चक्र - स - वर्ष का तेईसवाँ इतवार



पहला पाठ : प्रज्ञा ग्रन्थ 9:13-18

13) "ईश्वर के मन की थाह कौन ले सकता है? कौन ईश्वर की इच्छा जान सकता है?

14) मनुष्यों के विचार अनिश्चित हैं और हमारे उद्देश्यों अस्थिर है;

15) क्योंकि नश्वर शरीर आत्मा के लिए भारस्वरूप है और मिट्टी की यह काया मन की विचार शक्ति घटा देती है।

16) हम पृथ्वी पर की चीजें कठिनाई से जान पाते हैं। जो हमारे सामने है, उसे हम मुष्किल से समझ पाते हैं? तो आकाश में क्या है, इसका पता कौन लगा सकता है?

17) यदि तूने प्रज्ञा का वरदान नहीं दिया होता और अपने पवित्र आत्मा को नहीं भेजा होता, तो तेरी इच्छा कौन जान पाता?

18) इस तरह पृथ्वी पर रहने वालों के पथ सीधे कर दिये गये हैं। जो बात तुझे प्रिय है, उसकी शिक्षा मनुष्यों को मिल गयी और प्रज्ञा के द्वारा उनका उद्धार हुआ है।"

दूसरा पाठ : फिलेमोन 9-10,12-17

9) फिर भी मैं भ्रातृप्रेम के नाम पर आप से प्रार्थना करना अधिक उचित समझता हूँ। मैं पौलुस, जो बूढ़ा हो चला और आजकल ईसा मसीह के कारण कै़दी भी हूँ,

10) ओनेसिमुस के लिए आप से प्रार्थना कर रहा हूँ। वह मेरा पुत्र है, क्योंकि मैं कैद में उसका आध्यात्मिक पिता बन गया हूँ।

12) मैं अपने कलेजे के इस टुकड़े को आपके पास वापस भेज रहा हूँ।

13) मैं जो सुसमाचार के कारण कैदी हूँ, इसे यहाँ अपने पास रखना चाहता था, जिससे यह आपके बदले मेरी सेवा करे।

14) किन्तु आपकी सहमति के बिना मैंने कुछ नहीं करना चाहा, जिससे आप यह उपकार लाचारी से नहीं, बल्कि स्वेच्छा से करें।

15) ओनेसिमुस शायद इसलिए कुछ समय तक आप से ले लिया गया था कि वह आप को सदा के लिए प्राप्त हो,

16) अब दास के रूप में नहीं, बल्कि दास से कहीं, बढ़ कर-अतिप्रिय भाई के रूप में। यह मुझे अत्यन्त प्रिय है और आप को कहीं अधिक -मनुष्य के नाते भी और प्रभु के शिष्य के नाते भी।

17) इसलिए यदि आप मुझे धर्म-भाई समझते हैं, तो इसे उसी तरह अपनायें, जिस तरह मुझे।

सुसमाचार : सन्त लूकस 14:25-33

25) ईसा के साथ-साथ एक विशाल जन-समूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा,

26) "यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर नहीं करता, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।

27) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।

28) "तुम में ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर ख़र्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी उसके पास है?

29) कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कहते हुए उसकी हँसी उड़ाने लगें,

30 ’इस मनुष्य ने निर्माण-कार्य प्रारम्भ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका’।

31) "अथवा कौन ऐसा राजा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि जो बीस हज़ार की फ़ौज के साथ उस पर चढ़ा आ रहा है, क्या वह दस हज़ार की फौज़ से उसका सामना कर सकता है?

32) यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है, वह राजदूतों को भेज कर सन्धि के लिए निवेदन करेगा।

33) "इसी तरह तुम में जो अपना सब कुछ नहीं त्याग देता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।

मनन-चिंतन

हम मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की सिस्टर निर्मला को भली-भांति जानते हैं। उनका पूरा नाम सिस्टर निर्मला जोशी था, उनका जन्म 23 जुलाई 1934 को एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में स्कूली दिनों में जब वे ख्रीस्तीय धर्म के संपर्क में आई तो उन्होंने प्रभु येसु के बुलावे को महसूस किया, और 24 वर्ष की उम्र में उन्होंने काथलिक ईसाई धर्म को अपनाकर प्रभु येसु की उसी बुलाहट का पालन किया और बाद में वे न केवल मिशनरी धर्म बहन बनीं बल्कि मदर तेरेसा के बाद 1997 से 2009 तक सुपीरियर जनरल भी रहीं। उनका परिवार अमीर और इज्ज़तदार था, और एक ब्राह्मण परिवार था, उन्हें किसी चीज़ की कमीं नहीं थी क्योंकि उनके पिता उस समय की भारत की ब्रिटिश सेना में अफसर थे। लेकिन सिस्टर निर्मला ने मदर तेरेसा के द्वारा यह जाना कि ईश्वर दीन-दरिद्रों में निवास करता है, उनकी सेवा करने का मतलब है ईश्वर की सेवा करना है। उसी ईश्वर के प्यार की खातिर उन्होंने अपना सब कुछ छोड़ दिया, अपनी सुख-समृद्धि, अपना घर-परिवार और अपना समाज।

आज के सुसमाचार में हम एक विशाल जन समूह को देखते हैं जो प्रभु येसु के साथ-साथ चल रहा था। सुसमाचार के इस भाग से पहले हम विवाह भोज के दृष्टान्त को पढ़ते हैं जिसमें निमंत्रित लोग शामिल होने से इन्कार कर देते हैं और इसलिए राजा गली-चौकों से लोगों को बुलाकर लाने का आदेश देता है और उस भोज में बहुत सारे लोग शामिल हो जाते हैं इतने सारे कि स्वामी का घर भर जाता है। आज के सुसमाचार का जन समूह शायद उसी का प्रतीक है। प्रभु येसु सभी को बुलाते हैं, कोई बंदिश नहीं, कोई परीक्षा नहीं, और सब लोग प्रभु के पीछे आते भी हैं, लेकिन उनमें से सभी प्रभु येसु के शिष्य नहीं बन सकते क्योंकि प्रभु येसु के शिष्य बनना आसान नहीं है। कभी-कभी लोग एक दूसरे की देखा-देखी किसी एक रास्ते पर चल तो पड़ते हैं, लेकिन अगर उन्हें उस रास्ते के उतार-चढाव, कठिनाईयों, चुनौतियों इत्यादि के बारे में मालूम नहीं है तो, उस रास्ते पर शायद वो ज्यादा दूर तक नहीं जा पायेंगे। इसीलिए प्रभु येसु उनके भावी शिष्यों के लिए उनके रास्ते पर चलने की शर्ते स्पष्ट कर देना चाहते हैं।

सन्त मत्ती के अनुसार सुसमाचार के 22 वें अध्याय के पद संख्या 36-40 तक हम ‘संहिता में सबसे बड़ी आज्ञा’ के बारे में पढ़ते हैं, किसी शास्त्री के पूछने पर प्रभु येसु जवाब देते हैं, “अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो। यह सबसे बड़ी और पहली आज्ञा है।” (मत्ती 22:37-38)। हम जानते हैं कि ईश्वर हमें बिना शर्त और असीम प्यार करते हैं। वही सारी सृष्टि को नियंत्रित करते हैं, सब कुछ उन्हीं के हाथों में हैं, हमारी सांसें, हमारा जीवन हमारा सर्वस्व उसी का दिया हुआ है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए जीवन में सबसे बड़ी जिम्मेदारी और नियम यही है कि हम उसे सब कुछ से बढ़कर प्यार करें। जब प्रभु येसु हमें अपना शिष्य बनने के लिए बुलाते हैं तो उनके और हमारे बीच में कुछ भी नहीं आना चाहिए, न संसार, न घर-परिवार और ना समाज। हमें सब कुछ त्यागकर ईश्वर को प्यार करना है, प्रभु का अनुसरण करना है। यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन प्रभु येसु न केवल अपने परिवार और सगे-सम्बन्धियों को छोड़ने के लिये बल्कि उन से बैर करने के लिये क्यों कहते हैं?

स्वाभाविक रूप से हमारा हृदय प्रेम, लगाव, और अन्य भावनाओं का स्रोत एवं केंद्र है। हम जिसे भी प्यार करते हैं, उसके लिए अपने हृदय में जगह भी देते हैं, चाहे वे हमारे मित्र हों, माता-पिता हों, पत्नी, भाई-बहन आदि हों। जब हम ईश्वर की सबसे पहली आज्ञा का पालन पूरे ह्रदय से करने की ठान लें, तो ईश्वर से बढकर हमारे ह्रदय में कोई और नहीं हो सकता। जो बंधन हमें बांधे रखते हैं, जब तक हम उनसे मुक्त नहीं होंगे तब हम ईश्वर को सर्वोच्च स्थान नहीं दे पायेंगे। उदाहरण के लिए यदि हमारा कोई प्रियजन चाहे हमारे माता-पिता, या मित्र आदि हमसे सुसमाचार के मूल्यों के विरुद्ध जाने के लिए कहें, तो हम किसे अधिक महत्व देंगे, अपने प्रियजनों को जिन्हें हम बहुत प्यार करते हैं, या सुसमाचार को (ईश्वर को)? अपने प्रियजनों से पूर्ण रूप से विरक्त होना भी आसान नहीं है, इसलिये प्रभु येसु कुछ उदाहरणों द्वारा हमें आगाह करते हैं कि हमें सोच-समझकर, पूरी तरह से तोल-मोल कर प्रभु के रास्ते पर चलने का फैसला करना है, क्योंकि इसकी कीमत बहुत बड़ी है।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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