चक्र - स - वर्ष का उन्नीसवाँ इतवार



पहला पाठ : प्रज्ञा ग्रन्थ 18:6-9

6) उस रात के विषय में हमारे पूर्वजों को पहले से इसलिए बताया गया था कि वे यह जानकर हिम्मत बाँधे कि हमने किस प्रकार की शपथों पर विश्वास किया है।

7) तेरी प्रजा धर्मियों की रक्षा तथा अपने शत्रुओं के विनाश की प्रतीक्षा करती थी।

8) तूने हमारे शत्रुओं को दण्ड दिया और हमें अपने पास बुला कर गौरवान्वित किया है।

9) धर्मियों की भक्त सन्तान से छिप कर बलि चढ़ायी और पूर्वजों के भजन गाने के बाद उसने एकमत हो कर यह ईश्वरीय विधान स्वीकार किया कि सन्त-जन साथ रह कर भलाई और बुराई, दोनों समान रूप से भोगेंगे।

दूसरा पाठ : इब्रानियों 11:1-2,8-19

1) विश्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आशा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में दृढ़ धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते।

2) विश्वास के कारण हमारे पूर्वज ईश्वर के कृपापात्र बने।

8) विश्वास के कारण इब्राहीम ने ईश्वर का बुलावा स्वीकार किया और यह न जानते हुए भी कि वह कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने उस देश के लिए प्र्रस्थान किया, जिसका वह उत्तराधिकारी बनने वाले थे।

9) विश्वास के कारण वह परदेशी की तरह प्रतिज्ञात देश में बस गये और वहाँ इसहाक तथा याकूब के साथ, जो एक ही प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी थे, तम्बुओं में रहने लगे।

10) इब्राहीम ने ऐसा किया, क्योंकि वह उस पक्की नींव वाले नगर की प्रतीक्षा में थे, जिसका वास्तुकार तथा निर्माता ईश्वर है।

11) विश्वास के कारण उमर ढ़ल जाने पर भी सारा गर्भवती हो सकीं; क्योंकि उनका विचार यह था जिसने प्रतिज्ञा की है, वह सच्चा है

12) और इसलिए एक मरणासन्न व्यक्ति से वह सन्तति उत्पन्न हुई, जो आकाश के तारों की तरह असंख्य है और सागर-तट के बालू के कणों की तरह अगणित।

13) प्रतिज्ञा का फल पाये बिना वे सब विश्वास करते हुए मर गये। उन्होंने उसे दूर से देखा और उसका स्वागत किया। वे अपने को पृथ्वी पर परदेशी तथा प्रवासी मानते थे।

14) जो इस तरह की बातें कहते हैं, वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे स्वदेश की खोज में लगे हुए हैं।

15) वे उस देश की बात नहीं सोचते थे, जहाँ से वे चले गए थे; क्योंकि वे वहाँ लौट सकते थे।

16) वे तो एक उत्तम स्वदेश अर्थात् स्वर्ग की खोज में लगे हुए थे; इसलिए ईश्वर को उन लोगों का ईश्वर कहलाने में लज्जा नहीं होती। उसने तो उनके लिए एक नगर का निर्माण किया है।

17) जब ईश्वर इब्राहीम की परीक्षा ले रहा था, तब विश्वास के कारण उन्होंने इसहास को अर्पित किया। वह अपने एकलौते पुत्र को बलि चढ़ाने तैयार हो गये थे,

18) यद्यपि उन से यह प्रतिज्ञा की गयी थी, कि इसहाक से तेरा वंश चलेगा।

19) इब्राहीम का विचार यह था कि ईश्वर मृतकों को भी जिला सकता है, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को फिर प्राप्त किया। यह भविष्य के लिए प्रतीक था।

सुसमाचार : लूकस 12:32-48

32) छोटे झुण्ड! डरो मत, क्योंकि तुम्हारे पिता ने तुम्हें राज्य देने की कृपा की है।

33) "अपनी सम्पत्ति बेच दो और दान कर दो। अपने लिए ऐसी थैलियाँ तैयार करो, जो कभी छीजती नहीं। स्वर्ग में एक अक्षय पूँजी जमा करो। वहाँ न तो चोर पहुँचता है और न कीड़े खाते हैं;

34) क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वहीं तुम्हारा हृदय भी होगा।

35) "तुम्हारी कमर कसी रहे और तुम्हारे दीपक जलते रहें।

36) तुम उन लोगों के सदृश बन जाओ, जो अपने स्वामी की राह देखते रहते हैं कि वह बारात से कब लौटेगा, ताकि जब स्वामी आ कर द्वार खटखटाये, तो वे तुरन्त ही उसके लिए द्वार खोल दें।

37) धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी आने पर जागता हुआ पायेगा! मैं तुम से यह कहता हूँः वह अपनी कमर कसेगा, उन्हें भोजन के लिए बैठायेगा और एक-एक को खाना परोसेगा।

38) और धन्य हैं वे सेवक, जिन्हें स्वामी रात के दूसरे या तीसरे पहर आने पर उसी प्रकार जागता हुआ पायेगा!

39) यह अच्छी तरह समझ लो-यदि घर के स्वामी को मालूम होता कि चोर किस घड़ी आयेगा, तो वह अपने घर में सेंध लगने नहीं देता।

40) तुम भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी तुम उसके आने की नहीं सोचते, उसी घड़ी मानव पुत्र आयेगा।"

41) पेत्रुस ने उन से कहा, "प्रभु! क्या आप यह दृष्टान्त हमारे लिए कहते हैं या सबों के लिए?"

42) प्रभु ने कहा, "कौन ऐसा ईमानदार और बुद्धिमान् कारिन्दा है, जिसे उसका स्वामी अपने नौकर-चाकरों पर नियुक्त करेगा ताकि वह समय पर उन्हें रसद बाँटा करे?

43) धन्य हैं वह सेवक, जिसका स्वामी आने पर उसे ऐसा करता हुआ पायेगा!

44) मैं तुम से यह कहता हूँ, वह उसे अपनी सारी सम्पत्ति पर नियुक्त करेगा।

45) परन्तु यदि वह सेवक अपने मन में कहे, ’मेरा स्वामी आने में देर करता है’ और वह दासदासियों को पीटने, खाने-पीने और नशेबाजी करने लगे,

46) तो उस सेवक का स्वामी ऐसे दिन आयेगा, जब वह उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा होगा और ऐसी घड़ी जिसे वह जान नहीं पायेगा। तब स्वामी उसे कोड़े लगवायेगा और विश्वासघातियों का दण्ड देगा।

47) "अपने स्वामी की इच्छा जान कर भी जिस सेवक ने कुछ तैयार नहीं किया और न उसकी इच्छा के अनुसार काम किया, वह बहुत मार खायेगा।

48) जिसने अनजाने ही मार खाने का काम किया, वह थोड़ी मार खायेगा। जिसे बहुत दिया गया है, उस से बहुत माँगा जायेगा और जिसे बहुत सौंपा गया है, उस से अधिक माँगा जायेगा।

मनन-चिंतन

नबी इसायाह के ग्रन्थ 44:24 द्वारा प्रभु हमसे कहते हैं, “जिसने तुम्हारा उद्धार किया और माता के गर्भ में गढ़ा है, वही प्रभु यह कहता है: मैं प्रभु हूँ। मैंने सब कुछ बनाया है...” हम चाहे ईश्वर में विश्वास करें या न करें लेकिन सच्चाई यही है कि प्रभु ईश्वर ने ही सब कुछ की श्रृष्टि की है। उसी के अधिकार में सब कुछ है और सब कुछ उसी का दिया हुआ है, हमारा जीवन, हमारा परिवार, विभिन्न वरदान आदि, सब कुछ प्रभु का ही दिया हुआ है। इसलिए वही हमारा प्रभु और स्वामी है और हम उसके सेवक मात्र हैं। हमारा अपना कुछ भी नहीं है, और इसलिए हमें हर पल, हर क्षण उसी के लिए जीना है, उसी की इच्छा पूरी करनी है। इस बात को बहुत कम लोग गम्भीरता से लेते हैं, और यही कारण है कि ऐसे लोग प्रभु से दूर भटक जाते हैं।

आज का सुसमाचार हमें इसी ओर इंगित करता है कि हम ईश्वर के सेवक मात्र हैं और जो कार्य हमें प्रभु ने सौंपा है उसे हमें पूर्ण ईमानदारी से पूरा करना है, और जो सेवक अपने कार्य में सजग और ईमानदार पाया जायेगा, प्रभु उसे उसका उचित फल देगा। आखिर एक आम इन्सान जो अपनी नौकरी करता है, अपने परिवार की देख-भाल करता है, हर इतवार गिरजा जाता है आदि, वह व्यक्ति कैसे ईश्वर का सेवक हुआ और उसे प्रभु ने क्या जिम्मेदारी सौंपी है, और प्रभु के आने पर किस सौंपी हुई जिम्मेदारी का मूल्यांकन किया जायेगा? ईश्वर ने हमें इस दुनिया में ज़रुर कुछ न कुछ योजना पूरी करने के लिए भेजा है। ईश्वर ने हमें भेजा है ताकि हम उसका साक्ष्य दें, उसकी महानता का बखान करें। इसी के लिए उसने हमें यह जीवन प्रदान किया है।

मान लीजिये एक साधारण सा व्यक्ति एक साधारण जीवन व्यतीत करता है। उस व्यक्ति का अपना परिवार है। वह परिवार उसे किसने उसे सौंपा है? उस व्यक्ति के बाल-बच्चे हैं, वे बच्चे किसका वरदान हैं? वह व्यक्ति कोई नौकरी करके अपनी रोजी-रोटी कमाता है, वह नौकरी किसकी कृपा से मिली है? अगर विश्वासी ह्रदय से इन सवालों का जवाब दें तो यह सब ईश्वर की देन है, वास्तव में हर सवाल का जवाब ही ईश्वर में है। जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास नहीं करता है, उसे अपने जीवन का उद्देश्य कभी भी समझ में नहीं आयेगा। जब हमारा प्रभु आयेगा तो इन सभी चीजों के आधार पर ही हमारा मूल्यांकन होगा।

अगर एक व्यक्ति को एक परिवार को सँभालने की जिम्मेदारी ईश्वर ने दी है, लेकिन वह ईमानदारी के साथ अपने परिवार के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाता है तो क्या उसे वफादार सेवक कहा जा सकता है? एक माता-पिता अपने बच्चों के प्रति जो जिम्मेदारी है, जैसे उनका उचित रीति से लालन-पालन करना, उचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना, धर्म की शिक्षाओं को उनके ह्रदय में बोना आदि, जब इन जिम्मेदारियों को ईमानदारी से नहीं निभाएंगे तो क्या वे भले और ईमानदार सेवक कहला सकते हैं? एक पति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं है, या पत्नी अपना पति धर्म पूरी ईमानदारी से नहीं निभाती है तो क्या ऐसे पति-पत्नि भले और ईमानदार सेवक कहलाये जा सकते हैं? अगर बच्चे अपने माता-पिता का आदर नहीं करते, उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते, अपने उज्जवल भविष्य के बारे में बड़ों की बातें नहीं मानते, तो क्या वे प्रभु के ईमानदार सेवक बन जायेंगे। एक नौकरी वाला व्यक्ति अपना काम ठीक से नहीं करता, उचित परिश्रम नहीं करता, काम करने के लिए घूष लेता है, भ्रष्टाचार करता है, तो क्या इस दुनिया का स्वामी उसे सज़ा नहीं देगा?

हम जीवन में चाहे जो कुछ भी हों, माता-पिता हों, बच्चे हों, विद्यार्थी हों, डाक्टर, इंजिनियर, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, नर्स, ड्राइवर, चपरासी कुछ भी हों, उसी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाना ही हमारा कर्तव्य है, वही हमारे जीवन का उद्देश्य है, उसी के प्रति पूर्ण रूप से वफादार बने रहने में ही हमारे जीवन की सार्थकता है। अगर हम ऐसा करेंगे तो हमारा स्वामी चाहे जिस घड़ी आयेगा, हमें तैयार और सजग पायेगा। ईश्वर हमें भले, सजग, ईमानदार और वफादार सेवक बनने में मदद करे। आमेन।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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