त हुआ है, जिसने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया।

2) मैं और जितने भाई मेरे साथ हैं, गलातियों की कलीसिया का अभिवादन करते हैं।

3) हमारा पिता ईश्वर और हमारे प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!

4) मसीह ने हमारे पापों के कारण अपने को अर्पित किया, जिससे वह हमारे पिता ईश्वर की इच्छानुसार इस पापमय संसार से हमारा उद्धार करें।

5) उसी को युगयुगों तक महिमा! आमेन!

6) मुझे आश्चर्य होता है कि जिसने आप लोगों को मसीह के अनुग्रह द्वारा बुलाया, उसे आप इतना शीघ्र त्याग कर एक दूसरे सुसमाचार के अनुयायी बन गये हैं।

7) दूसरा तो है ही नहीं, किन्तु कुछ लोग आप में अशान्ति उत्पन्न करते और मसीह का सुसमाचार विकृत करना चाहते हैं।

8) लेकिन जो सुसमाचार मैंने आप को सुनाया, यदि कोई- चाहे वह मैं स्वयं या कोई स्वर्गदूत ही क्यों न हो- उस से भिन्न सुसमाचार सुनाये, तो वह अभिशप्त हो!

9) मैं जो कह चुका हूँ, वही दुहराता हूँ- जो सुसमाचार आप को मिला है, यदि कोई उस से भिन्न सुसमाचार सुनाये, तो वह अभिशप्त हो!

10) मैं अब किसका कृपापात्र बनने की कोशिश कर रहा हूँ - मनुष्यों का अथवा ईश्वर का? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूँ? यदि मैं अब तक मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता, तो मैं मसीह का सेवक नहीं होता।

सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 7:1-10

1) जनता को अपने ये उपदेश सुनाने के बाद ईसा कफ़रनाहूम आये।

2) वहाँ एक शतपति का अत्यन्त प्रिय नौकर किसी रोग से मर रहा था।

3) शतपति ने ईसा की चर्चा सुनी थी; इसलिए उसने यहूदियों के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों को ईसा के पास यह निवेदन करने के लिए भेजा कि आप आ कर मेरे नौकर को बचायें।

4) वे ईसा के पास आ कर आग्रह के साथ यह कहते हुए उन से विनय करते रहे, "वह शतपति इस योग्य है कि आप उसके लिए ऐसा करें।

5) वह हमारे राष्ट्र से प्रेम करता है और उसी ने हमारे लिए सभागृह बनवाया।"

6) ईसा उनके साथ चले। वे उसके घर के निकट पहुँचे ही थे कि शतपति ने मित्रों द्वारा ईसा के पास यह कहला भेजा, "प्रभु! आप कष्ट न करें, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें।

7) इसलिए मैने अपने को इस योग्य नहीं समझा कि आपके पास आऊँ। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।

8) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ - ’जाओ’, तो वह जाता है और दूसरे से- ’आओ’, तो वह आता है और अपने नौकर से-’यह करो’, तो वह यह करता है।"

9) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने पीछे आते हुए लोगों की ओर मुड़ कर कहा, "मै तुम लोगों से कहता हूँ - इस्राएल में भी मैंने इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया"।

10) और भेजे हुए लोगों ने घर लौट कर रोगी नौकर को भला-चंगा पाया।


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