चक्र - स - वर्ष का अठारहवाँ इतवार



पहला पाठ : उपदेशक ग्रन्थ 1:2;2:21-23

2) उपदेशक कहता है, "व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।"

2:21) मनुष्य समझदारी, कौशल और सफलता से काम करने के बाद जो कुछ एकत्र कर लेता है, उसे वह सब ऐसे व्यक्ति के लिए छोड़ देना पड़ता है, जिसने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया है। यह भी व्यर्थ और बड़े दुर्भाग्य की बात है;

22) क्योंकि मनुष्य को कड़ी धूप में कठिन परिश्रम करने के बदले क्या मिलता है ?

23) उसके सभी दिन सचमुच दुःखमय हैं और उसका सारा कार्यकलाप कष्टदायक। रात को उसके मन को शान्ति नहीं मिलती। यह भी व्यर्थ है।

दूसरा पाठ : कलोसियों 3:1-5,9-11

1) यदि आप लोग मसीह के साथ ही जी उठे हैं- जो ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं- तो ऊपर की चीजें खोजते रहें।

2) आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीजों की चिन्ता किया करें।

3) आप तो मर चुके हैं, आपका जीवन मसीह के साथ ईश्वर में छिपा हुआ है।

4) मसीह ही आपका जीवन हैं। जब मसीह प्रकट होंगे, तब आप भी उनके साथ महिमान्वित हो कर प्रकट हो जायेंगे।

5) इसलिए आप लोग अपने शरीर में इन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, कामुकता, विषयवासना और लोभ का, जो मूर्तिपूजा के सदृश है।

9) कभी एक दूसरे से झूठ नहीं बोलें। आप लोगों ने अपना पुराना स्वभाव और उसके कर्मों को उतार कर

10) एक नया स्वभाव धारण किया है। वह स्वभाव अपने सृष्टिकर्ता का प्रतिरूप बन कर नवीन होता रहता और सत्य के ज्ञान की ओर आगे बढ़ता है, जहाँ पहुँच कर कोई भेद नहीं रहता,

11) जहाँ न यूनानी है या यहूदी, न ख़तना है या ख़तने का अभाव, न बर्बर है, न स्कूती, न दास और न स्वतन्त्र। वहाँ केवल मसीह हैं, जो सब कुछ और सब में हैं।

सुसमाचार : लूकस 12:13-21

13) भीड़ में से किसी ने ईसा से कहा, "गुरूवर! मेरे भाई से कहिए कि वह मेरे लिए पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा कर दें"।

14) उन्होंने उसे उत्तर दिया, "भाई! किसने मुझे तुम्हारा पंच या बँटवारा करने वाला नियुक्त किया?"

15) तब ईसा ने लोगों से कहा, "सावधान रहो और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो, उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती"।

16) फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया, "किसी धनवान् की ज़मीन में बहुत फ़सल हुई थी।

17) वह अपने मन में इस प्रकार विचार करता रहा, ’मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ।

18) तब उसने कहा, ’मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा

19) और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।’

20) परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ’मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह़ोगा?’

21) यही दशा उसकी होती है जो अपने लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।"

मनन-चिंतन

आज के पाठों पर अगर हम गहराई से मनन-चिंतन करें तो ये बहुतों के ह्रदय में खटकने वाले पाठ हैं। विशेष रूप। से आज के पहले पाठ और सुसमाचार का सन्देश हमें हिलाकर रख देता है। मनुष्य अपने आप को पूर्ण बनाने के लिये शुरू से ही बहुत मेहनत करता है। जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके माता-पिता चाहते हैं कि उसकी परवरिश सर्वश्रेष्ठ तरीके से हो। अच्छे से अच्छे और महँगे से महँगे स्कूल में उसका दाखिला करायेंगे। उसके लिए बचपन में ही यह फ़ैसला हो जाता है कि बड़ा होकर उनका बेटा या उनकी बेटी क्या बनेगी। स्कूल के कार्य-कलाप के अलावा और भी तरह-तरह के क्लासें जैसे डांस, कराटे, संगीत, कला इत्यादि का भी कोर्स करवाते हैं। इतना ही नहीं रेगुलर कोचिंग भी भेजते हैं। और आजकल कोचिंग वाले इतवार के दिन भी क्लास लगाते हैं, और उतना ही नहीं इतवार के दिन ही विशेष टेस्ट होता है। माता-पिता भी चाहते हैं कि उनका बच्चा जितना हो सके आगे बढ़े, जितना हो सके उतना ज्ञान ग्रहण करे, इसके चाहे उन्हें कितना भी कष्ट उठाना पड़े और कितने भी त्याग करने पड़ें। आखिर ज़माना ही कम्पटीशन का है। और इसलिए वे अक्सर भूल जाते हैं कि इतवार का दिन प्रभु का दिन है, प्रभु के लिए है।

आगे चलकर वही बच्चा अपने माता-पिता को हर चीज में पीछे छोड़ देता है, ज्ञान में, आत्मविश्वास में, सम्मान में, आर्थिक दशा में। और माता-पिता को अपने बच्चों से ‘पिछड़ने’ पर गर्व होता है। उनको लगता है कि अगर उनके बच्चे ने कुछ हासिल कर लिया तो उनकी साधना सफल हुई। लेकिन ऐसे में कोई “उपेदशक ग्रन्थ” के शब्दों में उनसे कहे ““व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है”।” (उपदेशक 1:2) या फिर सुसमाचार के शब्दों में उनसे कहे “”मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझसे ले लिये जायेंगे, और तूने जो इकठ्ठा किया है, वह अब किसका होगा?”” (लूकस 12:20)। उन जैसे माता-पिता के लिए प्रभु के ये वचन ज़रूर खटकेंगे, ह्रदय में ज़रूर चुभेंगे। आखिर कौन अपने जीवनभर की तपस्या और त्याग को व्यर्थ जाने देगा?

मनुष्य का स्वभाव यही है कि वह इस जीवन को जितना हो सके महान बनाना चाहता है। अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाना चाहता है, और मनुष्य के इस स्वभाव को समझने के लिए बहुत से विचारकों ने अपने विचार रखे और अध्ययन किया है और इसे समझाने की कोशिश की है, लेकिन कोई भी, मनुष्य के इस स्वभाव को यथोचित रूप से नहीं समझा पाया है। पवित्र बाइबिल हमें समझाती है कि ईश्वर ने हमें अपने प्रतिरूप में बनाया है, (उत्पत्ति 1:27), और पाप के कारण हमने ईश्वर की उस छवि को धूमिल कर लिया है। तो हमारे जीवन का जो मुख्य उद्देश्य होना चाहिए वो यह कि हम उन्हें ईश्वर के प्रतिरूप में बनायें। वास्तव में हमारे हर प्रयास, हर साधना, हर तपस्या का उद्देश्य यही होना चाहिए। लेकिन जब हमारा उद्देश्य इसे छोड़कर संसारिकता में आगे बढ़ना हो जाता है, तो हम भटक जाते हैं, और ऐसी स्तिथि में अगर यह कहा जाये कि हम जो भी कर रहे हैं, वह व्यर्थ है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारा वास्तविक जीवन सांसारिक जीवन नहीं बल्कि स्वर्गीय जीवन है। सांसारिक जीवन अस्थाई है। (देखें मत्ती 6:19)।

बप्तिस्मा के द्वारा हमारा नया जन्म हुआ है और इसलिए हम संसार से अलग हैं (देखें योहन 15:19)। प्रभु येसु ने हमें संसार में से चुन लिया है। और अगर हमें अपने जीवन को सार्थक बनाना है तो स्वर्गीय चीजों की खोज में लगे रहना है, पृथ्वी पर की नहीं। (कलोसियों 3:2)। कोई भी व्यक्ति अगर अपना जीवन ईश्वर के लिए, दूसरों की सेवा के लिए जीता है उसका जीवन कभी व्यर्थ नहीं जाता, अनेकों संतों का जीवन इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें सार्थक जीवन जीने में मदद करे और आशीष प्रदान करे। आमेन.

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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