चक्र - स - वर्ष का तेरहवाँ इतवार



पहला पाठ : 1राजाओं 19:16,19-21

16) और निमशी के पुत्र येहू को इस्राएल के राजा के रूप में अभिशेक करो। इसके बाद आबेल-महोला के निवासी, शफ़ाट के पुत्र एलीशा का अभिशेक करो, जिससे वह तुम्हारे स्थान में नबी हो।

19) एलियाह वहाँ से चला गया और उसने शाफ़ाट के पुत्र एलीशा के पास पहुँच कर उसे हल जोतते हुए पाया। उसने बारह जोड़ी बैल लगा रखे थे और वह स्वयं बारहवीं जोड़ी चला रहा था। एलियाह ने उसकी बग़ल से गुज़र कर उस पर अपनी चादर डाल दी।

20) एलीशा ने अपने बैल छोड़ कर एलियाह के पीछे दौड़ते हुए कहा, "मुझे पहले अपने माता-पिता का चुम्बन करने दीजिए। तब मैं आपके साथ चलूँगा।"

21) एलियाह ने उत्तर दिया, “जाओ, लौटो। तुम जानते ही हो कि मैंने तुम्होरे साथ क्या किया है।“

दूसरा पाठ : गलातियों 5:1, 13-18

1) मसीह ने स्वतन्त्र बने रहने के लिए ही हमें स्वतन्त्र बनाया, इसलिए आप लोग दृढ़ रहें और फिर दासता के जुए में नहीं जुतें।

13) भाइयो! आप जानते हैं कि आप लोग स्वतन्त्र होने के लिए बुलाये गये हैं। आप सावधान रहें, नहीं तो यह स्वतन्त्रता भोग-विलास का कारण बन जायेगी।

14) आप लोग प्रेम से एक दूसरे की सेवा करें, क्योंकि एक ही आज्ञा में समस्त संहिता निहित है, और वह यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो।

15) यदि आप लोग एक दूसरे को काटने और फाड़ डालने की चेष्टा करेंगे, तो सावधान रहें। कहीं ऐसा न हो कि आप एक दूसरे का सर्वनाश करें।

16) मैं यह कहना चाहता हूँ- आप लोग आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलेंगे, तो शरीर की वासनाओं को तृप्त नहीं करेंगे।

17) शरीर तो आत्मा शरीर के विरुद्ध। ये दोनों एक दूसरे के विररोधी हैं। इसलिए आप जो चाहते हैं, वही नहीं कर पाते हैं।

18) यदि आप आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलते है, तो संहिता के अधीन नहीं हैं।

सुसमाचार : लूकस 9:51-62

51) अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरूसालेम जाने का निश्चय किया

52) और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया।

53) लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरूसालेम जा रहे थे।

54) उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, "प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे"।

55) पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा

56) और वे दूसरी बस्ती चले गये।

57) ईसा अपने शिष्यों के साथ यात्रा कर रहे थे कि रास्ते में ही किसी ने उन से कहा, "आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा"।

58) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "लोमडि़यों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है"।

59) उन्होंने किसी दूसरे से कहा, "मेरे पीछे चले आओ"। परन्तु उसने उत्तर दिया, "प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफ़नाने के लिए जाने दीजिए"।

60) ईसा ने उस से कहा, "मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो। तुम जा कर ईश्वर के राज्य का प्रचार करो।"

61) फिर कोई दूसरा बोला, "प्रभु! मैं आपका अनुसरण करूँगा, परन्तु मुझे अपने घर वालों से विदा लेने दीजिए"।

62) ईसा ने उस से कहा, "हल की मूठ पकड़ने के बाद जो मुड़ कर पीछे देखता है, वह ईश्वर के राज्य के योग्य नहीं"।

मनन-चिंतन

आज के पाठों में हम बुलाहट के विषय में सुनते हैं। पहले पाठ में प्रभु ईश्वर एलीशा को नबी एलियाह के उत्तराधिकारी के रूप में बुलाते हैं। बुलाहट के चिन्ह स्वरूप नबी एलियाह उसके ऊपर अपनी चादर डाल देते हैं। उस समय एलीशा अपने खेती के काम में व्यस्त था। वह इस दुनिया की कमाई में मस्त था। पर जैसे ही उसे सांसारिक कमाई से भी बडकर आत्मिक कमाई का बुलावा मिलता है वह खत्म हो जाने वाली कमाई को छोडकर आत्मिक धन कमाने एलियाह के पीछे चल देता है जो कि कभी खत्म नहीं होगा। वह अपनी खेती, अपने बैल सब कुछ का त्याग कर देता है। अपने सांसारिक चीजों के त्याग के प्रतीक रूप में उसने अपने हल में जुते बैल को मारा और उसी हल की लकडी से उसे पकाया तब मजदूरों को भोजन कराकर सब कुछ का त्याग करते हुए वह ईश्वर भक्त का अनुयायी बन जाता है।

प्रभु की राहों पर चलने के लिए बहुत कुछ छोडना और बहुत कुछ का त्याग करना पडता है। सुसमाचार में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘लोमडियों की अपनी माँदे है और आकाश के पक्षियों के अपने घौंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी जगह नहीं है”। कोई व्यक्ति जो येसु का अनुयायी तो बनना चाहता था पर जिसे अपने परिवार व रिश्ते नातों से बहुत अधिक लगाव था प्रभु उससे कहते हैं – “मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो तुम जाकर ईश्वर के राज्य का प्रचार करो”। क्या इसका मतलब यह हुआ कि ईश्वर के राज्य में सांसारिक रिश्तों नातों का कोई औचित्य नहीं अथवा कोई महत्व नहीं? हरगिज़ नहीं।

संत मत्ती 10:37 में प्रभु येसु कहते हैं - ‘‘जो अपने पिता या अपनी माता को मुझसे अधिक प्यार करता है वह मेरे योग्य नहीं”। यहाँ पर बात साँसारिक रिश्तों नातों की नहीं परन्तु बात उचित चुनाव की है। ईश्वर और संसार के बीच मैं सबसे पहले किसको चुनता हूँ। ईश्वर और संसार के बीच चयन में मेरी प्राथमिकता किस के लिए है। संसार के लिए या फिर ईश्वर के लिए? वचन कहता है जो मुझसे अधिक दुनिया को और दुनिया के रिश्तों को महत्व देता है वह उसके लायक नहीं है।

प्यारे विश्वासियों हमारा सारा जीवन ईश्वर और संसार के बीच के इसी चयन में बीतता है। हमें जिंदगी के हर पडाव पर, जीवन के हर कदम पर यह चुनाव करना होता है। और इस चुनाव अथवा चयन करने में ईश्वर हमारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं करता। संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में हमें कहते हैं - ‘‘मसीह ने हमें स्वतंत्र बने रहने के लिए बुलाया है”। परन्तु वे आगे हमें आगाह करते हुए कहते हैं कि हमारी यह स्वतंत्रता हमारे लिए भोग विलास का कारण न बन जाये। याने ईश्वर द्वारा प्रदत इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर हम अपने आप को सांसारिक भोग विलास के लिए न सौंप दें। संत पौलुस हमसे कहते हैं - ‘‘आप लोग आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलेंगे तो शरीर की वासनाओं को तृप्त नहीं करेंगे”। इस दुनिया के दूषण से मुक्त रहने के लिए आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलना अति आवश्यक है।

तो आईये आज हम ईश्वर से आशिष व कृपा मॉंगें कि हम उनकी कृपा से आत्मा से प्रेरित जीवन जीयें और येसु मसीह के नक्शे कदम पर चलने के लिए हर पग पर ईश्वर को सांसारिक चीजों व सुखों के ऊपर महत्व दें। और हमेशा उन्हें अपने जीवन में प्राथमिकता देते हुए अपने आत्मा द्वारा हमारा संचालन करने दें। आमेन।

-फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


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