चक्र - स - वर्ष का चौबीसवाँ इतवार



पहला पाठ : निर्गमन 32:7-11,13-14

7) प्रभु ने मूसा से कहा, ''पर्वत से उतरो, क्योंकि तुम्हारी प्रजा, जिसे तुम मिस्र से निकाल लाये हो, भटक गयी है।

8) उन लोगों ने शीघ्र ही मेरा बताया हुआ मार्ग छोड़ दिया। उन्होंने अपने लिए ढली हुई धातु का बछड़ा बना कर उसे दण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, ''इस्राएल; यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया।''

9) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं देख रहा हूँ कि ये लोग कितने हठधर्मी हैं।

10) मुझे इनका नाश करने दो। मेरा क्रोध भड़क उठेगा और इनका सर्वनाश करेगा। तब मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।''

11) मूसा ने अपने प्रभु-ईश्वर का क्रोध शान्त करने के उद्देश्य से कहा, ''प्रभु; यह तेरी प्रजा है, जिसे तू सामर्थ्य तथा भुजबल से मिस्र से निकाल लाया। इस पर तू कैसे क्रोध कर सकता है?

13) अपने सेवकों को, इब्राहीम, इसहाक और याकूब को याद कर। तूने शपथ खा कर उन से यह प्रतिज्ञा की है - मैं तुम्हारी संतति को स्वर्ग के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारे वंशजों को यह समस्त देश प्रदान करूँगा और वे सदा के लिए इसके उत्तराधिकारी हो जायेगे।''

14) तब प्रभु ने अपनी प्रजा को दण्ड देने की जो धमकी दी थी, उसका विचार छोड़ दिया।

दूसरा पाठ : 1 तिमथि 1:12-17

12) मैं हमारे प्रभु ईसा मसीह को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मुझे बल दिया और मुझे विश्वास के योग्य समझ कर अपनी सेवा में नियुक्त किया है।

13) मैं पहले ईश-निन्दक, अत्याचारी और अन्यायी था; किन्तु मुझ पर दया की गयी है, क्योंकि अविश्वास के कारण मैं यह नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूँ।

14) मुझे हमारे प्रभु का अनुग्रह प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ और साथ ही वह विश्वास और प्रेम भी, जो हमें ईसा मसीह द्वारा मिलता है।

15) यह कथन सुनिश्चित और नितान्त विश्वसनीय है कि ईसा मसीह पापियों को बचाने के लिए संसार में आये, और उन में सर्वप्रथम मैं हूँ।

16) मुझ पर इसीलिए दया की गयी है कि ईसा मसीह सब से पहले मुझ में अपनी सम्पूर्ण सहनशीलता प्रदर्शित करें और उन लोगों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करें, जो अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए विश्वास करेंगे।

17) युगों के अधिपति, अविनाशी, अदृश्य और अतुल्य ईश्वर को युगानुयुग सम्मान तथा महिमा! आमेन!

सुसमाचार : सन्त लूकस 15:1-32

1) ईसा का उपदेश सुनने के लिए नाकेदार और पापी उनके पास आया करते थे।

2 फ़रीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, "यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता है"।

3) इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,

4) "यदि तुम्हारे एक सौ भेड़ें हों और उन में एक भी भटक जाये, तो तुम लोगों में कौन ऐसा होगा, जो निन्यानबे भेड़ों को निर्जन प्रदेश में छोड़ कर न जाये और उस भटकी हुई को तब तक न खोजता रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?

5) पाने पर वह आनन्दित हो कर उसे अपने कन्धों पर रख लेता है

6) और घर आ कर अपने मित्रों और पड़ोसियों को बुलाता है और उन से कहता है, ’मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने अपनी भटकी हुई भेड़़ को पा लिया है’।

7) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार निन्यानबे धर्मियों की अपेक्षा, जिन्हें पश्चात्ताप की आवश्यकता नहीं है, एक पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में अधिक आनन्द मनाया जायेगा।

8) "अथवा कौन ऐसी स्त्री होगी, जिसके पास दस सिक्के हों और उन में एक भी खो जाये, तो बत्ती जला कर और घर बुहार कर सावधानी से तब तक न खोजती रहे, जब तक वह उसे नहीं पाये?

9) पाने पर वह अपनी सखियों और पड़ोसिनों को बुला कर कहती है, ’मेरे साथ आनन्द मनाओ, क्योंकि मैंने जो सिक्का खोया था, उसे पा लिया है’।

10) मैं तुम से कहता हूँ, इसी प्रकार ईश्वर के दूत एक पश्चात्तापी पापी के लिए आनन्द मनाते हैं।"

11) ईसा ने कहा, "किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।

12) छोटे ने अपने पिता से कहा, ’पिता जी! सम्पत्ति का जो भाग मेरा है, मुझे दे दीजिए’, और पिता ने उन में अपनी सम्पत्ति बाँट दी।

13 थोड़े ही दिनों बाद छोटा बेटा अपनी समस्त सम्पत्ति एकत्र कर किसी दूर देश चला गया और वहाँ उसने भोग-विलास में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी।

14) जब वह सब कुछ ख़र्च कर चुका, तो उस देश में भारी अकाल पड़ा और उसकी हालत तंग हो गयी।

15) इसलिए वह उस देश के एक निवासी का नौकर बन गया, जिसने उसे अपने खेतों में सूअर चराने भेजा।

16) जो फलियाँ सूअर खाते थे, उन्हीं से वह अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था।

17) तब वह होश में आया और यह सोचता रहा-मेरे पिता के घर कितने ही मज़दूरों को ज़रूरत से ज़्यादा रोटी मिलती है और मैं यहाँ भूखों मर रहा हूँ।

18) मैं उठ कर अपने पिता के पास जाऊँगा और उन से कहूँगा, ’पिता जी! मैंने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है।

19) मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा। मुझे अपने मज़दूरों में से एक जैसा रख लीजिए।’

20) तब वह उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पड़ा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया।

21) तब पुत्र ने उस से कहा, ’पिता जी! मैने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है। मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।’

22) परन्तु पिता ने अपने नौकरों से कहा, ’जल्दी अच्छे-से-अच्छे कपड़े ला कर इस को पहनाओ और इसकी उँगली में अँगूठी और इसके पैरों में जूते पहना दो।

23) मोटा बछड़ा भी ला कर मारो। हम खायें और आनन्द मनायें;

24) क्योंकि मेरा यह बेटा मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है।’ और वे आनन्द मनाने लगे।

25) "उसका जेठा लड़का खेत में था। जब वह लौट कर घर के निकट पहुँचा, तो उसे गाने-बजाने और नाचने की आवाज़ सुनाई पड़ी।

26) उसने एक नौकर को बुलाया और इसके विषय में पूछा।

27) इसने कहा, ’आपका भाई आया है और आपके पिता ने मोटा बछड़ा मारा है, क्योंकि उन्होंने उसे भला-चंगा वापस पाया है’।

28) इस पर वह क्रुद्ध हो गया और उसने घर के अन्दर जाना नहीं चाहा। तब उसका पिता उसे मनाने के लिए बाहर आया।

29) परन्तु उसने अपने पिता को उत्तर दिया, ’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ।

30) पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’

31) इस पर पिता ने उस से कहा, ’बेटा, तुम तो सदा मेरे साथ रहते हो और जो कुछ मेरा है, वह तुम्हारा है।

32) परन्तु आनन्द मनाना और उल्लसित होना उचित ही था; क्योंकि तुम्हारा यह भाई मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और मिल गया है’।"

मनन-चिंतन

अभी कुछ दिन पहले ही हमने महान महिला सन्त मोनिका का पर्व मनाया है। उनका प्रार्थनामय जीवन करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है। जब उनका विवाह एक गैर-ख्रीस्तीय परिवार में हुआ था तो अपने ख्रीस्तीय विश्वास एवं मूल्यों को बनाये रखना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। वे अपने विधर्मी पति की आत्मा को विनाश से बचाना चाहती थी, इसलिए खूब प्रार्थना करती रहती थी। बाद में अपने बेटे अगस्तीन को भी सही रास्ते पर आगे बढ़ाना चाहती थी। लेकिन जब उनका पुत्र अध्ययन के लिए सांसारिक वातावरण में पड़ा तो उसी में संलग्न हो गया और अंधकार में भटककर खो गया। लेकिन उसकी माँ ने हिम्मत नहीं हारी बल्कि वह रो-रो कर घंटों अपने पति व अपने पुत्र के लिए लगातार प्रार्थना करती थी। और एक दिन उसकी सच्ची प्रार्थनाओं के फलस्वरूप उसके पति का मन परिवर्तन हुआ और उसने ख्रीस्त को स्वीकार किया। कड़ी तपस्या और वर्षों की आंसुओं भरी प्रार्थना के बाद उसके बेटे अगस्तीन का भी जीवन बदला और न केवल उसने प्रभु ख्रीस्त को अपनाया बल्कि अपना जीवन भी ईश्वर की सेवा में समर्पित कर दिया। बाद में वही भटका हुआ पुत्र पुरोहित बना, विद्वान बिशप बना और सन्त भी बना। उसकी माँ के लिए इससे बढ़कर और कोई ख़ुशी नहीं कि उसका पापी बेटा पश्चाताप कर एक सन्त बना। वह मृत्यु से पूर्व बताती है – “अब मुझे इस दुनिया की किसी ख़ुशी की ज़रूरत नहीं है, मैंने जितना माँगा उससे ज्यादा पाया।” उनके लिए यही सबसे बड़ी ख़ुशी थी कि उनका पुत्र प्रभु की पवित्र वेदी पर उन्हें याद कर सकता है। अगर एक सांसारिक माँ को अपने पुत्र के वापस ईश्वरीय रास्ते पर आने की इतनी ख़ुशी होती है, तो हमारे स्वर्गीय पिता को पापियों के वापस लौटने पर कितना आनन्द होगा?

सन्त लूकस के सुसमाचार के 15वें अध्याय में हमें तीन उदाहरण मिलते हैं- भटकी हुई भेड़ का दृष्टान्त, खोये हुए सिक्के का दृष्टान्त और खोये हुए पुत्र का दृष्टान्त। ये तीनों ही दृष्टान्त यही सन्देश देते हैं कि हमारे वापस लौटने पर पिता ईश्वर को अपार आनंद होता है। किसी वस्तु के खोकर वापस मिलने के आनंद की सीमा उस वस्तु के मूल्य पर निर्भर करती है। जैसा उसका मूल्य होगा वैसा ही उसके पाने पर ख़ुशी होगी। उदाहरण के लिए अगर किसी के सौ रूपये खो जाएँ और बाद में वो वापस मिल जाएँ तो ज़रूर बहुत ख़ुशी होगी लेकिन यदि किसी की सोने की अंगूठी खो जाये और बड़ी परेशानी के बाद मिल जाये तो उसकी ख़ुशी कहीं अधिक होगी क्योंकि अंगूठी की कीमत सौ रूपये से बहुत अधिक है। एक पश्चातापी मनुष्य के लिये स्वर्ग में इसलिये आनंद मनाया जायेगा क्योंकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की नज़रों में बहुत कीमती है। प्रभु कहते हैं – “तुम मेरी दृष्टि में मूल्यवान हो और महत्व रखते हो। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ...” (इसायस 43:4)। प्रभु का यह प्यार अस्थाई या अल्पकालिक नहीं है; बल्कि अनन्त है। आखिर हम प्रभु की दृष्टि में इतने मूल्यवान क्यों हैं?

एक बच्चा जब कक्षा में खूब मेहनत करता है, एक चित्र बनाता है, धीरे-धीरे पूरे धैर्य के साथ वह घंटों उसमें मेहनत करता है, रंग भरता, उसे सजाता-सँवारता है, और उसका वह चित्र जब बनकर तैयार हो जाता है, तो उसे बहुत ख़ुशी और गर्व होता है। जब लोग उसे देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं तो उसे बहुत आनंद होता है क्योंकि वह उसकी अपनी रचना है, उसे उसने खुद बनाया है। अब कल्पना कीजिए कि संसार के महान चित्रकार ने हममें से प्रत्येक व्यक्ति को अपने हाथों से बनाया है, अपने पूरे मन से बनाया है, प्रेम से बनाया है। हम स्तोत्र-ग्रन्थकार के साथ गा सकते हैं- “मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ- मेरा निर्माण अपूर्व है।.. जब मैं अदृश्य में बन रहा था, जब में गर्भ के अंधकार में गढ़ा जा रहा था, तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा...” (स्तोत्र 139:14-15)। उसने पल-पल हमारा ख्याल रखा। “माता के गर्भ में रचने से पहले ही मैंने तुम को जान लिया।” (येर० 1:5)। “मैंने तुम्हें अपनी हथेलियों पर अंकित किया है।” (इसयास 49:16)।

यदि हम प्रभु की इतनी अमूल्य रचना हैं, और यदि यह अमूल्य रचना पाप के कारण प्रभु से विमुख हो जाये, प्रभु से दूर चली जाये तो प्रभु को कितना दुःख होगा ! क्या हमारा रचनाकार चाहता है कि उसकी अपने हाथों से बनायीं हुई यह सुन्दर रचना व्यर्थ ही नष्ट हो जाये? उसने अपने स्वर्गदूतों को हमारी रक्षा के लिए लगाया है, हमारे दूत स्वर्ग में निरन्तर हमारे लिये प्रार्थना करते हैं। जब हम गलत रास्ते को, पाप के रास्ते को छोड़कर वापस प्रभु के पास आते हैं तो ज़रूर स्वर्ग में अपार आनंद मनाया जायेगा। क्या मैं अपने गलत और पापमय जीवन के द्वारा अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर को दुखी तो नहीं कर रहा हूँ? क्या मैं भी स्वर्ग में आनंद मनाने का कारण बन सकता हूँ?

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


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